( गुरु नानक जयंती पर विशेष.)
आत्माराम यादव पीव
ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से प्राचीन, नर्मदापुर तथा आधुनिक काल में होशंगाबाद जिले का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । पुण्य सलिला मॉ नर्मदा की महिमा न्यारी है तभी यहॉ साम्प्रदायिक सद्भाव की गौरवमयी मिसालें देखने को मिलती है। सिखों के आदि गुरु श्री गुरु नानक देव भी नर्मदा के महात्म को जानते थे तभी वे अपनी दूसरी यात्रा के समय जीवों का उद्धार करते हुये बेटमा, इंदौर, भोपाल होते वर्ष 1498 में होशंगाबाद आये और यहॉ मंगलवारा घाट स्थित एक छोटी से कमरे में 7 दिन तक रूके थे तब उनका यह 73 वां पड़ाव था तब तिथि के अनुसार होशंगाबाद के किले पर शहजादा मोहम्मद गियासुददीन का बडा बेटा अब्दुल कादिर गद्दी पर बैठा था
गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा लगाये गये बोर्ड के अनुसार उस समय में जिस शहजादा का जिक्र किया है वह राजा होशंगशाह है जिसके सम्बन्ध पुरातत्व विभाग किसी पुरालेख या शिलालेख की पुष्टि नहीं करता है। जब गुरु नानक देव जी होशंगाबाद नर्मदातट मंगलवारा घाट पर रूकने के बाद नरसिंहपुर ,जबलपुर में पड़ाव डालते हुये दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल गये थे। उक्त यात्रा से पूर्व जब वे यहॉ रूके थे तब उनके द्वारा स्वलिखित गुरूग्रंथ साहिब पोथी लिखी जिसे वे यही छोडकर चले गये थे, जो आज भी एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में गुरुद्वारे में विराजमान है जहां हजारों लोग श्रद्धा से नतमस्तक होते है।
गुरु नानक देव 1418 ईसवी में होशंगाबाद आये तब उनके आने की खबर राजा होशंगशाह को लगी तब राजा उनसे मिले और उनसे राजा, फकीर और मनुष्य का भेद जानने की इच्छा व्यक्त की गयी। गुरु नानक देव ने राजा से कमर में कोपिन (कमरकस्सा) बांधने को कहा, राजा ने गुरु नानक देव जी की कमर पर कोपिन बांधा तो उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही क्योंकि कोपिन में गठान तो बंध गयी पर कोपिन में कमर नहीं बंधी। राजा ने तीन बार कोशिश कर गुरु नानक देव की कमर में कोपिन बांधने का प्रयास किया लेकिन वे कोपिन नहीं बांध सके और आश्चर्य व चमत्कार से भरे राजा होशंगशाह गुरु नानक देव के चरणों में गिर गया ओर बोला मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर ले जिसे अपनी करुणा के कारण गुरु नानक ने स्वीकार कर राजा होशंगशाह को अपना शिष्य बना लिया। 17 साल बाद 1435 में राजा होशंगशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र गजनी खान यहां का उत्तराधिकारी हो गया था।
होशंगाबाद में जब गुरु नानक देव आये थे तब वर्ष 1418 चल रहा था। नर्मदा के प्रति उनका आगाध्य आध्यात्मिक प्रेम था इसलिए वे उसके तट पर रुके और उन्होंने कीरतपुर पंजाब में लिखना शुरू की श्रीगुरू ग्रंथ साहिब पोथी लेखन जो अपनी यात्रा में लिखते रहे वह स्याही के अभाव में स्वर्ण स्याही से पोथी लिखना शुरू की जो आज भी इस गुरूद्वारे में दर्शनार्थ रखी है और तब से वर्ष 2018 में इस ऐतिहासिक पड़ाव का 600 वां साल पूरा होने जा रहा है। चार पांच दशक पूर्व गुरु नानक देव के द्वारा जिस छोटी सी कोठरी मे अपना समय बिताकर पोथी का लेखन किया गया उस स्थान पर दर्शन करने के लिये अनेक स्थानों से श्रद्धालुओं की भीड़ जुडती थी परन्तु अब इस नयी पीढ़ी को इसका पता नहीं इसलिये वे इस पावन स्थान के दर्शन करने से चूक गयी है। दूसरा बडा कारण जिले का पुरातत्व विभाग एवं जिला प्रशासन है जिसने अपने नगर की इस अनूठी धरोहर की जानकारी से वंचित रखा हुआ है अलबत्ता सिख सम्प्रदाय के लोग गुरु नानक देव की जयंती के 4 दिन पूर्व से उत्सव मना कर शहर में जुलूस निकालने की परम्परा का निर्वहन करते आ रहे है जो हर साल गुरु नानक जयंती के पूर्व उत्साह और आनंद से धूमधाम से देखी जा सकती है।
नानकदेव जी की हस्तलिखित इस श्रीगुरूग्रंथ साहिब पोथी को पिछले 400 सालों से बनापुरा का एक सिख परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी दर्शन कर पाठ करने के साथ इस अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखते आ रहा है था और जिसकी जानकारी स्थानीय नागरिकों को थी किन्तु सिख समाज को नहीं थी जैसे ही एक स्थानीय सिख कुन्दनसिंह को जानकारी हुई तो उन्होंने गुरूनानक देव की हस्तलिखित इस धरोहर को अपने पास सुरक्षित रख लिया और 13 अप्रैल1973 मैं दोनों ने सार्वजिनक गुरुपर्व मनाया। चूंकि इसके पूर्व यह गुरूग्रंथ् साहिब एक बदमाश अपराधिक किस्म के व्यक्ति कालूराम ने अपने पास रखकर स्वर्णसियाही का होने पर मोटी रकम में उसे बेचने का मन बनाकर सरदार जोगेन्दर सिंह चड्ढा को रास्ते से हटाने के लिये उनपर कई तरह के झूठे मुकदमे कर उनके पूरे परिवार को प्रताडित किया किन्तु सरदार जोगेन्दर सिंह चडढा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उक्त बदमाश से भिड गये और उससे गुरू ग्रंथ साहिब मुक्त करवाकर विधिवत पूजा अर्चना करने लगे। यह अलग बात है कि सरदार जोगेंदर सिंह चड्ढा और उसके परिवार ने एक लम्बी और बडी लडाई लड़ी और हर मामले से बरी हुए। आज की स्थिति मे पूरा गुरुद्वारा बना दिया गया और समय के साथ ही लोग जुटते गये, विकास हुआ जिसमें सेवानिवृत्त कलेक्टर श्री लाम्बा श्री चडढा के साथ जुड गये। सन 1973 की बाढ़ मैं पानी लगने के कारण कुछ ग्रंथ साहिब जी के सफा ख़राब हुये लेकिन आज भी वैसे ही पावन और पवित्र है जिसकी लेखनी गुरूनानक देव जी ने सोने से बनाई इंक से लिखी है, वह पवित्र गुरूग्रंथ साहिब सभी 10 गुरूओं की वानी समाहित होने से अनमोल है।
यह आनन्द के पल थे जब 13 अप्रैल 1973 को गुरुद्वारा साहिब में इस पवित्र गुरु ग्रंथ की अर्चना की और सार्वजनिक गुरु पर्व मनाया जिसमें आमला से आये सरदार सूरत सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब को पहली माला अर्पित की तब कुंदन सिंह चड्ढा और आईएस लाम्बा उस समय उपस्थित थे। तभी से गुरुग्रंथसाहेब को उसी स्थान पर जहां नानक जी ठहरे थे स्थापित कर दिया गया और उसके बाद यहां प्रतिदिन नियमित पूजा अर्चना शुरू हो गयी और शब्द कीर्तन एवं लंगर इत्यादि आयोजन शुरू हुए जो क्रम अब तक जारी है। यहॉ पाठकों को अवगत कराना चाहूंगा कि गुरुद्वारा साहिब के बाहर लगे बोर्ड की तिथि 1418 प्रमाणित समझे तो उस समय गुरु नानक जी का जन्म नहीं हुआ था। उनका जन्म काल कार्तिक पूर्णिमा 1469 बताया गया है। गुरु नानक जी की जन्म तिथि के हिसाब से 1498 हो सकती है तब मोहम्मद गयासुद्दीन मालवा प्रांत का शासक होने से होशंगशाह के किले में ठहरा था और उस समय होशंगाबाद के गजेटियर के तथ्यों के माने तब महमूद खिलजी का पुत्र सिकंदर खान 1 लाख 80 हजार की विशाल सेना दक्षिण विजय की ओर लेकर यही ठहरा था तभी उनका गुरु नानक देव जी से मिलना और उनकी परीक्षा लेना माना जा सकता है। इतिहास के भूतों का चक्कर छोडिए और इस सुखद अवसर को स्मरण कीजियेगा जब नर्मदापुरम की माटी गौरवान्वित और धन्य हो गयी जब गुरु नानक जी के चरण यहॉ पडे जो ऐतिहासिक अवसर के साक्षी बनने के लिये आज भी मंगलवारा के गुरूद्वारा में गुरु ग्रंथ साहिब के दर्शनों से आत्मविभोर होने के लिए भक्तों की कतार लगी रहती है और कार्तिक की पूर्णिमा गुरु नानक जी की जन्मजयंती पर यहॉ पर एक विशाल जुलूस नगर की सड़कों से होता हुए यही समापित होने के साथ इस दिन लंगर का आनन्द लेने का अवसर कोई भी नहीं खोना चाहता है।
आत्माराम यादव पीव