बस्तर में सिमट रहा है माओवादियों का दायरा


हाल में बस्तर के घनघोर जंगल में जाकर जनसत्ता रायपुर के स्थानीय संपादक अनिल विभाकर और वहीँ के सलाहकार संपादक सुजीत कुमार (आईएएनएस एवं रायटर के प्रदेश प्रतिनिधि) ने फोटो सहित यह रिपोर्ट छापी है। जनसत्ता के रायपुर संस्करण में पहले पेज पर चित्र सहित अविकल प्रकाशित यह रिपोर्ट उनकी अनुमति से ‘प्रवक्‍ता’ के पाठकों के लिए यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -संपादक

-जगरगुंडा के जंगल से अनिल विभाकर/सुजीत कुमार

-दलम की युवतियों के यौन शोषण के आदी हो गए माओवादी

-हत्या और लूट हो गया है उनका पेशा

-माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं

पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बढ़ते दबाव से माओवादी इस समय भारी मुश्किल में हैं। इसके बावजूद वे अपनी कमजोरी प्रकट न होने देने की रणनीति के तहत बस्तर के जंगल में रह-रह कर जहां-तहां बारूदी धमाके और हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। माओवादियों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी ही सिद्धांतहीन हरकतों से छत्तीसगढ़ में उनकी बुनियाद खिसक रही है। बस्तर में उनका असली चेहरा इस कदर बेनकाब हो गया है कि खुद उनके कैडर के लोगों को अब यह महसूस हो रहा है कि माओवाद का कोई भविष्य नहीं है। हत्या, लूटपाट, ठेकेदारों से लेवी की वसूली और आदिवासी महिलाओं की इज्जत-आबरू बेखौफ लूटने की वजह से लोग उन्हें ‘दादा’ कहने लगे हैं। माओवादियों की ये हरकतें उनके कैडरों को ही सिद्धांतहीन लगती हैं। इन हरकतों की वजह से खुद उनके कैडर यह मानने लगे हैं कि माओवादियों और लुटेरों-अपराधियों के बीच फर्क करना उनके लिए अब मुश्किल हो रहा है। इस हकीकत से अवगत हो जाने के बाद उनके फौजी दस्ते के लोगों का माओवादियों से मोहभंग होने लगा है और वे हमेशा ‘दादा’ का साथ छोडऩे की ताक में हैं। मौका पाकर कई लोग तो भाग भी चुके हैं उनके चंगुल से। दंतेवाड़ा के किरंदुल, बचेली, सुकमा, नकुलनार, कुआकोंडा, गादीरास, मोखपाल, मैलाबाड़ा, चंगावरम, कोर्रा, दोरनापाल, केरलापाल, कोंटा और जगरगुंडा के घने जंगलों में सीधे-सादे आदिवासियों से बातचीत करने के बाद पिछले दिनों यही हकीकत उभर कर सामने आई।

दंतेवाड़ा से सुकमा और फिर सुकमा से नेशनल हाइवे 221, जो आंध्रप्रदेश के भद्राचलम तक जाता है, यह बस्तर का एक महत्वपूर्ण नक्सल प्रभावित इलाका है। इस हाइवे की कुल लंबाई 329 किलोमीटर है। यह आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से शुरू होकर छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में आकर समाप्त होता है। छत्तीसगढ़ में इसकी कुल लंबाई 174 किलोमीटर है। इस नेशनल हाइवे के दोनों ओर घने जंगल हैं मगर यह सिर्फ कहने भर को नेशनल हाइवे है। एक वाहन गुजरने भर की इस सड़क की हालत जगह-जगह बहुत जर्जर है। इस इलाके के लोग कहते हैं कि माओवादियों ने इसे जगह- जगह खोद कर और लैंडमाइंस लगाकर बर्बाद कर दिया है। सरकार ने मिट्टी और पत्थर के टुकड़े भर कर इस हाइवे को बमुश्किल यातायात के काबिल बना तो जरूर दिया है मगर अब भी इस हाइवे से बेहतर कई जगह की ग्रामीण सड़कें हैं। लोगों का कहना है कि नेशनल हाइवे होने की वजह से न तो राज्य सरकार इसपर ध्यान दे रही है न ही केंद्र सरकार जबकि इस इलाके के विकास और माओवादियों पर काबू पाने के लिए इसका न सिर्फ दुरुस्त होना जरूरी है बल्कि इसे डबल लेन भी प्राथमिकता के आधार पर करना आवश्यक है। छत्तीसगढ़ को आंध्रप्रदेश से जोडऩे वाले इस नेशनल हाइवे पर दिन में माल से लदे ट्रकों की आवाजाही देखने को मिलती है। आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ तक करखनिया माल और खनिज की ढुलाई के लिए यह सड़क बेहद जरूरी है इसलिए ट्रक चालकों के लिए इस हाइवे से गुजरना उनकी मजबूरी है। इस नेशनल हाइवे से उस इलाके के जंगली गांवों को जोडऩे के लिए राज्य सरकार ने इसके दोनों ओर जहां- तहां सड़कों के निर्माण की योजना तो बनाई है, कई जगह कच्ची सड़कें बन भी गई हैं मगर उन सड़कों के कंक्रीटीकरण या डामरीकरण का काम नहीं हो पाया है। माओवादी नहीं चाहते कि वे सड़कें बनें क्योंकि सड़क बन जाने से आदिवासियों तक विकास की रोशनी पहुंच जाएगी और इस रोशनी में ‘दादा’ यानी माओवादियों के चेहरे बेनकाब हो जाएंगे।

बस्तर का यह वह इलाका है जहां माओवादियों ने अब तक सबसे अधिक हिंसा और रक्तपात किया है। इस नेशनल हाइवे के किनारे कुछ जगहों पर जैसे भूसारास और रामपुरम में सीआरपीएफ के कैंप हैं। पिछले दो साल में इस इलाके में माओवादियों पर पुलिस फोर्स का दबाव इतना बढ़ गया है कि दिन में इस हाइवे से गुजरना अब उतना खतरनाक नहीं रह गया। नकुलनार और गादीरास समेत कई जगहों पर साप्ताहिक बाजार लगे हुए मिले मगर शाम होने से दो घंटे पहले ही बाजार समाप्त हो गया। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण सूरज ढलने से पहले सुरक्षित अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। लोग सामान्य जिंदगी जीना तो चाहते हैं मगर ‘दादाओं’ का खौफ उनमें अब भी कायम है। हाइवे के किनारे कुछ गांवों के पास दो- एक जगह मुर्गों की लड़ाई के आयोजन भी दिखे। मनोरंजन के लिए आयोजित इस तमाशे में बड़ी संख्या में आदिवासी हाथ में दस- दस रुपए के नोट लिए उस मैदान को घेरे हुए इस में शिरकत करते दिखे जिसमें मुर्गे की लड़ाई चल रही थी। मतलब कि उस आदिवासी इलाके के लोग सामान्य जिंदगी जीना चाहते हैं, मनोरंजन करना चाहते हैं मगर ‘दादाओं’ यानी माओवादियों का खौफ अब भी उनके सिर पर नाच रहा है। अब से दो साल पहले ये ग्रामीण और आदिवासी इस इलाके में आसमान में सूरज के रहते न तो ढंग से बाजार कर सकते थे न ही मनोरंजन। लोगों को यह जो थोड़ी सी राहत मिली है वह ‘दादाओं’ पर पुलिस फोर्स के बढ़ते दबाव का प्रतिफल है। लोगों से बात करने पर यह बात साफ- साफ सामने आई कि इसी तरह पुलिस फोर्स का दबाव बना रहा तो दो साल में इस इलाके से माओवादियों का सफाया तय है और आदिवासियों में ‘दादाओं’ की दहशत खत्म हो जाएगी।

दरअसल केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ समन्वय स्थापित कर पिछले कुछ महीनों में माओवादियों के खिलाफ जिस तरह संयुक्त अभियान चला रखा है उससे माओवादी भारी परेशान हैं। इसी परेशानी में वे अब अभियान रोकने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम को माओवादियों ने इसी तिलमिलाहट में हमले की धमकी भी दी है। माओवादी अपने उन बुद्धिजीवी कैडरों को भी इस काम में लगाए हुए हैं जो दिल्ली समेत अन्य शहरी इलाकों में मानवाधिकार की आड़ लेकर ‘दादाओं’ के खिलाफ जारी पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। हार्डकोर माओवादियों को भी इस बात का अहसास अब होने लगा है कि उनके कैडर में शामिल आदिवासी युवकों और युवतियों को माओवाद के सपने दिखाकर बहुत दिनों तक संगठित रखना आगे चलकर अब मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वे यह भलीभंति जानते हैं कि उनके हिंसक आतंक की वजह से जो आदिवासी अभी उनका विरोध नहीं कर रहे या चुप हैं वे कभी भी विरोध का झंडा उठा सकते हैं। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि आदिवासी उनकी रंगदारी और दादागीरी से आजिज आ चुके हैं। इसीलिए अब वे उन्हें माओवादी की जगह ‘दादा’ कहते हैं। अच्छी-खासी संख्या में युवक और युवतियां माओवादी दस्ते से भाग भी चुके हैं। यात्रा के इस क्रम में जगरगुंडा के जंगली इलाके में ऐसी कई युवतियों से मुलाकात हुई। उनसे बातचीत में जो तथ्य सामने आए वे गरीबों और शोषितों के हित के लिए हिंसा और हथियारबंद माओवादियों की हकीकत खोलने के लिए काफी हैं।

छत्तीसगढ़- आंध्रपद्रेश की सीमा पर जगरगुंडा जंगल में पोरियम पोजे नाम की एक युवती का, जो पांच साल से ज्यादा वक्त से विजय दलम में सक्रिय है, कहना है कि माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है। पोजे लगभग तीस साल की युवती है जिसने 12 बोर की बंदूक थाम कर आधा दर्जन से अधिक माओवादी हमलों में उसने हिस्सा लिया। उसका साफ कहना है कि शुरू में वह माओवादियों के सिद्धांत से प्रभावित जरूर हुई। वे लोग एक दिन शाम में हमें घर से जबरन उठा कर ले गए थे। मगर पांच साल से भी अधिक दिनों तक इसमें सक्रिय रहने के बाद अब इस आंदोलन से उसका मोहभंग हो गया। उसे ऐसा लगा कि माओवादी लड़ाके सिद्धांत से भटक चुके हैं और वे अब लुटेरे और हत्यारे हो गए हैं। सिद्धांत से उनका अब कोई लेना-देना नहीं रह गया है। उसने कहा कि माओवादियों के संघर्ष को उसने बहुत करीब से देखा और समझा है। शोषितों – पीडि़तों के कल्याण के नाम पर शुरू की गई यह हथियारबंद लड़ाई आतंक की राजनीति के रूप में तब्दील हो गई। ‘दादा’ लोग गांव- गांव में आतंक मचा रहे हैं। निर्दोष ग्रामीणों की सरेआम हत्या कर रहे हैं। इसलिए उसका इससे मोहभंग हो गया है। आतंक की इस राजनीति को वह हमेशा के लिए अलविदा कहने के लिए तैयार है। पोजे ने कहा- शुरू में दादाओं (माओवादियों) ने कहा कि वे लोग भारत सरकार का तख्तापलट कर अपना शासन कायम करेंगे। इस सरकार में उनका भला होने वाला नहीं है। अपना शासन होने पर वे गरीबों को जमीन, मकान व अनाज देंगे…. रोजी-रोजगार देंगे। मगर दादाओं ने लेवी वसूली, लूटपाट और हत्याओं का सिलसिला जिस कदर चला रखा है उससे तो ऐसा लगता है कि इस आंदोलन का अब कोई भविष्य नहीं है… इससे गरीबों का कोई भला होने वाला नहीं है।

पोजे मुडिय़ा आदिवासी युवती है। वह हिंदी नहीं जानती। पिछले कुछ महीनों से वह मुख्य धारा में आने के लिए हिंदी बोलने- समझने की कोशिश कर रही है इसलिए वह टूटी-फूटी हिंदी ही बोल पाती है। उससे बात करने में एक दुभाषिए ने सहायता की। उसने साफ-साफ कहा कि ‘दादा’ बस्तर में लुटेरे बन गए हैं… हत्यारे बन गए हैँ, क्रांति के नाम पर वे निर्दोष लोगों की हत्यएं कर रहे हैं तथा व्यापारियों और अन्य लोगों से रंगदारी व लेवी वसूलते हैं। …. इतना ही नहीं वे दलम में शामिल महिलाओं और युवतियों का यौन शोषण करते हैं। उसने कहा वह इस बात की गवाह है और उसका यौन शोषण करने की भी कोशिश की गई .. इससे उसका मन ‘दादाओं’ के प्रति घृणा से भर गया। बड़े गुस्से में उसने कहा कि हत्यारे और लुटेरे जो काम करते हैं ‘दादा’ लोग भी तो वही सब कर रहे हैं.. फिर माओवादियों और लुटेरों व हत्यारों में क्या अंतर रह गया? पोजे कहती है कि पुलिस से उसे अब कोई डर नहीं लगता। वह अब भी अविवाहित है और अपने गांव लौट जाने का मन बना चुकी है। मौका मिलते ही कभी भी भाग निकलेगी। वह विवाह कर सामान्य जिंदगी जीना चाहती है। उसका कहना है कि हिंसा और आतंक की इस राजनीति का न तो कहीं अंत दिखता है, न ही कोई भविष्य। पोजे ने कहा- ‘दादाओं’ का कहना है कि उनका जनाधार बढ़ रहा है जबकि उसका अनुभव है पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण पिछले एक साल में ‘दादाओं’ पर न सिर्फ खतरा बढ़ा है बल्कि वे डर के मारे एक जंगल छोड़ दूसरे जंगल में पनाह लेते फिर रहे हैं। उसने कहा कि हकीकत यह है कि बस्तर में दिन पर दिन ‘दादाओं’ का दायरा सिमटता जा रहा है।

17 COMMENTS

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  3. jagah sahi hai Lakhan ji. sandeep pandey, himanshu ji samet jitne bhi aapke maharathi hain unhen kah seejiye pahle ve log apni chhavi sudharen. kashmir jakar whan kranti karen. manvadhikar ki aad men naxli hinsa ko jayaj nahin thahrayen. hinsa chahe police kare ya naxli ise hinsa hi kaha jayega. police karrwaie ki aad lekar naxliyo ko hinsa karne ki chhot nahi di ja sakti. manvadhikarvadi dohre mandand apnate hain. aap jis yatra ki bat kar rahe hain usase pahle bhi ve log bastar ke janglon men ja chuke hain. wahan ke logon ko jab un logo ka asli chehra dikh gaya tabhi unpar logon ne tamatar aur ande fenke.. police ko kyon badnam karte hain Lakan ji.Himanshu ka jhoot to delhi ke patrakaron ko maloom ho chuka hai. ngo ka paisa kha kar himanshu mamle ko uljha rahe hain. apni dukan chala rahe hain himanshu. aapko lalsalam.

  4. धन्यबाद,मुझे लगता हे की में गलत जगह बहस कर raha hun.aap hi सही हे.लाखन जे सिंह ambikapur

  5. Lkhan ji

    Tab to bina gaye hi bastar ke bare men itna kuchh aaplog likte- chhapwate rahte hain na? wahan sena to kahin tainat hai hi nahin. force zaroor hai. fir bina bastar ke janglon men gaye media men jo kuchh maovadion ke samarthan men our police tatha sarkar ke virodh men chhap raha hai use sach kaise mana jayega? lakhan ji police ke pahre men aap bastar kabhi gaye hain? lagta hai aap bastar ke bare me aap jitna bata rahe hain aur aapko jitni jankari hai usase to yehi lagta hai ki naxlayon ke sath hi aap wahan ke janglon men ya to rahte honge ya wahan gaye honge. aapke bare men jitni khoobiyan khul kar aayi hain usase kinara kyon kar rahen hain aap? tb aap itne ghaplebaj aur bhrasht hain to aap par koie yakeen kaise karega? aise aadmi kisi ke liye na to bharosemand ho sakte na hi kisi ke shubhchintak. aise aadmi par bharosa karne wala har samay dhokha khayega. bina hakokat jane jhooth ko hakikat batakar prachar karna band keejiye lakhan ji. dimag ki khidki kholiye aur taja hawa dimag men aane deejiye. aapko kaise pata bhai ki das- pandrah sal men des men maovadiyon ki sarkar ban jayegi? aap naxli hain kya? naxliyon sa aapke to gahre tallukat lagte hain. litte jitne sangathit aur taktwar to abhi maowadi ies des men hue nahin hain. litte jiski poori sangathit fauj thi uska kya hal hua ? ies tarah ke sapne mat dekhiye Lakhan ji. aap to sahi men naxali hi lagte hain.

  6. वर्तुल venktesh जी,maaf कीजिये मेने आपका मेल nahi padh पाया था,.मेघा जी ,संदीप पाण्डेय या कविता श्रीवास्तव या हिमांसु जी की जिस yatra का आप जिक्र कर रहे हे उसे आप भी जानते होंगे की दंतेवाडा में इनके sath kiya huaa था.police aur दोनों पमुख पार्टियों के साथ salvajudum के लोगो ने kaya किया था.आप ये भी जानते होंगे ही की uske २० दिन पहले दंतेवाडा ja रही ३९ मानवाधिकार महिला karykarto को kondagao तक panch बार पुलिस ने बलपूवर्क रोक कर वापस कर दिया था..आप को ये भी याद दिला दे की prashsshan ne hinansuजी को लिख कर दिया था की कोई कार्यकर्त्ता ओपरेशन ग्रीन हंट के sami जंगलो में न जाय.आप ये अछि तरह जानते हे ,लेकिन maante भले न हो की बिना पुलिस और सेना की parmition के कोई भी जंगलो me नहीं जा सकता.यहाँ तक की वो भी अपनी मर्जी से अपने घरो से बहार नहीं निकल सकते जो हजारप साल से वाही रह रहे हे.भाई मन भी जाओ की उन चेत्रो में प्रजातंत्र नहीं poloce तंत्र हे.लाखन जे सिंह अंबिकापुर.

  7. bhurai ji, aap to apna नाम तक पूरा नहीं लिख सकते,लाखन जे singh aur लखन singh की जन्मपत्री खोज कर kaya karoge.bahas को person में mat ghumaea balki मुद्दे पर बात करें तो theek rahega,dr.बिनायक सेन aur himansu ji ne जो लिखा और kiya he उससे तो सलवा जुडूम तथा विशेष जन suracha adhiniyam की सच्चाई दुनिया के samne khol di he. जशपुर से लेकर अंबिकापुर तक, रायगढ़ से लेकर बिलासपुर तक और बस्तर से लेकर दंतेवाडा तक प्राकर्तिक संसाधनों की लूट हे जिसे carporet sectoe तथा desi udhogpati मिल कर सभी कानूनों को धता बता कर सरkar के सहयोग से कर रहे हे.ये सब देश के उपरी २० प्रतिशत लोगो की सुविधा के liea हो रहा हे.आप nishchit ही उसमे नहीं aate honge.moka आने dijiea दोस्त हम सब ek ही naav में हे. जिसे dubane.ke liea aise log bhi lage he jo khud usme bethe he..hame bahut jayada intjar nahi karna padega.10-15 sal kafi हे लाखन जे. singh ambikapurj.

  8. lkhan ji yadi polie aur sena ke alava dantevada men kisi ka jana mumkin nahin hai to Himansu kumar , Medha Patkar ya maovadiyon ke samarthak wahan kaise jate hain? sena ya police ke sangrakhan men to ve log nahin hi jate honge na. ve log yadi bina police or sena ki madad ke dantevada ke jangalon men ja sakte hain to baki log kyon nahi ja sakte? Lakan ji aapki khoobiyon ke bare men jo baten reaction men aaye hain unke bare men kya kahna hai aapka?

  9. लेखकों को बधाई । सच्चाई सामने है । माओवाद भारत का भविष्य नहीं हो सकता । हिंसा से रास्ते नहीं निकलते । आलोचना से माओवादियों को तनिक भी विचलित नहीं होना चाहिए यदि वे वास्तव में जनता के हितैषी हैं तो । वैसे हैं ही नहीं है । जो उनकी ओर से समर्थन जुटा रहे हैं वे भी या तो दिग्भ्रमित हैं, या पार्टटाईम वर्कर हैं उनके, या फिर उन्हें प्रजातंत्र की गहराई और माओवादी टूच्चाई के समग्र इतिहास का पता ही नहीं है । विश्वास है बस्तर की सुरते हाल इसी तरह पढ़ने को मिलता रहेगा । क्योंकि सच कहीं से भी आये, स्वागत किया जाना चाहिए

  10. बस्तर में क्या हो रहा है इसे लाखन सिंह नहीं बता सकते । क्योंकि ये तो रहते हैं अंबिकापुर में । मैंने इनकी कारस्तानी पिछले दिनो देखी है । ये एक नंबर के मति भ्रष्ट हैं । संभवतः यदि ये वही हैं जो भारत ज्ञान विज्ञान समिति में घूस कर बिलासपुर जिले के गरीब अनपढ़ लोगों के लिए संचालित साक्षरता अभियान के कारण कुछ वर्ष पहले सुर्खियों में आये थे तो ऐसे लोगों से समाज को सचेत रहना चाहिए । ये महाभ्रष्ट अधिकारी रहे हैं । इनकी समिति वालों ने देशभर में साक्षरता के किले को दीमक की तरह चर खाया है, यह हर साक्षरता कर्मी जानता है । संभवतः ये लाखन सिंह वे वाले लाखन सिंह न हों तो इनसे बात की जा सकती है ।
    यदि वे हों तो भी यह तो कहा ही जा सकता है कि लाखन सिंह जी, आपको डेमोक्रेसी ने तो नौकरी दी है, सामाजिक वातावरण दिया है, सड़क दिया है, पानी दिया है, स्कूल दिया है, न्यायालय दिया है, चुनाव पद्धति दी है, फिर आप इतने क्यों अंसतुष्ट हैं भाई जो आपको सरकार की हर गतिविधि पर संदेह है । क्या आप माओवादियों के प्रवक्ता हैं । क्या आपको ऐसे में नहीं कहा जा सकता है कि कहीं आप भी तो उनके चंदे पर यह काम नहीं कर रहे हैं । माओवादी तो देश भर में साथ देनेवाले दोयम दर्जे के लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों, एक्टिविस्टों की फौज तैयार कर ही लिये हैं । शायद आप उनमें से ही तो एक नहीं, जो अपने विरोध में आये तथ्य को नकार रहे हैं । नक्सली या माओवादी भी तो यही आरोप लगाता हैं जो आप लगा रहे हैं । विनायक भी यही करता था । हिमांशु यही करता था ।

    जो लोग निहत्थे आदिवासियों को मारने को आन्दोलन कहते हैं उनसे समाज, देश को भगवान ही बचाये । आंदोलन वही ठीक है जो जानलेवा न हो, जिसमे शोषण का ही पक्ष न रखा जा रहा हो । जिसकी बुनियाद ही हिंसा, भय और आंतक हो । इसे किस मुँह से आंदोलन कहना उचित होगा, पढ़े लिखे समझ सकते हैं । चन्द्रपाल जैसे एकांगी सोचनेवाले नहीं ।

  11. मैंने यह लेख पहले ही पढ़ लिया था । दोनों लेखकों ने संभावित माओवादी खतरे और संकट की संभावनाओं को भी जानते हुए सच का बयान किया है । अतः दोनों साधुवाद के पात्र हैं । यही सही तस्वीर है बस्तर की, जिसके लिए माओवादी अधिक व्यवस्था कम जिम्मेदार हैं । यदि व्यवस्था ने बस्तर को लूटा तो माओवादियों ने विकल्प देने के लिए तानाशाही लाद दी है बस्तर में । वे भी नपुंसक हैं नेताओं की तरह । अपने घर भरने में लगे हैं । ये भी रेफ करते हैं । ये भी दादागिरी फीस वसूलते हैं । ये भी स्वार्थ (भय और आंतक जमाने ) के लिए विस्फोट करते हैं । जनसुनवाई में आदिवासियों का गला रेतते हैं । सड़क उड़ाते हैं । पुलिया उड़ाते हैं । ये सिर्फ बड़े नेताओं, पूँजीवादियों, व्यापारियों, बड़े अफसरों को बख्सते हैं । बाकी शेष तो उनके लिए कीड़े मकोड़े से भी गये बीते हैं । आप दोनों की रिपोर्ट से सच्चाई सामने आती है । माओवादी की क्रांतिकारिता की बात करने वाले नपुंसक हैं । कहाँ की क्रांतिकारिता । कहाँ की प्रगतिशीलता । विध्वंस के नायक हैं ये । आदिवासियों तो इनके टूल्स मात्र हैं ।

  12. और यह देश हित में हैं. भाई अनिलजी एवं सुजीत जी को हार्दिक साधुवाद. बस ध्यान रहे की वामपंथी पत्रकार बिरादरी अब आपके खिलाफ ही कोइ फतवा ना निकाल दे.

  13. बस्तर में सिर्फ यही नहीं हो रहा जो दोनों मित्रो ने लिखा हे .और भी बहुत कुछ हे जिसपर ध्यान जायेगा तो मुश्किल होगी.कितने tribal अपने घरो से बेdakhalहो गए हे,कितने कैम्पों में हे कितने andhra में हे कितनो को अपनी jamin से हाथ धोना पड़ा.आपको apni यात्रा में एक भी ऐसा आदिवासी नहीं मिला जिसके साथ सेना या पुलिस ने कोई अमानवीय kam किया हो..मानवाधिकार की बात karna तो आपसे ठीक नहीं हे कयोकी वो छत्तीसगढ़ में अपराध हे.बस itna सही कर दू की जो बात प्रशांत भूषण ने कही वो आपने मओवादियो के मूह से कहलवा दी.इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए आपको जंगलो में जाने की जरुरत नहीं हे.ये बयां तो हम रोज न्यूज़ पेपर में पढ़ते रहते हे. बधाई आप दोनों को kiyoki की आज जब दंतेवाडा में पुलिस और सेना के अलावा किसी का जाना नामुमकिन हो आप ने खोजी पत्रकारिता की मिसाल कायम की हे. पत्रकारों को to मानवाधिकारों की बात करना ही चाहिए नहीं तो आपके पास काया बचेगा सिवाई पुलिस के बुलेटिन के अलावा. ,,,,लाखन je सिंह ambikapur

  14. जब समाज के अन्दर भेद भाव का अन्त हो जायेगा,और गरीब का बच्चा स्कूल की पढाई पूरी कर लेगा,उसी समय इस प्रकार के कोई भी सन्गठन काम करने के काबिल नही रहेंगे,गरीब और अमीर का भेद केवल शिक्षा की पूर्णता तक नही है.

  15. अव्वल तो ये रिपोर्ट जनसत्ता के दिल्ली बैठे बुद्धिजीर्ण लोगों के मूंह पर ही तमाचे जैसा है. बहुत अफ़सोस होता है कि जिस अखबार को पत्रकारिता का स्कूल समझा जाता है वह देशद्रोहियों और दानवाधिकारियों के साथ-साथ अपने बुद्धि के बहकावे में आ कर प्रदेश के विरुद्ध फतवे जारी करते रहते हैं. अब अपने ही अखबार के संपादक की रिपोर्ट पढ़ या देख कर शायद उनके होश ठिकाने आये….साधुवाद अनिल जी एवं सुजीत जी.

  16. ये सब आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश है और कुछ नहीं. कुछ गलत बाते हर जगह शामिल है इसका मतलब ये नहीं की सभी लोग गलत है… आन्दोलन हमेशा चलना चाहिए.

  17. आतंक और हिंसा के घोड़े पर सवार सभी आन्दोलनों का ऐसा ही हश्र होता है। विचारधारा प्रबल रहती है। यह आन्दोलन हमारे युवाओं को सुनहरे सपने दिखाकर खड़े किये गये थे जो अब ढहते दिख रहे हैं। यही हुआ साम्यवादी दलों के साथ जो आज किसी भी अन्य दल की तरह भ्रष्ट और दुराचारी साबित हो रहे हैं। माओवादियों ने साम्यवादियों से हट कर अपनी पहचान बनानी चाही थी और ऐसा आभास दिया कि वही सच्चे साम्यवादी हैं। आप द्वारा उद्धृत रिपोर्ट तो दर्शाती है कि अब तो माओवादी भी आतंकवादियों से कम दरिन्दे नहीं हैं। इस रिपोर्ट का पढ़ कर तो कानू सान्याल और चारू मजूमदार का सिर भी झुक जायेगा कि उन्होंने ऐसे आन्दोलन को जन्म दिया था। अच्छा है अब माओवादियों की कलई खुल रही है और सच्चाई सामने आ रही है। ये लोग माओवाद के अन्तिम संस्कार की तैयारी में लगते हैं।

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