ख़ुद की तक़दीर लिखने के लिए आधी आबादी को आगे आना होगा

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महिलाएं देश की आधी आबादी हैं। महिलाओं के बिना किसी भी राष्ट्र की तरक्की और उन्नति की कल्पना करना बेमानी लगता है। फ़िर इक्कीसवीं सदी के भारत में चंद महिलाएं ही क्यों पुरुष-प्रधान समाज के साथ कंधा मिलाकर चल पाने में सक्षम हो पाती हैं? क्या कारण है कि जब भी दुर्दशा जैसे शब्द जुबां पर आते हैं, तो इक्कीसवीं सदी के भारत में “महिलाओं की दुर्दशा” का शब्द स्वतः प्रस्फुटित हो उठता है? संविधान कहता समता हो। फ़िर समाज कैसे उसकी बातों को दरकिनार कर जाता है? इतना ही नहीं संविधान की कसमें खाने वाले कैसे मुकर जाते समता के अधिकार को अमलीजामा पहनाने से? सवाल तो जीवंत और कालजयी हैं, लेकिन उत्तर देने वाला कोई नहीं। दुःखद तो बस इतना ही है। वैसे देखा जाए तो महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी कामयाबी का लोहा मनवाया है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में आज भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद ही कम है। जो दुःखद कहानी है। ये बात अलग है कि चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल महिला आरक्षण और महिला उत्थान की बात करते नही अघाते हैं। वही जब महिलाओं को चुनावी समर में उतरने की बात हो तो टिकट पुरुष उम्मीदवार की झोली में ही गिरता है। 
       यह कड़वा सच ही है कि आजादी के सात दशक बाद भी महिलाओं को समाज में उचित सम्मान नही मिल पाया है। आज भी महिलाओं को अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ता है। रूढ़िवादी परम्पराओ के नाम पर आज भी महिलाओं को अपनी बात रखने का और स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार नही मिल पाया है। परम्पराओ के नाम पर आज भी महिलाओं के सपनों की बलि चढ़ा दी जाती है। ये लोकतंत्र की दुःखद दास्ताँ ही है, कि आज भी संसद में महिलाओ की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है। चंद महिलाएं ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है। जिस रवायत को बदलने वाला कोई भगीरथ आज नज़र नहीं आता है। जब गंगा को धरती पर लाने वाला कोई भगीरथ हो सकता है, फ़िर आधी आबादी को सम्पूर्ण हक दिलाने वाला कोई भगीरथ क्यों नहीं आता? सवाल अपने आप में यह भी है।           एक बात तो है। हमारे देश में महिला अधिकारों की बात सिर्फ चुनाव के समय ही की जाती है। बाकी समय मे महिलाओं पर होते अत्याचार ही मीडिया की सुर्खियां बनते है। हमारा संविधान हमे समता व समानता का अधिकार देता है। फिर महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार क्यों किया जाता है? क्यों परम्पराओ के नाम पर महिलाओं के सपने कुर्बान कर दिए जाते है?क्यों महिला और पुरुषों के लिए समाज मे अलग अलग नियम बना दिए जाते है? आज आधुनिक समाज मे भी यह दुर्व्यवहार महिलाओं के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। आज भी ज़मीनी हकीकत देखे तो महिलाओं को पुरुषों के बराबर शिक्षा नही दी जाती है। उन्हें घरेलू काम और परिवार की जिम्मेदारी दे दी जाती है। बच्चों को संभालना हो या फिर घर के बुजुर्गों की देखभाल करना हो ये काम महिलाओं के जिम्मे ही आते है। ऐसा लगता है मानो महिलाएं अपने जन्म के साथ ही अपने भाग्य में चूल्हा चौके का काम लिखवा कर लाई हो। यही वजह है कि महिलाएं बाकि के कार्यो के लिए समय ही नही निकाल पाती है। ये सच है कि जब तक महिलाएं स्वयं नीति निर्माण के कार्यो में अपनी भागीदारी नही बढ़ा लेती तब तक महिलाओ के अच्छे दिन की कल्पना करना बेमानी ही है। 
        वैसे एक सवाल यह भी है कि जो महिलाएं उच्च पदों पर आसीन है, वह क्यों दूसरी महिलाओं को आगे बढ़ने में मदद नही करती है? जब तक महिलाएं एक जुट होकर आगे नही आएगी, तब तक समाज मे महिलाओं की दुर्दशा तय मानो। राजनीति के रणबांकुरे यह बात बहुत अच्छे से समझ गए है कि बिना महिलाओं के साथ के चुनावी बैतरणी को पार करना मुश्किल है। यही वजह है कि समय समय पर महिलाओं के हक की बात राजनेता करते दिखाई दे जाते है, लेकिन चुनावी समर खत्म होते ही महिलाओ के मुद्दों पर मौन धारण कर लिया जाता है। देश की संसद में महिला सांसदों की बात करे तो महज 14.3 प्रतिशत महिला सांसद ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही है। जबकि अमेरिका में 32 प्रतिशत महिला सांसद है तो वही बांग्लादेश जैसे देश मे 21 प्रतिशत है। आज के वर्तमान परिदृश्य में देखे तो अब वह समय आ गया है जब महिलाओं को राजनीति के समर में बराबरी का हक दिया जाना चाहिए। महिलाओं को स्वयं अपनी सियासत की जमीन तैयार करनी होगी। भारतीय महिलाओं का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही है कि हमारे देश में महिलाएं मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री यहां तक की राष्ट्रपति के पद पर भी आसीन रही है बावजूद इसके आधी आबादी के उत्थान के लिए इन महिला नेताओ ने कोई खास पहल नही की है। ये अलग बात है कि इन नेता मंत्रियों ने चुनाव के समय पर महिलाओं के लिए बड़ी-बड़ी डींगें जरूर मारी है। लेकिन डींगें मारने से स्थिति नहीं बदलती न! अफ़सोस सिर्फ़ इसी बात का है।
सोनम लववंशी

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