हिंद स्‍वराज

हिंद स्वराज की प्रासंगिकता पर विमर्श का आयोजन

१० अक्तूबर को भारत नीति संस्थान के द्वारा दीनदयाल शोध संस्थान, नई दिल्ली में ” वर्तमान सन्दर्भ में हिंद स्वराज की प्रासंगिकता ” विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया . इस संगोष्ठी में वरिष्ठ गांधीवादी चिन्तक और पूर्व सांसद राम जी सिंह , जेएनयु के प्राध्यापक अमित शर्मा , पांचजन्य के सम्पादक बलदेव भाई शर्मा , आईबीएन -7 के पत्रकार आशुतोष , आचार्य गिरिराज किशोर , केदारनाथ साहनी , और भारत नीति संस्थान के संचालक राकेश सिन्हा समेत दर्जनों पत्रकार ,लेखक और छात्र शामिल हुए . इस अवसर पर प्रो ० अमित शर्मा ने कहा कि हिंद स्वराज की प्रासंगिकता पर विचार करने से पूर्व गाँधी को जानना आवश्यक है . गाँधी ने जीवन के दो लक्ष्य बताये हैं, एक आत्मसाक्षात्कार और दूसरा ब्रह्मसाक्षात्कार . गाँधी शास्त्र के नहीं लोक के जानकार थे . गाँधी पश्चिमी सभ्यता -संस्कृति को शैतानी सभ्यता मानते हैं . हिंद स्वराज में भी उन्होंने भारतीयों को पाश्चात्य से छुटकारा पाने की सलाह दी है .आज पाश्चात्य का बोलबाला बढ़ता जा रहा है .भय-भूख-भ्रष्टाचार की तूती बोल रही है तब गाँधी का चिंतन पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है . आइबीएन के पत्रकार आशुतोष ने कहा कि किसी सभ्यता , विचारधारा , परंपरा अथवा व्यक्ति को आंकने का पैमाना कोई किताब नहीं हो सकती .किसी भी चीज का एक दायरे में सिमटना हीं कट्टरता है . आज भारतीय सभ्यता एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है जहाँ उसे आमूलचूल परिवर्तन से होकर गुजरना पड़ रहा है . तकनीक और संविधान की स्वीकार्यता बढ़ी है . तकनीक ने समय को बौना बना दिया है . स्त्री और पुरुष के रिश्ते बदल गये हैं जहाँ पहचान का संकट उत्पन्न हो गया है .ऐसे में गाँधी के विचारों को हिंद स्वराज में सिमटा कर देखना वाजिब नहीं होगा . मुख्य वक्ता डॉक्टर रामजी सिंह ने बुद्धिजीवियों और छात्रों के मुक्त चिंतन पर बल देते हुए अपने वक्तव्य की शुरुआत की .उन्होंने कहा कि प्रासंगिकता देश – काल निरपेक्ष नहीं होता . आज देवी सीता को घर से निकाल देने वाले भगवान् राम प्रासंगिक नहीं हो सकते .भीष्म ,कृपाचार्य ,विदुर जैसे महापुरुष जिनके सामने भरी सभा में रजस्वला द्रौपदी की साड़ी खिंची गयी वो प्रासंगिक नहीं हो सकते . आज द्रोणाचार्य अपने शिष्य से अंगूठा नहीं मांग सकते . उन्होंने भारत को एक देश नहीं बल्कि एक भावना और विचार का नाम बताया . . वर्तमान एटॉमिक युग में हिंसा की संस्कृति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है .आज तैंतीस हज़ार आणविक हथियारों वाला अमेरिका इराक पर इनका इस्तेमाल नहीं करता , अफगानिस्तान में इनका इस्तेमाल नहीं करता , इरान पर इनका इस्तेमाल नहीं करता .संसार के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष को अपनी स्वीकार्यता बढ़ने के लिए शांति के नोबेल पुरूस्कार की जरुरत आन पड़ी है . इतिहास साक्षी है हिंसा के बल पर लाइ गयी क्रांति ने हमेशा तानाशाही को जमन दिया है .हिंसा के जरिये क्रांति का सपना देखने वालों के सामने उनसे हज़ार गुना ताकत वाली सत्ता प्रतिष्ठान खड़ी है जिससे हिंसा के सहारे नहीं लड़ा जा सकता . नाइजीरिया ,नेपाल ,श्रीलंका आदि देशों के उदाहरण हमारे समक्ष है . हमारी संसद एक टॉकिंग शॉप है . यह अभारतीय और अवैज्ञानिक है . यह दलों पर टीका है और दल दलपतियों के रहमोकरम पर . इनकी लगाम अम्बानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों के हाथों में है .गाँधी ने इसी प्रणाली को बाँझ और वश्य कहते हुए विकल्प ढूंढने की बात कही है . सभ्यता फूलों और श्रृंगार से नहीं बनती यह शिक्षा से तैयार होती है और हमने शिक्षा को पश्चिम के हवाले कर दिया है .अगर देश के शिक्षक सही होकर अपने कर्तव्यों का पालन करें तो सम्पूर्ण क्रांति होकर रहेगी .गाँधी के हिंद स्वराज कास्वप्न पूरा होगा . संगोष्ठी के अंत में बलदेव भाई शर्मा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में हिंद स्वराज की प्रासंगिकता पर बल देते हुए गाँधी को श्रमण परंपरा का वाहक बताया .