होली: राक्षसी शक्तियों के दहन का पर्व

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होली

प्रमोद भार्गव

होली एक प्राचीन त्योहार है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मुख्य रुप से यह बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है। भारत और चीन में इसे, इसी परिप्रेक्ष में मनाने की परंपरा है। आज इस पर्व को मूल-अर्थों में मनाना ज्यादा प्रासंगिक है। क्यूंकी नैतिकता-अनैतिकता के सभी मानदण्ड खोटे होते जा रहे हैं। समाज में जिसकी लाठी, उसकी भैंस का कानून प्रभावी होता जा रहा है। साधन और साध्य का अंतर खत्म हो रहा है। गलत साधनों से कमाई संपत्ति और बाहुबल का बोलबाला हर जगह बढ़ रहा है। ऐसी राक्षसी शक्तियों के समक्ष, नियंत्रक मसलन कानूनी ताकतें बौनी साबित हो रही हैं। हिंसा और आतंक के भयभीत वातावरण में हम भयमुक्त होकर नहीं जी पा रहे हैं। दुविधा के इसी संक्रमण काल में होलिका को मिले वरदान आग में न जलने की कथा की अपनी प्रासंगिकता है। क्योंकि अंततः बुराई का जलना और अत्याचारी व दुराचारी ताकतों का ढहना तय है।

सम्राट हिरण्यकश्यप की बहन बोलकर को आग में न जलने का वरदान था अथवा हम कह सकते हैं, उसके पास कोई ऐसी वैज्ञानिक तकनीक थी, जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। लेकिन जब वह अपने भतीजे प्रहलाद का अंत करने की क्रूर मानसिकता के साथ उसे गोद में लेकर प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट हुई,तो प्रहलाद तो बच गए, किंतु होलिका जल कर मर गई। उसे मिला वरदान काम नहीं आया। क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी। वह अंहकारी भाई के दुराचारों में भागीदार हो गई थी। इस लिहाज से कोई स्त्री नहीं बल्कि दुष्ट और दानवी प्रवृत्तियों का साथ देने वाली एक बुराई जलकर खाक हुई थी। लेकिन इस बुराई का नाश तब हुआ, जब नैतिक साहस का परिचय देते हुए एक अबोध बालक अन्याय और उत्पीड़न के विरोध में दृढ़ता से खड़ा हुआ।

इसी कथा से मिलती – जुलती चीन में एक कथा प्रचलित है, जो होली पर्व मनाने का कारण बनी है। चीन में भी इस दिन पानी में रंग घोलकर लोगों को बहुरंगों से भिगोया जाता है। चीनी कथा भारतीय कथा से भिन्न जरुर है, लेकिन आखिर में वह भी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। चीन में होली का नाम है, ‘फोशवाई च्ये’ अर्थात् रंग और पानी से सराबोर होने का पर्व। यह त्योहार चीन के युतांन जाति की अल्पसंख्यक‘ताएं’ नामक जाति का मुख्य त्योहार माना जाता है। इसे वे नए वर्ष की शुरूआत के रुप में भी मनाते हैं।

इस पर्व से जुड़ी कहानी है कि प्राचीन समय में एक दुर्दांत अग्नि-राक्षस ने ‘चिंग हुग’ नाम के गांव की उपजाऊ कृषि भूमि पर कब्जा कर लिया। राक्षस विलासी और भोगी प्रवृत्ति का था। उसकी छह सुंदर पत्नियां थीं। इसके बाद भी उसने चिंग हुग गांव की ही एक खूबसूरत युवती का अपहरण करके उसे सातवीं पत्नी बना लिया। यह लड़की सुंदर होने के साथ वाक्पटु और बुद्धिमति थी। उसने अपने रूप-जाल के मोहपाश में राक्षस को ऐसा बांधा कि उससे उसी की मृत्यु का रहस्य जान लिया।

राज यह था कि यदि राक्षस की गर्दन से उसके लंबे-लंबे बाल लपेट दिए जाएं तो वह मृत्यु का शिकार हो जाएगा। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर युवती ने ऐसा ही किया। राक्षस की गर्दन उसी के बालों से सोते में बांध दी और इन्हीं बालों से ही उसकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी। लेकिन वह अग्नि-राक्षस था, इसलिए गर्दन कटते ही उसके सिर में आग  प्रज्वलित हो उठी और  सिर धरती पर लुढ़कने लगा। यह सिर लुढ़कता हुआ जहां-जहां से गुजरता वहां-वहां आग प्रज्वलित हो उठती। इस समय साहसी और बुद्धिमान लड़की ने हिम्मत से काम लिया और ग्रामीणों की मदद लेकर पानी से आग बुझाने में जुट गई। आखिरकार बार-बार प्रज्वलित हो जाने वाली अग्नि का क्षरण हुआ और धरती पर लगने वाली आग भी बुझ गई। इस राक्षसी आतंक के अंत की खुशी में ताएं जाति के लोग आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे थे, उसे एक-दूसरे पर उड़ेल कर झूमने लगे। और फिर हर साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।

ये दोनों प्राचीन कथाएं हमें राक्षसी ताकतों से लड़ने की प्रेरणा देती हैं। हालांकि आज प्रतीक बदल गए हैं। मानदंड बदल गए हैं। पूंजीवादी शोषण का चक्र भूमण्डलीय हो गया है। आज समाज में सत्ता की कमान संभालने वाले संपत्ति और प्राकृतिक संपदा का अमर्यादित क्रेंद्रीयकरण और दोहन करने में लगे हैं। यह पक्षपात केवल राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रह गया है, इसका विस्तार धार्मिक, सांस्कृतिक प्रशासनिक क्षेत्रों में भी है। नतीजतन हम सरकारी कार्यालय में हों, किसी औद्योगिक कंपनी की चमचमाती बहुमंजिला इमारत में हों अथवा किसी भी धर्म-परिसर में हों, ऐसा आभास जरुर होता है कि हम अंततः लूट-तंत्र के शड्यंत्रों के बीच खड़े हैं। जाहिर है, शासक वर्ग लोकहित के दावे चाहे जितने करें, अंततः उनका सामंती चरित्र ही उभरकर समाज में विस्तारित हो रहा है। आम आदमी पर शोषण का शिकंजा कस रहा है। आर्थिक उदारीकरण न तो समावेशी विकास का आधार बन पाया और न ही अन्याय से मुक्ति का उपाय साबित हुआ ? इसके उलट उसे अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद से जो्रड़कर व्यक्ति को अपनी सनातन ज्ञान परंपराओं से काटने का कुचक्र रचा और जो ग्रामीण समाज लघु उद्योगों में स्वयं के उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ा था, उसे नगरीय व्यवस्था का घरेलू नौकर बना दिया। जाहिर है, शाशक दल लोक को हाशिये पर डालकर लोकहित का प्रपंच – गान करने में लगे हैं। लोक का विश्वास तोड़ कर लोकवादी या जनवादी कैसे हुआ जा सकता है ?

हकीकत तो यह है कि कथनी और करनी के भेद सार्वजनिक होने लगे हैं। जिस शासन-प्रशासन तंत्र को राष्ट्रीय व संवैधानिक आदर्शों के अनुरुप ढालने की जरुरत थी, वे संहिताओं और आदर्शों को खंडित करके उनकी परिभाषाएं अपनी राजनीतिक व अर्थ लिप्साओं के अनुरुप गढ़ने लगे हैं। बाजार को मजबूत बनाने के लिए विधेयक लाए जा रहे हैं। परिवार को व्यक्तिगत इकाई मानकर और स्त्री शरीर को केवल देह मानकर कौटुम्बिक व्यवस्था को खंडित और स्त्री-देह को भोग का उपाय बनाने के प्रपंच किए जा रहे हैं।

दरअसल बाजारवादी ताकतें शोषण के जिस दुश्चक्र को लेकर आ रही हैं, उससे केवल नैतिक साहस से ही निपटा जा सकता है। इन शक्तियों की मंशा है कि भारतीयों को संजीवनी देने वाली नैतिकता के तकाजे को भ्रष्ट और नष्ट कर दिया जाए। इसीलिए निजी नैतिकता को अनैतिकता में बदलने के नीतिगत उपाय हो रहे हैं। जब कि नैतिक मूल्यों का वास्तविक उद्देश्य मानव जीवन को पतन के मार्ग से दूर रखते हुए उसे उदात्त बनाना है। यही कारण रहा है कि जब होलिका सत्य, न्याय और नैतिक बल के प्रतीक प्रहलाद को भस्मीभूत करने के लिए आगे आई तो वह खुद जलकर राख हो गई। उसकी वरदान रूपी तकनीक उसके काम नहीं आई। क्योंकि उसने वरदान की पवित्रता को नष्ट किया था। वह शासक दल के शोषणचक्र में साझीदार हो गई थी। चीनी राक्षस का भी यही हश्र युवती के एकांगी साहस ने किया।

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