संवैधानिक रूप लेता आधार

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प्रमोद भार्गव

adhaarहर नागरिक को पहचान देने के लिए शुरू की गई आधार योजना को अब राजग सरकार ने लोकसभा से विधेयक के रूप में पारित कराकर साफ कर दिया है कि वह आधार को संवैधानिकता प्रदान करने के पक्ष में है। इस विधेयक को आधार मसलन ‘लक्षित वित्तीय एवं अन्य सरकारी सहायता लाभ एवं सेवा प्रदाय मुद्रा विधेयक-2016‘ नाम दिया गया है। इससे सरकार को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण जैसी योजनाओं में लाभार्थियों को सीधे सब्सिडी देने के प्रावधानों को संवैधानिक वैधता मिल जाएगी। इसे धन विधेयक के रूप में पेश किया है। तकनीकि अडंगों के चलते इसे राज्यसभा में पेश करने की बाधा दूर हो गई है। इसे केवल चर्चा के लिए राज्य सभा में लाया जा सकता है। सरकार ने विधेयक पारित कराने का यह शाॅर्टकट तरीका इसलिए अपनाया है,क्योंकि राज्यसभा में सरकार बहुमत में नहीं है। इसी कारण इसे ‘धन-विधेयक‘ के रूप में पेश किया गया है। लोकसभा से विधेयक के पारित होने के बाद राज्यसभा इसमें कोई संषोधन नहीं ला सकती है। संषोधनों की सिफारिश जरूर कर सकती है। इसके साथ ही यह अनिवार्यता भी है कि विधेयक 14 दिवस के भीतर लोकसभा को लौटा दिया जाए। इसी कारण कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने विरोध जताते हुए कहा है कि राज्यसभा से बचने के लिए सरकार इसे धन-विधेयक के रूप में पेश कर रही है।

इस परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों को विधेयक पारित कराने की इस संक्षिप्त प्रक्रिया से यह सबक लेने की जरूरत है कि संसद के सदनों में यही हुल्लड़ बरपा रहा तो सत्तारूढ़ दल अन्य विधेयकों को पारित कराने में भी यही रुख अपना सकता है,इससे ऊपरी सदन को नजरअंदाज करने की अलोकतांत्रिक परंपरा का सिलसिला शुरू हो सकता है ? जबकि कानून बनाने की प्रक्रिया में दोनों सदनों की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण है,जिससे किसी नए कानून के अस्तित्व में आने से पहले उसके प्रारूप पर पर्याप्त चर्चा हो और उसकी कमियां निकालकर,उसे व्यापक रूप में जन-हितैशी बनाया जा सके ? किंतु कालांतर में यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक गलत परंपरा की शुरूआत हो सकती है ? इस नाते कांग्रेस व अन्य दलों को सचेत रहते हुए,संसदीय कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने का रास्ता प्रशस्त करने की जरूरत है। जिससे सत्ता पक्ष और विपक्ष में पारस्परिक कमी दूर हो। चूंकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं था,इसलिए सरकार को विधेयक लटकाने की कुषंकता थी। ऐसा होता तो हजारों करोड़ सब्सिडी का गलत हाथों में जाने का सिलसिला जारी रहता। इसका असर सरकार की वित्तीय सेहत पर पड़ता। वैसे भी सरकार बीते 21 महीनों के भीतर अर्थव्यवस्था में सुधार का ऐसा कोई विशेष मौलिक उपाय नहीं कर पाई है,जिसे मोदी सरकार की करिश्माई उपलब्धि माना जाए ?

पहचान-पत्र आधार को अनिवार्य करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय भी केंद्र सरकार को कई बार दिशा-निर्देश दे चुकी थी। कानूनी वैधता नहीं होने के कारण ही अदालत ने इसका उपयोग स्वैच्छिक रूप से मनरेगा,भविष्य निधि,पेंशन, जन-धन, पीडीएस और एलपीजी में सब्सिडी तक सीमित कर दिया था। वैसे आधार के जरिए संप्रग सरकार ने लोक कल्याणकारी योजनाओं की नकद सब्सिडी देने की शुरूआत कुछ राज्यों के चुनिंदा जिलों से की थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर, आधार को बिना कानूनी मान्यता दिए, इसकी अनिवार्यता देश की पूरी आबादी पर थोप दी थी। आधार के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी कानूनी वैघता नहीं होना थी। बावजूद योजना को गतिशीलता देने के लिए केंद्रीय मंत्रीमण्डल ने 1200 करोड़ रूपए की मंजूरी सितंबर 2014 में ही दे दी थी। यह राशि बिहार,झारखंड,छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में नए आधार पहचान-पत्र बनाने के लिए दी गई थी। इसके साथ ही मोदी सरकार ने यह भी घोशणा की थी कि आधार के जरिए ही लाभार्थियों की सब्सिडी सीधे उनके खाते में नकद राशि के रूप में जमा होगी। अब तक 60,000 करोड़ रूपए खर्च करके करीब 92 करोड़ कार्ड बन चुके हैं। सरकार का दावा है कि अब तक 97वें प्रतिशत वयस्क लोग आधार के दायरे में आ चुके हैं। सरकार की मंशा है कि कालांतर में आधार को सभी लोक कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ दिया जाए, जिससे इन योजनाओं में बरते जा रहे भ्रष्टाचार एवं अन्य प्रकार की अनियमितताओं पर अंकुश लग सके। सरकार ने आधार की महत्ता प्रतिपादित करते हुए शीर्ष न्यायालय को बताया था की गैस सिलेंडर वितरण में इसकी अनिवर्यता की शर्त लागू कर देने भर से सरकारी खजाने में 14 हजार करोड़ का लाभ दिसंबर 2015 तक हो चुका है।

इतनी उपयोगी एवं बहुउद्देष्यीय योजना होने के बावजूद आधार के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल उठते रहे हैं और इसके क्रियान्वयन के बाबत भी कई पेचेदगियां जताई जाती रही हैं। बावजूद न तो इनके समाधान तलाशे गए और न ही इसे कानूनी रूप देने की पहल हुई। मनमोहन सिंह और उनकी संप्रग सरकार हर समय संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देते रहे,लेकिन 66000 करोड़ की लागत वाली इस महत्वाकांक्षी योजना की संसदीय वैधता को टालते रहे। योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और उनके मातहत रहे सूचना तकनीक विशेषज्ञ नंदन नीलकेणी के बरगलाने पर संसद के दोनों सदनों को दरकिनार कर ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण‘ को मंजूरी दे दी गई और तत्काल देश भर में आधार पहचान-पत्र बनाने का काम भी युद्धस्तर पर शुरू हो गया।

बाद में जब इसे संवैधानिक दर्जा देने की पहल शुरू हुई तो यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली स्थायी संसदीय समिति ने इसे खारिज कर दिया था। समिति ने अपनी दलील को पुख्ता बनाने के लिए रक्षा संबंधी सुरक्षा को आधार बनाया था। सुरक्षा के लिहाज से यह योजना निरापद नहीं है। क्योंकि इसके तहत व्यक्ति,मूल दस्तावेजों और उसकी स्थानीयता की जांच-पड़ताल किए बगैर कार्ड प्राप्त करने में सफल हो जाता है। आधार कार्ड देश के ज्यादातर साइबर कैफों में बनाए जा रहे हैं। इस कारण बांग्लादेशी एवं अफगानी घुसपैठियों,कष्मीरी आतंकियों और नेपालियों को भी बड़ी संख्या में कार्ड बना दिए गए हैं। गोया,देश की नागरिकता के प्रमाण के रूप में आसानी से प्राप्त हो जाने वाले ऐसे पहचान-पत्र पर अंकुश जरूरी था। अलबत्ता अब न्यायालय की कड़ाई के बाद सरकार आधार कार्ड की जरूरत को जनहित से जोड़ना चाहती है तो उसे आधार को वैधानिक दर्जा देने की मजबूरी थी। आधार के जरिए देश के नागरिक को दिए जाने वाले पहचान पत्र को जारी करने से पहले नागरिक बनाम निवासी के मुद्दे को हल करने की दृश्टि से यदि ये शर्तें जोड़ दी जाती हैं तो आधार आतंकी और घुसपैठिए नहीं बनवा पाएंगे ? देश की नागरिकता के लिए, 18 तरह की व्यक्तिगत पहचानें शामिल हैं,उनमें से कोई एक नागरिक पहचान व्यक्ति के पास अनिवार्य कर दी जाए ? साथ ही 33 प्रकार के निवास प्रमाण पत्र वाले दस्तावेजों में से भी कोई एक प्रमाण होना जरूरी हो,तभी व्यक्ति आधार का हकदार होना चाहिए ?

आधार पत्र बनाना कितना आसान व सतही है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि कुछ समय पहले भगवान हनुमान के नाम से ही सचित्र कार्ड बन गया था। हरेक खानापूर्ति व पंजीयन क्रंमाक के साथ यह कार्ड बैंग्लुरू से बना था। पता फर्जी था,इसलिए कार्ड राजस्थान के सींकर जिले के दाता रामगढ़ डाकघर पहंुच गया और सार्वजनिक हो गया। इससे पता चलता है कि नागरिक की पहचान और मूल-निवासी की शर्त जुड़ी नहीं होने के कारण कार्ड बनाने में कितनी लापरवाही बरती जा रही है। इस मामले में हैरानी में डालने वाली बात यह भी थी कि कार्ड बनाने वाले कंप्युटर आॅपरेटर और कार्ड का सत्यापन करने वाले अधिकारी ने हनुमान के चित्र को व्यक्ति का फोटो कैसे मान लिया ? जाहिर है,केवल धन कमाने के लिए कार्ड बनाने की गिनती का ख्याल रखा गया है ?

आधार को जब मंजूरी मिली थी,उसके पहले से ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर आॅफ इंडिया‘ के माध्यम से व्यक्ति को नागरिकता की पहचान देने वाले कार्ड बनाए जाने की कार्रवाई चल रही थी। लिहाजा देश के नागरिक को बायोमैट्रिक ब्यौरे तैयार करने की प्रक्रिया में किस विभाग की भूमिका को तार्किक व अह्म माना जाए,इस नजरिए से संसद व सरकार के स्तर पर भ्रामक स्थिति बन गई थी। विधेयक के प्रारूप को खारिज करने का यही प्रमुख कारण संसदीय समिति ने माना था। दरअसल, एनपीआर के कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों के आंकड़े जुटाने का काम कर रहे थे। सरकार के सीधे नियंत्रण में होने के साथ यह प्रणाली विकेंद्रीकृत थी। गोया,इसकी विश्वसनीयता आधार प्राधिकरण की तुलना में कहीं ज्यादा थी। दोनों संस्थाओं के कामों की प्रकृति और उद्देष्य एक जैसे थे,इसलिए यहां यह सवाल भी उठा था कि एक ही कार्य दो भिन्न संस्थाओं से क्यों कराया जा रहा है ? यह विरोधाभास मोदी सरकार ने भी दूर नहीं किया है ? इसीलिए बीजू जनता दल के नेता भर्तहरि मेहताव ने विरोध करते हुए आधार संख्या के विरोधाभासी पहलुओं को धन-विधेयक से दूर करने की बात कही थी,किंतु इन विरोधाभासों को दूर नहीं किया गया। लेकिन सरकार ने इतना जरूर किया है कि इसे नागरिक की पहचान तक सीमित न रखते हुए,इसका मुख्य लक्ष्य अनुदान के रूप में मिलने वाले धन के नगद अंतरण,पेंशन और छात्रवृत्ति जैसी लाभदायी अन्य योजनाओं तक सीमित कर दिया है।

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