गिरोहबाजों के चंगुल में स्वास्थ्य व्यवस्था

कुमार कृष्णन 

भारत में, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले और गरीब लोग शामिल हैं जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और जेब से खर्च करने की बाध्यता है। इलाज का कोई इन्तज़ाम नहीं होता है।  पूरा जीवन भगवान भरोसे गुजरता है। गरीबी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में एक प्रमुख बाधा है क्योंकि गरीब लोग अक्सर जेब से खर्च करने की बाध्यता के कारण इलाज नहीं करा पाते हैं। यूं  कहें कि आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही है स्वास्थ्य सेवा। असमानता की खाई का आलम यह है कि जहां गरीबों तथा आम लोगों को इलाज के लिए अपना पैसा खर्च करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर लोग सरकारी धन पर विदेश जाकर इलाज कराते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती है दवाओं के व्यापार और इसमें तरह-तरह के गठजोड़ ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को कम्पनियों के हवाले कर दिया है।

देश के करोड़ों मरीज पहुंच से बाहर के महंगे इलाज के कारण गरीबी की दलदल में फंस जाते हैं। वे कथित रुप से दूसरे भगवान कहे जाने वाले शख्स के आगे बेबस नजर आते हैं, खासकर बड़े आप्रेशनों व उपकरणों से लेकर महंगी दवाओं को लेकर। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘राज्य सरकारें किफायती चिकित्सा और बुनियादी ढांचा देने में नाकाम रही हैं। इससे प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा मिल रहा है। इसे रोकने के लिए केंद्र सरकार को गाइडलाइन बनानी चाहिए। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी जिसमें कहा गया था कि प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों और उनके परिवारों को अस्पताल की फार्मेसी से महंगी दवाएं और मेडिकल इक्विपमेंट खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। इसलिए ऐसे अस्पतालों पर नकेल कसी जाए। इसे रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया जाए। जस्टिस सूर्यकांत और एनके सिंह की बेंच ने इस पर सुनवाई की। केंद्र सरकार ने अपने जवाब में कहा कि मरीजों को अस्पताल की फार्मेसी से दवा खरीदने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। इस पर कोर्ट ने कहा कि यह जरूरी है कि राज्य सरकारें अपने अस्पतालों में दवाएं और मेडिकल सेवाएं सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराएं ताकि मरीजों का शोषण न हो। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, ‘हम याचिकाकर्ता की बात से सहमत हैं लेकिन इसे कैसे नियंत्रित करें? कोर्ट ने राज्य सरकारों से कहा कि वे प्राइवेट अस्पतालों को कंट्रोल करें जो मरीजों को अस्पताल की दुकान से दवाई खरीदने के लिए मजबूर करते हैं, खासकर वे दवाइयां जो किसी और जगह सस्ते में मिल जाती हैं।’ कोर्ट ने केंद्र सरकार को गाइडलाइन बनाने को कहा जिससे प्राइवेट अस्पताल आम लोगों का शोषण न कर सकें।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सभी राज्यों को नोटिस भेजा था। ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान समेत कई राज्यों ने जवाब दाखिल किए थे। दवाइयों की कीमतों के मुद्दे पर राज्यों ने कहा कि वे केंद्र सरकार के प्राइस कंट्रोल ऑर्डर पर निर्भर हैं। केंद्र सरकार ही तय करती है कि किस दवा की क्या कीमत होगी।

वैसे चुनावों के दौरान तमाम तरह के सब्जबाग दिखाने वाले राजनीतिक दलों के एजेंडे में चिकित्सा सुविधा सुधार कभी प्राथमिकता नहीं रही। यदि सार्वजनिक चिकित्सा का बेहतर ढांचा उपलब्ध होता तो लोग निजी अस्पतालों में जाने को मजबूर न होते। यदि निगरानी तंत्र मजबूत होता और प्रभावी कानून होते तो मरीजों को दोहन का शिकार न होना पड़ता।

जन स्वास्थ्य अभियान इंडिया  के राष्ट्रीय संयोजक समूह  के अमितावा गुह, अमूल्य निधि, एस. आर. आजाद, गौरंगा महापात्रा, राही रियाज़, संजीव सिन्हा, चंद्रकांत यादव का कहना  है कि केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य के लिए वर्ष 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद का 1 फीसदी तक बजट आवंटन बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था परंतु वर्ष 2025 के इस बजट में यह मात्र तय लक्ष्य का लगभग 30 फीसदी ही है। इस बार स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (99859) आयुष विभाग (3892) और फार्मा के लिए 5294 करोड़ का बजट आवंटन किया गया है जो कि पिछले वर्ष के बजट से आंशिक वृद्धि ही दिख रही है और वह भी बढ़ती महंगाई के हिसाब से यह वृद्धि भी नगण्य है।  इस साल के बजट में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने के संबंध कोई प्रावधान नहीं किया गया और न ही किसी प्रकार के नए स्वास्थ्य केंद्र खोलने की घोषणा इस बजट में की गई है, मात्र मेडिकल कॉलेज में  सीटे बढ़ाने से जनता का स्वास्थ्य सुनिश्चित नहीं हो सकता है। महंगी होती स्वास्थ्य सेवाओं पर नियंत्रण के अभाव में आम जनता की मेहनत से की गई कमाई की लगातार लूट हो रही है। जब बहुत से लोग किफायती और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रह जाते हैं तो इसका असर न केवल उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है, इसकी वजह से समाज और अर्थव्यवस्थाओं की स्थिरता भी खतरे में पड़ जाती है। 

इसके बावजूद कि सरकार द्वारा   बड़े अस्पतालों को जमीन आदि तमाम सुविधाएं रियायती दरों पर दी गयीं हैं, ऐसे में वे गरीब मरीजों को राहतकारी इलाज देने के लिये बड़े अस्पतालों को बाध्य कर सकती थीं। यदि मरीजों से निजी अस्पतालों में मनमानी रकम वसूली जाती है तो यह राज्य सरकारों की छवि पर आंच है कि वे मरीजों को किफायती उपचार उपलब्ध कराने में विफल रही हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत को कहना पड़ा कि मरीजों को उचित मूल्य वाली दवाइयां न मिल पाना राज्य सरकारों की नाकामी को ही दर्शाता है। इतना ही नहीं, राज्य सरकारें निजी अस्पतालों को न केवल सुविधाएं प्रदान करती हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहन भी देती हैं। सरकारों का यह दावा अतार्किक है कि मरीजों के तिमारदारों के लिये निजी अस्पताल के मेडिकल स्टोरों से दवा खरीदने की बाध्यता नहीं है।

दरअसल, अस्पताल की फार्मेसी या खास मेडिकल स्टोरों से दवाइयां खरीदना तिमारदारों की मजबूरी बन जाती है। उन्हें खास ब्रांड की दवा व उपकरण खरीदने के निर्देश होते हैं। दरअसल, खुले बाजार में उनकी उपलब्धता और गुणवत्ता को लेकर आशंका होती है। असल में, यह नीति-नियंताओं की जवाबदेही है कि वे मरीजों और उनके परिवारों को शोषण से बचाने के लिये दिशा-निर्देश तैयार करें हालांकि, यह इतना भी आसान नहीं है क्योंकि विभिन्न हितधारकों के दबाव अकसर सामने आते हैं। जैसा कि वर्ष 2023 में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को उस समय कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था जब उसने डॉक्टरों से कहा था कि वे ब्रांडेड दवाएं न लिखें। उसके स्थान पर जेनेरिक दवाएं लिखें, ऐसा न करने पर उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी। चिकित्सा बिरादरी ने तब दबाव बनाते हुए कहा था कि दवाओं की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए जिसके बाद यह आदेश जल्दी ही वापस लेना पड़ा था। इसके अलावा ब्रांडेड दवाओं के निर्माताओं ने भी दबाव बनाया था, जो कि जन-कल्याण के बजाय बड़े पैमाने पर मुनाफे को प्राथमिकता देते रहते हैं।

वैसे निजी अस्पतालों द्वारा दवाओं के जरिये पैसा कमाने की वजह यह भी है कि सरकारी जनऔषधि केद्रों का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है।  प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र के बिहार के नोडल पदाधिकारी कुमार पाठक के  अनुसार देश भर में 15,000 से अधिक जन औषधि केंद्र रोजाना 50-90 फीसदी कम कीमत पर दवाएं दे रहे हैं।यह प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के तहत एक बड़ी उपलब्धि है जिसने स्वास्थ्य सेवा को सभी के लिए सस्ती और सुलभ बनाने का लक्ष्य रखा है। आनेवाले दिनों में 25 हजार से अधिक जन औषधि केंद्र खोले जाने हैं।

आम  लोगों की शिकायत  है कि  ये केंद्र दवाओं की कमी,गुणवत्ता के नियंत्रण के अभाव और ब्रांडेड दवाओं की अनधिकृत बिक्री की समस्याओं से ग्रसित रहे हैं। प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र खोले जाने के पीछे उद्देश्य रहा है गरीबों को बेहद सस्ते दर पर दवाएं उपलब्ध कराना, डॉक्टरों और दवा विक्रेताओं के कमीशनखोरी, मुनाफाखोरी पर लगाम लगाना। नकली दवाओं के कारोबारियों और ड्रग माफियाओं पर अंकुश लगाना लेकिन इन सभी उद्देश्यों पर फिलहाल पानी फिरता हुआ नजर आ रहा है। निश्चित रूप से औषधि विनियामक प्रणाली में सुधार करने से तमाम असहाय रोगियों की परेशानियों को कम करने में मदद मिल सकती है। एक रिपोर्ट बताती है कि सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों का खर्च सात गुना होता है। खासकर कोरोना काल के बाद चिकित्सा खर्च में खासी बढ़ोतरी हुई है। निस्संदेह, राज्य सरकारों को इस मुद्दे पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार कर उचित गाइडलाइंस बनानी चाहिए। निजी अस्पतालों व मरीजों के हितों के मद्देनजर राज्य सरकारों के संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।

कुमार कृष्णन 

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