हिंदी भारत की आत्‍मा है

-सौरभ मालवीय

भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा और हिन्दी भाषा को लेकर कुछ तथा कथित बुद्धिजीवियों द्वारा भम्र की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। सच तो यह है कि हिन्दी भारत की आत्मा, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हुई है।

बोली की दृष्टि से संसार की सबसे दूसरी बड़ी बोली हिन्दी हैं। पहली बड़ी बोली मंदारीन है जिसका प्रभाव दक्षिण चीन के ही इलाके में सीमित है चूंकि उनका जनघनत्व और जनबल बहुत है। इस नाते वह संसार की सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है पर आचंलिक ही है। जबकि हिन्दी का विस्तार भारत के अलावा लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर फैला हुआ है लेकिन किसी भाषा की सबलता केवल बोलने वाले पर निर्भर नहीं होती वरन उस भाषा में जनोपयोगी और विकास के काम कितने होते है इस पर निर्भर होता है। उसमें विज्ञान तकनीकि और श्रेष्ठतम् आदर्शवादी साहित्य की रचना कितनी होती है। साथ ही तीसरा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस भाषा के बोलने वाले लोगों का आत्मबल कितना महान है। लेकिन दुर्भाग्य है इस भारत का कि प्रो. एम.एम. जोशी के शोध ग्रन्थ के बाद भौतिक विज्ञान में एक भी दरजेदार शोधग्रंथ हिन्दी में नहीं प्रकाशित हुआ। जबकि हास्यास्पद बाद तो यह है कि अब संस्कृत के शोधग्रंथ भी देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में प्रस्तुत हो रहे है।

भारत में पढ़े लिखे समाज में हिन्दी बोलना दोयम दर्जे की बात हो गयी है और तो और सरकार का राजभाषा विभाग भी हिन्दी को अनुवाद की भाषा मानता है। परन्तु अब तो संवैधानिक न्यायायिक संस्थायें (उच्च न्यायालय और उच्चतम न्याय) भी यह कह रहे है कि हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा नहीं है जबकि संसार के अनेक देश जिनके पास लीप के नाम पर केवल चित्रातक विधिया है वो भी विश्व में बडे शान से खडे है जैसे जापानी, चीनी, कोरियन, मंगोलिन इत्यादि, तीसरी दुनिया में छोटे-छोटे देश भी अपनी मूल भाषा से विकासशील देशो में प्रथम पक्ति में खड़े है इन देशों में वस्निया, आस्ट्रीया, वूलगारिया, डेनमार्क, पूर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, वेलजियम, क्रोएशिया, फिनलैण्ड फ्रांस, हंग्री, निदरलैण्ड, पोलौण्ड और स्वीडन इत्यादि प्रमुख है।

रही बात भारत में अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को विस्थापित करने की तो यह केवल दिवास्वपन है क्योंकि भारतीय फिल्मों और कला ने हिन्दी को ग्लोबल बना दिया है और भारत दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के नाते भी विश्व वाणिज्य की सभी संस्थाएं हिन्दी के प्रयोग को अपरिहार्य मान रही है। हमें केवल इतना ही करना है कि हम अपना आत्मविश्वास जगाये और अपने भारत पर अभिमान रखे। हम संसार में श्रेष्ठतम् भाषा विज्ञान बोली और परम्पराओं वाले है। केवल हीन भाव के कारण हम अपने को दोयम दर्जे का समझ रहे है वरना आज के इस वैज्ञानिक युग में भी संस्कृत का भाषा विज्ञान कम्प्यूटर के लिए सर्वोत्तम पाया गया है।

Previous articleराष्ट्रमण्डल के निहितार्थ
Next articleमीडिया की आजादी?
डॉ. सौरभ मालवीय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गाँव में जन्मे डाॅ.सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है। जगतगुरु शंकराचार्य एवं डाॅ. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डाॅ. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया’ विषय पर आपने शोध किया है। आप का देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर समसामयिक मुद्दों पर निरंतर लेखन जारी है। उत्कृष्ट कार्याें के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है, जिनमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डाॅट काॅम सम्मान आदि सम्मिलित हैं। संप्रति- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। मोबाइल-09907890614 ई-मेल- malviya.sourabh@gmail.com वेबसाइट-www.sourabhmalviya.com

22 COMMENTS

  1. सौरभ जी के द्वारा उठाया गया यह विषय निस्संदेह अत्यंत महत्वपूर्ण है, यद्यपी यह कोई नवीन चिंता का विषय नहीं है परन्तु दुर्भाग्य से इस पर कोई सार्थक एवं उल्लेखनीय पहल नहीं हुई है| उस पर बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हिंदी भाषी क्षेत्र में इस विषय पर मात्र राजनीती की रोटियां ही सेंकी जाती हैं और यहाँ भी गंभीर चिंतन का निनान्त अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है|
    आज हिंदी भाषा भाषी राज्यों में english medium के विद्यालयों की बढती संख्या एवं उसको दिया जाने वाला सम्मान इस का द्योतक है की यह क्षेत्र हिंदी को उसके सम्माननीय पद पर पहुँचाने में निनान्त विफल ही नहीं रहा है अपितु अभी भी कोई उत्सुकता नहीं है इस विषय में| हाँ कुछ राजनितिक दल अवश्य इस विषय में आम जन की भावनाओं का दोहन करने में सफल होते हैं| अहिन्दी भाषी राज्यों में इस विषय में कहीं बेहतर कार्य हो रहा है|
    आज हम और आप में से कितने लोग हैं जो एक सरकारी कार्यालय में हिंदी में आवेदन पत्र / प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करते हैं? आखिर क्यों? क्योंकि हमें भय होता है कि यदि हम हिंदी में अपने मत / प्रार्थना प्रस्तुत करेंगे तो हीन / अशिक्षित समझे जायेंगे| अनेक प्राइवेट कार्यालयों में तो हिंदी का उपयोग पूर्णतः निषिद्ध है| मेरे स्वयं के कार्यालय में हिंदी में हस्ताक्षर करने को ले कर कई बार टिप्पड़ी हो चुकी है और एक बार HR से धमकी भी मिल चुकी है|
    रही बात सर्कार की, तो वहां से अधिक अपेक्षा करना उचित नहीं होगा| राजनेता किसी योग्य नहीं हैं, और प्रशासनिक अधिकारी वर्ग अपने को elite मानता है और वो नहीं चाहता कि हिंदी बोलने वाला साधारण जन में से कोई उनकी बराबरी कभी कर सके अतः न सिर्फ वोह english कि महत्ता को बनाए रखना चाहते हैं अपितु एक कदम आगे बढ़ कर मेरी english तुम्हारी english से बेहतर के तर्ज पर नवीन english भाषियों को उनकी स्थिति बताने से नहीं चूकते| English द्वारा हिंदी को विस्थापित करने का स्वप्न यह वर्ग कभी नहीं देखता, इसका स्वप्न मात्र इतना है कि संपर्क भाषा के पद से हिंदी च्युत हो जाए, और यह गौरव english को मिल जाए| प्रशासनिक स्तर पर तो वो सफल भी रहे हैं अब तक|
    आज भारत में हिंदी का बाज़ार बहुत बड़ा है, आपने सही लिखा है परन्तु अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पर हिंदी का कार्य भी रोमन लिपि में ही होता है, यथा फिल्मोद्योग| यह लोग हिंदी बोल कर पैसा तो कमाना चाहते हैं पर साक्षात्कार english में ही देना पसंद करते हैं| हिंदी पर पलने वाला दूसरा बड़ा वर्ग, समाचार जगत से आता है, और यहाँ भी इनकी अगली पीढ़ी english माध्यम के विद्यालयों में पढ़ती है|(साभार नवभारत times)
    आशा की एक मात्र किरण समाचार जगत से आप जैसे लोग हैं जो समय समय पर इस अलख को जगाने का कार्य करते रहते हैं, कभी तो यह चिंगारी भड़केगी और दावानल का रूप लेगी|

  2. सौरभ जी को इस लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद और बधाइयाँ। भविष्य में भी आपसे ऐसे ही उत्कृष्ट विचारों की आशा रहेगी।

  3. Sourabhji ne thik likha hai.china bahut mamlo me humse age hai .kyoki vah apna sara kam apni bhasa chinese me karte hai. sabse badi bat sourabh ji jo ki essay ke writer hai unki hindi kaphi utkrist kism ki hai.

  4. सौरभ बाबू ने कुछ लिखा है तो कुछ सोचा भी होगा। मैं उनकी इस सोच में एक-दो बातें जोड़ देना चाहता हूँ।
    पहली बात, हिन्दी को राजभाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है तो इसमें राजनीति के अलावा “हिन्दी वालों” का भी बहुत दोष है। आज लोग अंग्रेजी को रोजगार की भाषा के रूप में देखते हैं और इस नाम पर समाज का एक वर्ग गैर अंग्रेजी वालों के साथ अन्य अत्याचारों के साथ साथ भाषाई अत्याचार भी करता है, क्योंकि इसमें उसकी सुविधा और हित जुड़े हैं। लेकिन हिन्दी वालों ने हिन्दी को रोजगार की भाषा बनाने के लिए कभी भी कोई बड़ा श्रम नहीं किया है। खुद को विकसित करने के लिए कुछ करना पड़ता है, बिना कुछ किए अपनी स्वीकार्यता की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
    दूसरी बात, एक भाषा के तौर पर अंग्रेजी को गाली देना बेवकूफी है। एक भाषा की लिहाज से अंग्रेजी जानना अच्छी बात होगी क्योंकि इसके माध्यम से आपके सामने दुनिया भर के ज्ञान और जानकारी के रास्ते खुलते हैं। बेहतर यह होगा कि “हिंदी भारत की आत्‍मा है” इस तरह की राजनीतिक नारेबाजी के बदले हिन्दी के विकास के लिए और हिन्दी को एक समृद्ध भाषा बनाने के लिए कुछ ठोस काम हो। सौरभ ने उदाहरण दिया है कि जोशी जी के अलावा भौतिकी में हिन्दी में कोई शोधग्रंथ नहीं है, इस पर मैं कहना चाहूंगा कि भौतिकी पढ़ने के लिए 12वीं कक्षा में भी एक भी ढंग की किताब उपलब्ध नहीं है। हिन्दी का ये हाल कमोबेश हर क्षेत्र में है। हिन्दी के इस अकादमिक दिवालिएपन के लिए सौरभ मालवीय किसे दोषी ठहराएंगे?
    पंकज भाई से कहना चाहूंगा कि भाषा को स्वाभिमान का प्रसंग न बना कर ज्ञान का प्रसंग बनाया जाए तभी इसका उद्धार हो सकता है।
    डॉ. प्रो. मधुसूदन जी से आग्रह है कि यदि वे अपना शोध निबंध दे सकें तो इस दिशा में हम भी कुछ नया जान पाएंगे और कुछ करने की कोशिश करेंगे।

    • अजित सिंह
      “डॉ. प्रो. मधुसूदन जी से आग्रह है कि यदि वे अपना शोध निबंध दे सकें तो इस दिशा में हम भी कुछ नया जान पाएंगे और कुछ करने की कोशिश करेंगे।”
      उत्तर: मान्यवर अजित सिंह जी के आग्रहपर, इस विषय पर, सामान्य पाठक को रूचिकर हो, ऐसा प्राथमिक स्तरका निबंध निश्चित “प्रवक्ता” में प्रस्तुत करनेका प्रयास करूंगा।
      डॉ. मधुसूदन उवाच
      PH. D.
      Prof. Structural Engineering
      University of Massachusetts.
      Dartmouth, USA

  5. saurabh bhai aap jo kaam kar rahe hia, wah bahut bada yogdaan hai, vichaar ko aage badhte rahe, shubh kaamnaayein

  6. हिन्दी के साथ दोयम दज्रे जसा व्यवहार वाकई में चिंताजनक है। खासकर तब जब इसके ऊपर विदेशी भाषा अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है। यह इसलिए भी हो सकता है कि हिन्दी पट्टी राज्यों को छोड़के भारत के अन्य राज्यों की अपनी-अपनी भाषाएं हैं। जहां हिन्दी को ही मराठी, तेलगू, कन्नड़ जसी क्षेत्रीय भाषाओं का बैरी मान लिया जाता है। वहां विवाद हिन्दी बनाम क्षेत्रीय भाषा के साथ होता है। जसा कि अभी हम सवाल हिन्दी बनाम अंग्रेजी पर उठा रहे हैं।
    ऐसे में अंग्रेजी जसी विदेशी भाषा को विभिन्नता वाले भारत में विभिन्न भाषियों द्वारा ग्राही करना कही अधिक सरल हो जाता है। बिना विवाद के।
    मैं जब यह बातें कह रहा हूं तो मेरा कही से भी हिन्दी को कमतर करके आंकने का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि क्या हिन्दी को हम इस स्थिति में राष्ट्रभाषा बना सकते हैं जब भाषा का मुद्दा भी राजनीतिक आस्था से जुड़ गया हो। और इसे कई राज्यों में थोपने के स्तर पर देखा जाता है। हमारे लिए राष्ट्र प्रथम है। और भारत की यह विशेषता भी है कि यह विभिन्न स्तर पर विभिन्नताओं वाला देश भी है।

  7. आज की राजनीति को हम दोष नहीं दे सकते क्योंकि हम सब जानते है की इनके अन्दर इतनी क्षमता नहीं है, हम कितना इसके लिए करते हैं ये महत्वपूर्ण है , और हर भारतीय का प्रयास ही इसको सम्मान दिला सकता है, हम जब गदहों तक को देश की संसद तक पहुंचा सकते है तो हिंदी तो हमारी जान है! जो भी हो रहा है उसके हम ही दोषी हैं हम दूसरों को दोष नहीं दे सकते हैं!
    सौरभ जी ने इस पोस्ट के माध्यम से काफी कुछ कह दिया है. इस पोस्ट के लिए बधाई |
    रत्नेश त्रिपाठी

  8. आपने जो लिखा वह सत्य है ,निश्चित रूप से हिंदी भारत की आत्मा है, मुझे लगता है कि हर भारतीय जब सपने हिंदी में देखता है और सुनता है ……………तो ये आत्मा और परमात्मा दोनों के करीब है | और उन तक अपनी आवाज़ पहुचने का सशक्त माध्यम भी…………….सौरभ सर को सादर नमस्कार |

  9. सौरभ जी आपको इस लेख के लिए बधाई!

    विषय पुराना है! बहस नई हो सकती है! हिंदी भारत की आत्मा है क्योंकि अभी भी भारत की अधिकतर आबादी हिंदी ही बोलती है! हिंदी में ही सरे देश का काम (व्यावसायिक छोड़ कर) होता है! इसका प्रमाण इससे लग सकता है की जब से google पर हिंदी टाइपिंग आसानी से शुरू हुई है तब ने भारतियों से खुले मन से अपने विचार रखना शुरू किया है! यदि मैं गलत नहीं हूँ तो मुझे याद है कुछ लोग जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी internet का उपयोग करने से डरते थे!

    यह भी सत्य है की हिंदी का विकास का अर्थ अंग्रेजी का बहिष्कार नहीं हो सकता! विश्व की वर्तमान स्थिति मैं अंग्रेजी को जानना आवश्यक है, शायद इस बात से हम सब इत्तिफाक रखते होंगे!

    आज तक हिंदी का बहिस्कार हिंदी भाषी लोगों ने ही किया है क्योंकि वो नहीं चाहते व्यवस्था का सामान्यीकरण हो! वो लोग जिन्हें अंग्रेजी भाषा नहीं आती वो बोलने मैं तो हिंदी का उपयोग कर सकते है, लेकिन जब किसी बड़े व्यावसायिक समारोह मैं जाते हैं तो निश्चित ही उन्हें आत्मग्लानी या असहजता होती है होती है! मेरा मानना है की जब हिंदी रोजगारपरक हो जाएगी तो इसका विकास संभव होगा! समय बदला है लोगों की जीवनशैली कार्य के अनुरूप बदली है अतः हिंदी भाषा का विकास रोजगारपरक होना चाहिए !

    वैसे हिंदी के बारे मैं जितनी बहस की जाये उतनी कम है! इसके पक्ष और विपक्ष मैं अनेकों बातें कही जा सकती है! मेरा मत मात्र इतना है की हिंदी की उपयोगिता तब बढ़ेगी जब व्यावसायिक जीवन मैं हमारे वरिष्ठ लोग इसे पुनः प्रतिस्थापित कर पाएंगे!

    अंत में सौरभ मालवीय जी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर शोध किया है न की भाजपा पर! भाजपा क्या करती है इसका उत्तर देना सौरभ मालवीय जी के लिए जरूरी नहीं है! हिंदी का विकास किसी एक राजनैतिक दल का एजेंडा नहीं हो सकता है! यदि भाजपा विकास नहीं कर रही तो आप और हम जैसे लोग जिन्हें हिंदी की चिंता है उन्हें आगे आकर काम करना चाहिए! मात्र अन्य की आलोचना करने से हमारा दामन साफ नहीं हो सकता!

    yeskanhaiya@rediffmail.com

  10. सौरभ जी की लेखनी ने सदैव सामाजिक सरोकारों को छुआ है..उनके इस आलेख से हिंदीभाषियों को आत्मगौरव का आभास होगा और हिंदी के माध्यम से भी सफलता हासिल की जा सकती है, ऐसी उर्जा का संचार होगा. सौरभ जी के इस आलेख के लिए उन्हें बधाई.

  11. सौरभ जी द्वारा लिखा गया यह लेख बहुत बढ़िया और सराहनीय है हम इनसे आशा करते है की भविष्य में इसी तरह का लेख लिख कर भारत के युवाओं को नई प्रेरणा देते रहेंगे जिससे वे हिंदी के प्रति पूरी तरह समर्पित रहे और हिंदी बोलने पैर युवा हीन भावना से ग्रसित न हो. सौरभ जी बढ़िया लेख लिखने के लिए धन्यवाद .

  12. बेशक हिंदी भारत की आत्‍मा है… इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए… दूसरों को तो छोड़िये… सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी तक का सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता है… पार्टी की वेबसाइट्स को ही देख लीजिये… ऐसे में हिन्दी को कौन बढ़ावा देगा…? सवाल तो यही है…

    • भाजपा अपनी प्रेस विज्ञप्ति हिंदी और अंग्रेजी दोनों में वेबसाइड पर लगाती है
      इस लिए भाजपा की प्रसंसा होनी चाहिए और कांग्रेस तथा वामपंथी पार्टिया हिंदी
      से कोसो दूर है इस पर विचार करने की जरुरत है

  13. श्री सौरभ जी सत्य कहते है. हिंदी भारत की आत्मा है. हिंदी सबसे सक्षम भाषा है. सभी विकशित देश में उनके राष्ट्र भाषा सर्वोपरि है.

  14. Lekhak dwara uthaya gaya mudda prashansniya hai tatha usper Prof. Madhusudan ji dwara diye gaye sujhaw Hindi ko sashakt banane ke liye prabhavi ho saktein hain yadyapi is disha mein charaiwati-charaiwati ki bhasha mein badha jave.

  15. टिप्पणी दो
    (३) और विश्वमें सर्वोत्तम, शास्त्रशुद्ध नागरी लिपि, जिसकी सारे विश्वमें कोई तुलना नहीं।(४) स्पेलींग पाठ आवश्यक नहीं (५) हम अपनी प्राकृत भाषाओंसे–तमिलसे, कश्मीरी तक, शब्दोंको ग्रहण करे, तो उन्हे भी अच्छा लगेगा। राष्ट्र भाषाको “भारती” नाम विचारे। (६) दक्षिणसे उत्तरतक सभी विद्वानोकी समिति बने। (७) ऐसे कई शब्द है, जो तेलगु, कन्नड, गुजराती, मराठीमें है, किंतु आजकी हिंदीने उन्हे अपनी भाषाओंसे नहीं, पर परकीय भाषाओंसे स्वीकारा है। हमारी अपनी निधि होते हुए भी, क्यों उधारी? (८) एक “आग” के अर्थ वाले ,(मॉनियर विल्यम) संपादित कोषमें, ४० से ५० संस्कृत पर्याय हैं। देरी ना करें।इस युगांतरी कार्यमें विद्वान जुट जाए। टिप्पणीकार स्ट्रक्चरल (निर्माण अभियांत्रिकी के) पारिभाषिक शब्दोंपर कार्य कर रहे हैं। २/३ शोध निबंध प्रस्तुत कर चुके हैं। २० वर्ष पहले जो नहीं, मानते थे, आज मानते हैं। दीर्घ टिप्पणी के लिए क्षमस्व।

  16. (१)जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६५ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी। कोटि कोटि छात्रोंको अंग्रेजीकी बैसाखीपर दौडना(?) सीखानेमें, खर्च होती, अब्जोंकी मुद्रा बचेगी।कोटि कोटि युवा-वर्षॊकी बचत होगी, बालपन के खेलकूद बिनाहि तरूण बनते युवाओंके जीवन स्वस्थ होंगे।
    सारे देशको अंग्रेजी बैसाखीपर दौडानेवाले की बुद्धिका क्या कहे? श्वेच्छासे कोई भी भाषा का विरोध नहीं, पर कुछ लोगोंकी सुविधाके लिए सारी रेल गाडी मानस सरोवरपर क्यों जाए?
    वैसे, हमारे पास (१) संस्कृतकी विश्वमें बेजोड शब्दप्रसूता शास्त्र और शक्ति है। किसीभी संकल्पना, व्याख्या के लिए अर्थकर पर्याय दे सकती है।(२)जिसे भारतकी बिना अपवाद, समस्त भाषाएं पहलेसे स्वीकार करती आयी है। भारतकी एकता को दृढ करनेके लिए कितना बडा घटक है यह?

  17. सौरभ जी हिन्दी के प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं. कई बार इनके भाषणों से प्रेरित/पीड़ित होने का अवसर मिला है. वास्तव में इस आलेख के माध्यम से हिन्दी को लेकर इनका सकारात्मक चिंतन लोगों में आत्मविश्वास का संचार करेगा. बिलकुल हिन्दी को कोई खतरा नहीं है. बस हम सब भारतीय अपने स्‍वाभिमान का पर्याय इसका मानते रहें इतनी ही अपेक्षा. धन्यवाद.

Leave a Reply to अजित सिंह Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here