समाज

हलाला ‘कानून और ‘तीन तलाक’ जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ?

गुस्से में तीन बार तलाक कहने और उन शब्दों को ‘ब्रह्म वाक्य’ मान लेने
से मुस्लिम समाज में कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार
‘तीन तलाक’ कहने -सुनने वालों का दाम्पत्य जीवन बर्बाद होते देखा गयाहै।
हर सूरत में मुस्लिम औरतों को ही तकलीफ उठानी पड़ती है। ऐंसे अनेक उदाहरण
प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री स्वर्गीय मीनाकुमारी को उनके ‘शौहर’ जनाब कमाल
अमरोही साहब ने गुस्से में ‘तीन तलाक’ दे दिया था । कुछ समय बाद पछतावा
होने पर कमाल अमरोही ने मीनाकुमारी जी से पुनः ‘निकाह’ का इरादा व्यक्त
किया। मीनाकुमारी भी राजी थीं, किन्तु कमाल अमरोही और मीनाकुमारी की राह
में तब ‘हलाला कानून’ आड़े आ गया ।

‘हलाला क़ानून’ के अनुसार मीनाकुमारी को बड़ी विचित्र और शर्मनाक स्थिति से
गुजरना पड़ा ।उन्हें अमरोही साहब से दोबारा निकाह करने से पहले किसी और
मर्द से निकाह करना पड़ा। हलाला के अनुसार उन्हें उस नए शौहर के साथ
‘हमबिस्तर’ होकर ‘इद्दत’ का प्रमाण पेश करना पड़ा। इद्दत याने ‘मासिक’ आने
के बाद उन्हें अपने उस नए[!] शौहर से ‘तीन तलाक’ का ‘अनुमोदन’ भी लेना
पड़ा ! इतनी शर्मनाक मशक्कत के बाद मीनाकुमारी और कमाल अमरोही का फिरसे
‘निकाह’ हो सका !

हिन्दू समाज में भी स्त्री विरोधी ढेरों कुरीतियाँ रहीं हैं ,किन्तु उन
कुरीतियों से लड़ने के लिए ‘हिन्दू समाज’ का प्रगतिशील तबका समय-समय पर
प्रयास करता रहा है। हिन्दू समाज में बाल विवाह,सती प्रथा और ‘विधवाओं
की घर निकासी’- काशीवास या मथुरावास जैसे अनेक जघन्य अनैतिक रीति-रिवाज
विद्यमान रहे हैं । इनमें से कुछ कुरीतियाँ अभी भी यथावत हैं। किन्तु
१८वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय और ततकालीन अंग्रेज गवर्नर के
प्रयासों से ‘सती प्रथा’ को समाप्त करने में हिन्दू समाज को पर्याप्त
सफलता मिली है। हालाँकि उसके बाद भी दबे-छुपे तौर पर इस जघन्य प्रथा को
कहीं-कहीं प्रश्रय दिया जाता रहा है ,किन्तु हिन्दू समाज ने और भारत के
संविधान निर्माताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया ।

जब दुनिया के अधिकांश  प्रगतिशील मुस्लिम समाज ने ‘तीन तलाक’ को अस्वीकार
कर दिया है , तब भारतीय मुस्लिम समाज को इस नारी विरोधी ‘हलाला ‘कानून
और ‘तीन तलाक’ जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ? सदियों
उपरान्त इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी ,हम हर गई गुजरी परम्परा को
क्यों ढोते रहें ?बर्बर और समाज विरोधी कुरीतियों की शिद्दत से मुखालफत
क्यों नहीं करनी चाहिए ?