हिंदी मुद्दा: अडिग रहें मोदी, पीछे न हटें

-प्रवीण गुगनानी-
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नरेन्द्र मोदी ने जब कहा कि वे विदेश यात्राओं के दौरान और अन्य राजनयिक अवसरों पर वैश्विक नेताओं से हिंदी में ही करेंगे तो देश में हिंदी को लेकर गौरव भाव और प्रतिष्ठित हो चला था. किन्तु हाल ही में गृह मंत्रालय ने जब द्रविड़ नेताओं के अनावश्यक और लचर दबाव में आते हुए हिंदी को लेकर जारी आदेशों में सुरक्षात्मक भूमिका अपनाई तो हिंदी के शुभचिंतकों को चिंता हो गई है. स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही समस्त देशभक्तों ने औपनिवेशिक आचरण से मुक्ति पाने हेतु अंग्रेजी से मुक्ति और हिंदी को भारतीय भाषाओं की मां का स्थान देने के भाव को भारतीय भाषा विधान का स्थायी भाव मान लिया था और लाख विरोध पर भी इस बात पर अटल भी रहे थे. किन्तु अब हिंदी को लेकर बड़ा ही तदर्थवादी आचरण होनें लगा है. इस क्रम में देखें तो भारतीय गणतंत्र में तमिलनाडु की फ़िल्मी प्रकार की राजनीति जो देश को विभिन्न मोर्चों पर विचित्रता की सीमा तक जाकर छकाती और सताती रही है वह तमिल जनता के भाव को समझे बिना ही सदा हिंदी विरोध को अपना हथियार बनाएं रहती है. बहुत से राष्ट्रीय विषयों में हम तमिल राजनीति के विभिन्न नौटंकी रूप हम देखते चले आये हैं और यहाँ तक कि वैदेशिक मामलों में भी श्रीलंका को लेकर तमिल के स्थानीय वोटों की राजनीति के कारण हम वैश्विक मचों पर दायें बाएं देखने को मजबूर होते रहे हैं.

तमिल में हिंदी को लेकर दशकों पूर्व से एक प्रकार का पूर्वाग्रह और वितंडा खड़ा किया जाता रहा है. यहाँ हिंदी विरोध के आधार पर कई राजनेताओं ने छद्म स्थानीयवाद खड़ा किया और भोली भाली तमिल जनता को भाषा के नाम भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकी हैं. हिंदी को लेकर इस प्रकार के प्रपंची आचरण की दोषी तमिल की दोनों प्रमुख पार्टियां रही हैं. कटु सत्य है कि तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों ने हिंदी विरोध को मात्र इसलिए अपना हथियार बनाया कि कहीं दूसरा दल भाषावाद के इस हथियार से अपनी लाइन लम्बी न खींच दे! पिछले दिनों जब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र जी मोदी ने गृह मंत्रालय में हिंदी में कामकाज बढ़ाने का आदेश दिया तो मात्र कुछ तमिल नेताओं ने इसका विरोध किया था, और अलगाव के बेसुरे गीत गाने के सिद्ध हो चुके उमर अब्दुल्ला ने भी इस सुर में अपना सुर मिला दिया था. तमिल मुख्यमंत्री जयललिता ने कहा कि सोशल मीडिया पर आधिकारिक संवाद की भाषा हिंदी की बजाय अंग्रेजी ही होनी चाहिए. फिर सदा की तरह भेड़ चाल चलते हुए पीएमके के रामदास ने भी गृह मंत्रालय के इस आदेश के विरोध में अपना व्यक्तव्य जारी कर दिया. इसके बाद जो हुआ वह दुखद भी है और नरेन्द्र मोदी की छवि और उन्हें मिले जनादेश की भावना के विपरीत भी; हुआ यह कि इस पर मचे अनावश्यक और शुद्ध सियासती प्रकार के वितंडे और प्रपंच से केंद्र सरकार अपने आदेश से पीछे हट गई! तमिलनाडु या दक्षिण के किसी अन्य प्रांत में सामान्य जनता के बीच से किसी भी प्रकार के विरोध के स्वर या प्रतिक्रया उपजे बिना ही केंद्र सरकार ने अपने आदेश में सुधार करते हुए पुनः कहा कि सिर्फ हिंदी बोलने वाले प्रदेशों में ही सोशल मीडिया पर हिंदी में कामकाज होगा. यद्दपि इस आदेश से भी हिंदी को पर्याप्त आधार और संबल मिलेगा तथापि नरेन्द्र जी मोदी का इस प्रकार एक मुख्यमंत्री के दबाव में आ जाना और आदेश से पीछे हट जाना अशुभ और अनपेक्षित ही है!

दक्षिण भारत के केरल में मलयालम, कर्नाटक में कन्नड, आंध्र में तेलुगु और तमिलनाडु तथा पुदुचेरी में तमिल अधिक प्रचलित भाषाएँ हैं. ये चारों द्रविड परिवार की भाषाएँ मानी जाती हैं. स्वतंत्रता के पश्चात इन राज्यों में हिंदी बोले सुने जाने का अभाव ही होता था, तब इन राज्यों के नेता हिंदी के विरोध में जन आन्दोलन करने और जनता को भड़काने में सफल हो जाते थे किन्तु वर्तमान में जिस प्रकार दक्षिण में हिंदी को रोजगारमूलक भाषा मानकर इसके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है तब हिंदी विरोध को लेकर इन जयललिताओं और करुणानिधियों द्वारा किसी जनांदोलन को खड़ा कर पाना असंभव ही है. इन नेताओं को इस तथ्य को समझना चाहिए कि यदि उनके राज्यों की जनता हिंदी सीख कर या मात्र बोलने सुनने भर की क्षमता विकसित करके यदि अपनी व्यावसायिक निपुणता या पेशेवर दक्षता बढ़ा पाती है तो इसमें दोष क्या है? वोटों की खातिर क्षुद्र राजनीति करने वाले इन हिंदी विरोधी नेताओं को समझना चाहिए कि दक्षिण भारत का शेष भारत की संस्कृति और भाषा के प्रति अपना आदरभाव का और विनम्र अनुगामी भाव का अपना गरिमामय और आदरणीय इतिहास रहा है.

उत्तर भारत के तीर्थों के प्रति अपने पूज्य भाव के कारण यहाँ का सनातनी और हिन्दू समाज हिंदी भाषा सीखने और माता पिता के गंगा स्नान करा लेनें को सदा उत्सुक रहा है! हिंदी सीख लेनें की रूचि के आधार पर ही 1918 में मद्रास में ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ को प्रारम्भ हुआ था और इसी वर्ष में स्थापित हिंदी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ. बाद में तमिल और अन्य दक्षिणी राज्यों की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए ही इस संस्था को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया गया. वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों मंत प्रतिष्ठित शोध संस्थान है, और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय इस संस्थान से हिंदी में दक्षता प्राप्त कर हिंदी की प्राणपण से सेवा कर रहें हैं. हिंदी के प्रसार और प्रतिष्ठा में संलिप्त हजारों दक्षिण भारतीय बंधु न मात्र हिंदी से अपने रोजगार के अवसरों को स्वर्णिम बना रहे हैं अपितु दक्षिण में हिंदी प्रचार के क्रम में ऐसी कई प्रतिष्ठित संस्थाओं को भी स्थापित करते रहे हैं.

इसी क्रम में केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति, 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की स्थापना हुई. इन संस्थानों में लाखों छात्र हिंदी की परीक्षाओं में सम्मिलित व् उत्तीर्ण होते हैं. तमिलनाडु में तथाकथित और पूर्वाग्रही विरोध के कारण भले ही शासकीय शिक्षण संस्थानों में हिंदी की उपेक्षा हो रही हो, किन्तु कई निजी संस्थानों में हिंदी की पढ़ाई जारी है, और इनकी परीक्षाओं में छात्रों की संख्या लाखों में रहती है. आज तमिलनाडु में हिंदी को रोजगार का स्वर्णिम सोपान मानने के कारण ही गली गली में ‘हिंदी स्पीकिंग कोर्स’ के बोर्ड दिखते हैं. जनसामान्य में असंतोष है कि निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे तो हिंदी पढ़कर अपनी रोजगार की संभावनाएं प्रबल कर लेते हैं, किन्तु शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थी हिंदी पीछे रह जातें हैं. दक्षिणी राज्यों में हिंदी को आजीविका का साधन विकसित करने का एक प्रबल माध्यम मानने का ही परिणाम है कि यहाँ कई सेवाभावी संस्थाएं निःशुल्क हिंदी कक्षाओं का संचालन, लेखन, प्रकाशन, पत्रकारिता, गोष्ठियों का आयोजन निरंतर कराती रहतीं हैं. मुम्बईया हिंदी फिल्मों और हिंदी गीतों की लोकप्रियता के कारण भी हिंदी अब दक्षिणी राज्यों में एक सहज सामान्य रूप से बोली सुनी जाने लगी है. आज हैदराबाद, बैंगलूर तथा चेन्नई नगरों से दसियों बड़े और कई छोटे हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं. यहाँ यह कतई न समझा जाए कि दक्षिण भारत में हिंदी का चलन कुछ दशकों की देन है! दक्षिण के सभी राज्यों में हिंदी का अपना दीर्घ और समृद्ध इतिहास रहा है, दो सौ वर्ष पूर्व भी केरल में ‘स्वाति तिरुनाल’ के नाम से सुविख्यात तिरुवितांकूर राजवंश के राजा राम वर्मा (1813-1846) ने हिंदी की कालजयी कृतियाँ रचीं थी जो वहां के जनजीवन में अब भी परम्परागत रूप से आदर पूर्वक बोली सुनी जाती हैं. दशकों पूर्व से कोचीन से मलयालम मनोरमा की ओर से ‘युग प्रभात’ नाम के अत्यंत लोकप्रिय साप्ताहिक हिंदी पत्र और हिंदी विद्यापीठ (केरल) से ‘संग्रथन’ मासिक पत्रिका और कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की ओर से “हिंदी प्रचार वाणी” का प्रकाशन हो रहा है. हिंदी समर्थक पहल को वापिस लेने के स्थान पर आज अधिक आवश्यक हो गया है कि दक्षिण के जनसामान्य की भावनाओं को न समझने वाले और अनावश्यक हिंदी विरोध की राजनीति करने वालों के प्रति कठोर रूख रखा जाए और ऐसे असंतोष उपजा रहे दक्षिणी नेताओं पर कठोरता से अंकुश भी लगाया जाए.

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  1. तमिलनाडु में परिजनों और स्कूलों की मांग, ‘हमें हिंदी चाहिए’
    NDTVcom, Last Updated: जून 16, 2014 06:43 PM IST

    चेन्नई: तमिलनाडु में हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने के खिलाफ 60 के दशक में हिंसक विरोध प्रदर्शन देखने को मिले थे। हालांकि अब यह मामला उल्टा पड़ता दिख रहा, जहां राज्य में कई छात्र, उनके परिजन और स्कूलों ने तमिल के एकाधिकार के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी है। उनका कहना है कि उन्हें हिंदी चाहिए।

    स्कूलों और परिजनों के एक समूह ने डीएमके की तत्कालीन सरकार की ओर से साल 2006 में पारित एक आदेश को चुनौती दी है, जिसमें कहा गया था कि दसवीं कक्षा तक के बच्चों को केवल तमिल पढ़ाई जाएगी।

    इस संबंध में पांच जून को दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने राज्य की एआईएडीएमके सरकार से जवाब मांगा है।

    इस मामले में चेन्नई के छात्रों का कहना है कि हिंदी या अन्य भाषाएं नहीं जानने से भारत में अन्य स्थानों पर और विदेश में उनके रोजगार के अवसरों को नुकसान पहुंचता है।

    नौंवी कक्षा में पढ़ने वाले अनिरुद्ध मरीन इंजीयरिंग की पढ़ाई करना चाहते हैं और उनका कहना है, ‘अगर मैं उत्तर भारत में काम करना चाहता हूं तो मुझे हिंदी जाननी होगी।’

  2. sanskrit ko rastrabhashaa banane kaa prastav sansad me anaa chahiye-
    Hindee ko sampark bhashaa kaa.
    sanskrit kaa sarleekarn kar sugm banaya janaa chahiye.
    Hindee ke virodh kotoolnahee denaa chahiye aur angrejee kaa viklpisebanana chahiye.

  3. तमिल भाषा की संस्कृत कडी पर २ आलेख इसी प्रवक्ता में आप पढ पाएंगे। निम्न कडी उसमें से एक हैं। संस्कृत शब्द बहुल हिन्दी दक्षिण में हमें सफलता दे सकती है। फारसी और अरेबिक बहुल भाषा वहाँका मुसलमान भी समझ नहीं सकता। वो तो प्रायः वहाँ की स्थानिक भाषा ही बोलता है।
    लेखक को विषय उठाने के लिए धन्यवाद।
    कडी देख लीजिए। विषय पर ३ आलेख डाले थे।
    https://www.pravakta.com/sanskrit-tamil-3

    • तमिल भाषा की संस्कृत कडी पर २ आलेख इसी प्रवक्ता में आप पढ पाएंगे। निम्न कडी उसमें से एक हैं। संस्कृत शब्द बहुल हिन्दी दक्षिण में हमें सफलता दे सकती है। फारसी और अरेबिक बहुल भाषा वहाँका मुसलमान भी समझ नहीं सकता। वो तो प्रायः वहाँ की स्थानिक भाषा ही बोलता है।
      लेखक को विषय उठाने के लिए धन्यवाद।
      दो कडियाँ देख लीजिए। विषय पर ३ आलेख डाले थे।
      https://www.pravakta.com/sanskrit-tamil-3
      https://www.pravakta.com/sanskrit-bridge-between-tamil-hindi

  4. वस्तुस्थिति दर्शाते हुए इस महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान दिलाने के लिए लेखक को साधुवाद। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक गणतंत्र बनने के छह दशक बाद भी हम द्रविड नेताओं के हिंदी विरोध को दूर नहीं कर पाये हैं। आज सारे देश में संचार के एक सशक्त माध्यम के रूप में हिंदी की उपयोगिता सिद्ध हो रही है। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार द्वारा एक बार निर्गत आदेश के विषय में पीछे हटना काफी चिंताजनक है। इस समस्या का स्थायी हल निकालना अत्यंत आवश्यक है ताकि ऐसी घटना की कभी पुनरावृत्ति न हो। कुछ तत्व हिंदी की ज़रा-सी भी उन्नति को सह नहीं पा रहे हैं और इस विषय में निरंतर अडंगे डाल रहे हैं। अंग्रेजी मोह से ग्रस्त नेताओं, राजनैतिक दलों तथा अपने दर्शकों की संख्या में आ रही गिरावट से चिंतित कुछ अंग्रेजी टीवी चैनलों आदि के द्वारा पुरजोर कोशिश की जा रही है कि हिंदी को एक क्षेत्रीय भाषा से अधिक दर्जा न मिले तथा अखिल भारतीय स्तर पर एकमात्र अंग्रेजी का ही आधिपत्य कायम हो।
    इस स्थिति में केंद्र सरकार को राष्ट्रहित में इस पहलू पर विशेष ध्यान देना होगा तथा हिंदी के भविष्य को चंद राजनीतिज्ञों के रहमोकरम पर छोड़ देने के बजाय समस्याग्रस्त क्षेत्रों में पूर्णतः अनुकूल वातावरण बनाने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। देश भर में हिंदी और अन्य देशी भाषाओं का वर्चस्व बढ़ाना होगा। एक स्थिर सरकार के होते हुए यह असंभव नहीं है।

  5. स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र भाषा , राष्ट्र ध्वज , राष्ट्र गीत , मे से राष्ट्र भाषा का पद रिक्त रहा विदेशी साजिस थी । एक राष्ट्र भाषा का न होना भारत की अखंडता और प्रभुता के लिए जरूरी है । देश को आर्यन , द्रविड़ियन , दलित के नाम पर भेदभाव पैदा करना भी एक साजिस थी ।

  6. दक्षिण के राज्यों में साठ के दशक में हिंदी विरोध की आग भड़काने में कुछ विदेशी शक्तियों का हाथ रहा है.वास्तव में कुछ विदेशी ताकतें भारत के टूटने की कामना शुरू से ही करती रही हैं. और इसके लिए उन्होंने यहाँ कुछ फाल्ट लाइन्स तलाश/विकसित कर ली हैं.प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर राजीव मल्होत्रा और अरविन्दन नीलकंदन ने अपनी पुस्तक “ब्रेकिंग इण्डिया” में इस प्रकार की फाल्ट लाइन्स में द्रविड़ और दलित को रखा है.आर.एस.एस. के द्वित्तीय सरसंघचालक प.पू.श्री गुरूजी (गोळवलकरजी) ने एक बार कहा था की हिंदी विरोधी आंदोलन को एक देश की गुप्तचर संस्था ने धन देकर भड़काया था.ये महत्वपूर्ण तथ्य है कि प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल चक्रबर्ती राजगोपाचार्य प्रारम्भ में हिंदी के समर्थक थे.और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा उन्ही के प्रयास से स्थापित हुई थी.अब स्थिति बदल रही है.प्रति वर्ष लगभग सात लाख लोग तमिलनाडु में हिंदी पढ़/सीख रहे हैं

  7. मै मानती हूं कि हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल पाया है जो मिलना चाहिये था पर हमे तमिल और अन्य अहिंदी भाषी लोगों पर उंगली उठाने से पहले हिन्दी भाषी क्षेत्रों मे हिन्दी की स्थिति को देखना और सुधारना पड़ेगा।

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