प्रवक्ता न्यूज़

पत्रकारिता के ठेकेदारों कुछ तो शर्म करो

-अमिताभ त्रिपाठी

इस देश में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उपयोग ठीक इसके विपरीत आचरण के लिये किया जाता है। अभियव्यक्ति की स्वतंत्रता उसमें से एक है। लोकतांत्रिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इनका हनन किया जाता है और ठीक इसके विपरीत आचरण करने वाला इसका ठेकेदार हो जाता है। देश की स्वतंत्रता के उपरांत राजनीतिक आधार पर नेहरू परिवार और कम्युनिष्ट की सेक्युलरिज्म की परिभाषा को संस्थागत स्वरूप दे दिया गया और घोर फासीवादी स्वरूप में विरोधी विचार को दबाया गया और पत्रकारिता, अकादमिया और तथाकथित बौद्धिक संस्थानों पर नियंत्रण के द्वारा बौद्धिक बह्स को भी एकाँगी बना दिया गया और महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू को पैगम्बर और गान्धी के अहिंसा सिद्धांत को एक मजहब बना दिया गया और लोकतंत्र के नाम पर एक फासीवादी व्यवस्था को देश के राजनीतिक और बौद्धिक जगत पर लाद दिया गया कि इन पर प्रश्न उठाना ईश निन्दा माना जायेगा और इनके सेक्युलरिज्म की व्याख्या और नेहरू के कम्युनिष्ट और कमाल अतातुर्क( लेकिन अतातुर्क का प्रयोग उन्होंने हिन्दुओं के लिये किया) प्रेम को ही भारत की नयी सोच मानी जायेगी।

इसके परिणामस्वरूप भारत को कहने को तो पाँच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति माना गया परंतु व्यवहार रूप में इसकी उत्पत्ति का श्रेय गाँधी और नेहरू को ही दिया गया और इसके पहले के इतिहास यहाँ तक कि बंकिमचंद्र चटर्जी और लोकमान्य तिलक को भी सेक्युलरिज्म के दायरे से बाहर मान लिया गया। लोकतन्त्र , सेक्युलरिज्म , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खोखले शब्दों के अतिरिक्त और क्या सम्मान है उसके प्रति इन तथाकथित पत्रकारों और संस्थागत बौद्धिक वर्ग में।कल जिस प्रकार टीवी टुडे ग्रुप ने इस बात को दुष्प्रचारित किया कि उस पर सुनियोजित आक्रमण हुआ है वह इसी छ्द्म बुद्धिवाद और छ्द्म पत्रकारिता को दर्शाता है। इस घटना के उपरांत जिस प्रकार की प्रतिक्रिया इस ग्रुप ने लोगों से ली उससे यह समझते देर नहीं लगी कि अब पत्रकारिता एकाँगी हो चुकी है और बडे पदों पर बैठे लोग अपनी व्यक्तिगत पहचान, राजनीतिक सोच और विचारधारागत आग्रह से परे जाने के स्थान पर अपने आग्रह को जनमानस पर थोपने का प्रयास कर रहे हैं। यह प्रयास काफी लम्बे समय से चल रहा है लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया आने के बाद अब चित्रों के द्वारा अवधारणा का निर्माण शीघ्रता से हो जाता है इस कारण अनुत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकारिता की सम्भावना अधिक रहती है।इस देश में सेक्युलरिम के नाम पर भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान को झुठलाने का प्रयास होता है और संविधान का हवाला देकर नग्न रूप से भारत के मूल स्वरूप की निन्दा और उसे क्षति पहुँचाने वाले विचारों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाता है। इस बात में कोई शंका रहने का कोई कारण ही नहीं है कि समस्त विश्व में इस्लामी आतंकवाद के वैश्विक आन्दोलन के चलते विश्व भर में जिस प्रकार इस्लाम पर बहस आरम्भ हुई उसकी प्रतिक्रिया में राजनीतिक, बौद्धिक और अब पत्रकरिता जगत में एक तुलनात्मक अवधारणा निर्माण का प्रयास हो रहा है। इस पर अलग से ही बह्स की जा सकती है परंतु यहाँ यह चर्चा का विषय नहीं है। यहाँ चर्चा का विषय यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर और बौद्धिक बहस के नाम पर तथाकथित पत्रकारिता के ठेकेदार अपने पदों का उपयोग करके और अपने अधीनस्थ लोगों को गुमराह कर या फिर उनकी व्यावसायिक विवशता का लाभ उठाकर पत्रकारिता के नाम पर व्यक्तिगत पहचान या विचारधारागत एजेण्डे को आगे बढाने का प्रयास कर रहे हैं।टीवी टुडे ग्रुप ने अपने विरुद्ध प्रदर्शन को हिंसा का नाम दिया और एक ध्रुवीकरण का प्रयास किया। जो बह्स और प्रतिक्रिया आई उसमें तथ्यों से अधिक प्रचार था। पूरी बहस में इस बात पर बह्स नहीं हुई कि आखिर पत्रकारिता की स्वतंत्रता के नाम पर या फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी सीमायें हैं या नहीं। हेडलाइंस टुडे ने जो तथाकथित स्टिंग दिखाया और उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अत्यंत वरिष्ठ व्यक्ति का नाम लिया गया उसमें जिस गवाह की बात की गयी थी उसने अपनी ओर से संघ के उन अधिकारी का नाम एक बार भी नहीं लिया वरन प्रश्न पूछने वाला बार बार उनसे कह रहा है कि अमुक को यह पता रहा होगा, अमुक अमुक को अवश्य जानता होगा। यदि इस प्रकार स्टिंग करते हुए किसी संगठन या व्यक्ति को बदनाम करना हो तो आज तकनीक के इस युग में तो देश के तथाकथित सेक्युमरिज्म के ठेकेदार पत्रकारों का नियमित स्टिंग बन सकता है और वह भी उनके ही अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जिससे कि यह प्रमाणित हो जायेगा कि किस प्रकार किसी विचारधारा विशेष और मजहब के प्रति नरम रुख अपनाने की खुले आम बात न्यूजरूम में होती है और समाचारों में तथ्य और प्रमाण होते हुए भी केवल बडे पदों पर बैठे लोगों की व्यक्तिगत रुचि के चलते किसी विचारधारा विशेष या मजहब से जुडे होने के कारण नहीं दिखाया जाता। यदि इस प्रकार का कोई स्टिंग सामने आये तो क्या यही अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रता, सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र की रक्षा के ठेकेदार सामने आकर समाज से क्षमायाचना करेंगे। आज देश में पत्रकारिता के नाम पर पूरी तरह क्या क्या नहीं हो रहा है?

हमें प्रतीक्षा है कि एक दौर इन ठेकेदारों के स्टिंग का भी चले और फिर इनकी निष्पक्षता का मूल्याँकन हो सकेगा। जहाँ तक इस विरोध प्रदर्शन के बाद हेडलाइंस टुडे और आज तक के रुख का प्रश्न है तो निष्पक्षता का दावा खोखला है। वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर ने कहा कि इस विरोध प्रदर्शन के पीछे आशय आक्रमण का था। इसी प्रकार आज तक के किसी वरिष्ठ सम्पादक नकवी ने कहा कि यह सुनियोजित आक्रमण था। मुझे यह सुनकर हँसी आती है कि ये लोग अब भी जनता को मूर्ख मानते हैं और सोचते हैं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देकर उसे फासीवादी, तानाशाह, लोकतंत्र के हत्यारे, साम्प्रदायिक बताकर अपने सारे पाप धुल लेंगे। अरे साहब यदि 1000 से अधिक की संख्या में लोगों ने सुनियोजित रूप से आक्रमण के आशय से वीडियोकान भवन पर हमला ( जैसा कि ये कल से लगातार दिखा रहे है) बोला होता तो शायद नकवी साहब यह प्रतिक्रिया देने के लिये और बडे अलंकारिक शब्द बोलने के लिये उपलब्ध भी न हो पाते दूसरा यदि यह सुनियोजित आक्रमण होता जिसमें लोगों को क्षति पहुँचाने का आशय होता तब तो जिहादियों की भाँति फिदाईन आक्रमण होता या फिर नक्सलियों की भाँति गुरिल्ला आक्रमण होता न कि सभी मीडिया को बताकर होता। जिस प्रकार विरोध प्रदर्शन को एक हिंसात्मक प्रदर्शन की बात सिद्ध की गयी और हिन्दुओं से घृणा करने वाला उद्योग सक्रिय हो गया उससे तो यह प्रमाणित हो गया कि पत्रकारिता के ठेकेदारों ने पत्रकारिता के बहाने कुछ दूसरा ही मोर्चा खोल रखा है। एक और सज्ज्न अत्यंत सक्रिय थे वे थे स्टार के शाजी जमाँ। शायद लोगों को यह पता नहीं है कि मालेगाँव विस्फोट के सम्बन्ध में जब हिन्दू आतंकवाद की परिभाषा इन्होंने पहली बार गढी थी और देश के एक अत्यंत प्रतिष्ठित संत के विरुद्ध इस चैनल ने अभियान चला रखा था तो एक गुमनाम पत्र इनके पूरे स्टाफ और स्वामियों को भेजा गया था और इसमें शाजी जमाँ की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाये गये थे। यदि आवश्यकता हुई तो वह पत्र भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा।इस पूरी बहस में आज तक के नकवी साहब ने कहा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राम माधव द्वारा संकेत किये जाने पर कि यह सब किसी राजनीतिक दल विशेष के प्रभाव में हो रहा है तो आज तक के ऐंकर अजय कुमार ने दावे के साथ कहा कि आज तक अपनी निष्पक्षता के लिये जाना जाता है। यदि ऐसा है तो इस निष्पक्ष और निर्भीक चैनल से मेरे कुछ प्रश्न हैं।बरेली में कुल दस दिन तक दंगे हुए और लोगों का जीवन दूभर हो गया और प्रशासन को भी हवाई मार्ग से शहर में उतरना पडा लेकिन निष्पक्ष और निर्भीक चैनल ने एक बार भूले से भी उल्लेख नहीं किया क्यों? यदि आप निष्पक्ष हैं तो दंगा फसाद करने वाला कोई भी क्यों न हो देश हित में इसके बारे में जानने का अधिकार दर्शकों को है क्योंकि दर्शकों के विज्ञापन देखने से ही पूरा करोबार चलता है और फिर देश में बहुसंख्यक कारोबारी जिस वर्ग से आते हैं उसे अपनी पीडा के बारे में जानने का अधिकार है या नहीं। यदि आप निष्पक्ष थे तो यह घटना आपके लिये घटना क्यों नहीं है? यदि आप निर्भीक हैं तो दंगे में उतरे क्यों नहीं? या फिर आपके यहाँ कोई है जो समाचारों को लेकर मजहब और नस्ल को प्रमुखता देता है।

गुजरात की सरकार ने जब इशरत जहाँ को मुठभेड में मार गिराया तो आज तक सहित सभी चैनल उस समाचार पर अत्यंत सक्रिय हो गये जब न्यायालय के निर्णय के उपरांत इशरत जहाँ की बहन और माँ ने गुजरात सरकार पर आरोप लगाये। कुछ पत्रकारों ने तो लेख लिखकर यह तक कहा कि इशरत हम शर्मिदा हैं। लेकिन जब अमेरिका में डेविड कोलमेन हेडली ने भारत की जाँच एजेंसी को बताया कि इशरत जहाँ लश्कर की फिदाइन थी तो आपका चैनल चुप क्यों हो गया? यदि आप निष्पक्ष हैं तो जितनी तत्परता से आपने इशरत जहाँ को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा थी थी उसी तत्परता से इस नये सनसनीखेज खुलासे को भी लेना चाहिये था। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ क्या आपके यहाँ भी कुछ लोग हैं जो इस्लामी आतंकवादियों की भाँति इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं कि अमेरिका और भारत की जाँच एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को प्रताडित करती हैं और इस्लाम को बदनाम करने का सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है और इस्लामी आतंकवाद अमेरिका की साजिश है। यदि इस आधार पर आपका चैनल समाचारों को मजहब के चश्में से देखता है तो किस आधार पर आप निष्पक्षता का दावा करते हैं या फिर आप किसी किसी दबाव में हैं गुजरात के बारे में कुछ सकारात्मक नहीं दिखा सकते।टीवी टुडे ग्रुप की मंशा यदि प्रचार और एजेंडा आधारित पत्रकारिता नहीं है तो फिर सीबीआई के निदेशक अश्विनी कुमार द्वारा आधिकारिक रूप से पत्रकारों को यह बताये जाने के बाद कि अजमेर और मक्का मस्जिद धमाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी पदाधिकारी से पूछताछ नहीं की गयी है इस समाचार को क्यों नहीं प्रमुखता दी गयी? यदि आप निष्पक्ष हैं तो फिर इस समाचार को प्रमुखता क्यों नहीं मिली?पत्रकार यदि कहीं नौकरी करता है तो वह गुलामी नहीं करता और नवोदित पत्रकारों को इतना विवेक जाग्रत रखना चाहिये कि वे स्वयं सही और गलत का निर्धारण कर सकें और यह बात समझें कि कभी कभी जो जितना बडा दिखता है वह वास्तव में उतना ही छोटा होता है। भारत में स्वार्थ इस प्रकार हावी हो चुका है कि शब्द सारहीन हो चुके हैं। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सेक्युलरिज्म और आम आदमी जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं और इनकी आड में भ्रष्टाचार और स्वार्थ का पोषण होता है। पत्रकारिता के नाम पर कुछ भारी भरकम व्यक्तित्व विकसित हो गये हैं और वे अपने व्यक्तित्व और ब्रांड की आड में वह सब कुछ पर्दे के पीछे से करते हैं जिसके विरोध का दावा करते हैं। यह देश युवाओं का है और युवाओं को पत्रकारिता में अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये न कि किसी का अन्धानुकरण। इसी प्रकार अब समाज में दर्शकों को भी इस बात के प्रति जागरूक हो जाना चाहिये कि ये तथाकथित पत्रकार जो पर्दे के पीछे से अपना एजेंडा चला रहे हैं वे स्वतंत्रता आन्दोलन के पत्रकार नहीं हैं वरन कारपोरेट घराने में नौकरी कर रहे हैं और यदि दर्शकों ने और व्यावसायिक वर्ग ने पत्रकारिता के नाम पर राजनीतिक एजेंडा चलाने वाले और किसी राजनीतिक दल विशेष या विचारधारा विशेष या फिर मजहब विशेष के प्रति सहानुभूति रखते हुए अन्याय का सहारा लिया तो ऐसे चैनलों को देखना बन्द करें और विज्ञापन देना बन्द करें।