मनोज ज्वाला
कभी-कभी यह देखा जाता है कि किसी गम्भीर बीमारी से पीडित कोई
व्यक्ति अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के नामी-गिरामी संस्थानों में
किसिम-किसिम की जांच-प्रक्रियाओं को झेलने और महंगी-महंगी दवाओं का सेवन
करने के बावजूद स्वस्थ नहीं हो पाता है, जबकि मामूली घरेलू उपचारों से
बिना किसी हानि-परेशानी के आश्चर्यजनक तरीके से उस रोग-बीमारी पर विजय
प्राप्त कर पूर्ण स्वस्थ हो जाता है । भारत के लोकतंत्र को भी तमाम
प्रकार की सियासी बीमारियों से मुक्त करने और इसकी सेहत सुधारने के लिए
इस तथ्य को सत्य मान कर आजमाना चाहिए । इसे आजमाने में देश की सरकार को न
भारी-भरकम बजट का प्रावधान करना पडेगा, न संसद को संविधान-संशोधन विषयक
विधेयक पारित करना पडेगा । ये उपचार बडे सहज हैं और जितने सहज हैं उतने
ही कारगर भी । इन्हें लोकतंत्र की मजबूती के लिए शोध-अनुसंधान करते रहने
वाली विदेशी संस्थाओं ने ईजाद नहीं किया है, बल्कि आयुर्वेदिक दवाओं की
तरह ये खालिस देशी सोच, समझ व चिन्तन से निःसृत उपचार हैं , जिन्हें एक
बार , कुछ समय के लिए ही सही , आजमा लेने में कोई हर्ज नहीं है ।
भारत के लोकतंत्र की सबसे बडी बीमारी है, राजनीति का अपराधिकरण,
व्यापारिकरण एवं राजनेताओं का भ्रष्टाचरण । जनता से उसकी सेवा करने के
बावत पांच वर्ष का मौका मांग कर प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं और संसद
में पहुंचे लोग चाहे वे किसी भी दल के हों इफरात सुख-सुविधाओं में डूब कर
एक ओर जहां जनता से दूर हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर अपनी उस
विधायकी-सांसदी के सहारे निजी धन-सम्पत्ति अर्जित करने में ही अपनी
राजनीतिक निपुणता का इस्तेमाल करने में लग जाते हैं । भारत में आज
राजनीति जो एक प्रकार का धंधा बन गई है, इसका सबसे बडा कारण
विधायकों-सांसदों को क्षेत्र-विकास के नाम पर उन्हें मिलने वाला राजकोष
(फण्ड) और अन्य विकास-कार्यों में होने वाला उनका अनावश्यक हस्तक्षेप है
। जबकि संविधान के निर्देशानुसार इनका मूल काम विधेयकों के निर्माण में
सहभागी बनना और जनाकांक्षाओं के अनुरुप विधेयकों का निर्माण करना-कराना
अथवा जनता की बातें सरकार तक पहुंचाना व सदन में रखना है । किन्तु इसे
विडम्बना ही कहिए कि नली-गली व पुल-पुलिया से ले कर तमाम प्रकार के
निर्माण-कार्यों और शिक्षा-स्वास्थ्य
कला-विज्ञान-साहित्य-संस्कृति-इतिहास-भूगोल की समस्त योजनाओं के
नीति-नियन्ता ये ही लोग बना दिए जाते हैं । जबकि , इन कार्यों के
निष्पादन हेतु सरकार के अलग-अलग विभाग और उन सभी विभागों में सम्बन्धित
विशेषज्ञ अधिकारी व मानव संसाधन भरे पडे होते हैं । असल में विधायी सभाओं
के माननीय सदस्यों की हैसियत का यह जो ‘अविधायी’ विस्तार है , सो उन्हें
राजनेता के बजाय बिचौलिया, दलाल, ठेकेदार बनाते हुए मालदार पूंजीपति बना
देता है ; महज पांच वर्ष में ही उनकी आर्थिक समृद्धि पचास वर्ष आगे निकल
जाती है । मंत्रियों को तो कहना ही क्या ! इसीलिए प्रायः सभी दलों के
नेताओं में इस बावत मारा-मारी होती है कि वह चुनाव लडे और किसी भी तरह से
विधायक-सांसद-मंत्री बन जाये ।
मालूम हो कि इन माननीयों को उपलब्ध सुविधाओं पर प्रति वर्ष
हजारों करोड रुपये जनता की गाढी कमाई के सरकारी खजाने से खर्च होते हैं ।
उन्हें दी जाने वाली ये सुविधायें अकारण और अतार्किक हैं, जो उन्हें
सुविधाभोगी और भ्रष्ट बनाती हैं । मसलन यह कि भारी-भरकम माहवारी वेतन के
बावजूद उन्हें मुफ्त के भोजन-आवास, हवाई-यात्रा, चिकित्सा आदि तमाम
सुविधायें तो दी ही जाती हैं, कई अन्य सुविधाओं को भी आवश्यक बताते हुए
उनके नाम पर नकद राशि भी प्रदान की जाती है, जो आकार में बाजर-मूल्य से
कई गुणी अधिक होती हैं । जैसे एक उदाहरण देखें- आज दूरसंचार की तमाम
कम्पनियां सामान्य उपभोक्ताओं को भी महज तीन से पांच सौ रुपये मासिक पर
असीमित कॉल करने व इण्टरनेट चलाने की सेवा देने का प्रचार करती रहीं हैं,
वहीं जनता के इन माननीय सेवकों को दूरभाष-खर्च के नाम पर पन्द्रह से बीस
हजार की राशि सरकारी खजाने से दी जा रही हैं । आखिर वे ‘असीमित कॉल’ से
भी ज्यादा बातें कहां और कैसे करते हैं ? दूसरी बडी विसंगति यह देखिए कि
इनके भारी-भरकम वेतन व तमाम भत्ते प्रायः सभी प्रकार के ‘करों’ से मुक्त
हैं, जबकि देश की सीमा पर खतरनाक हालातों में सदैव तैनात रहने वाले
सैनिकों के वेतन-भत्ते आय-कर से युक्त हैं । इतना ही नहीं, कोई किसान अगर
अपने उत्पादों को किसी गाडी में लाद कर राजमार्ग से मण्डी की ओर जा रहा
हो तो उसे जगह-जगह ‘टोल-टैक्स’ देना अनिवार्य है, किन्तु इन
जनसेवकों-माननीयों का लम्बा काफिला अगर उसी मार्ग से बेवजह के भी कहीं
गुलछर्रे उडाने जा रहा हो तो उसे कोई टोलटैक्स नहीं देना होता । और तो और
सबसे बडी त्रासदी यह देखिए कि तीस-बत्तीस वर्षों तक कठिन परिस्थितियों
में भी सरकार की कडी नौकरी करने वाले कर्मचारियों को उनकी सेवानिवृति के
बाद मिलने वाले पेंशन को खतम कर दिया गया है, किन्तु कोई माननीय महोदय
महज एक साल भी किसी व्यवस्थापिका-सभा का सदस्य रह गया और उसके नाम से
पहले भूतपूर्व विधायक-सांसद शब्द जुड गया तब वह जीवन भर मृत्यु-पर्यन्त
पेंशन की मोटी राशि का अधिकारी बन जाता है । उसके इस अधिकार का औचित्य
लोकतंत्र के पण्डितों की समझ से भी परे है । इन सब कारणों से अस्वस्थ हो
कर विकृत होते जा रहे लोकतंत्र की सेहत को सुधारने के लिए जरुरी नुस्खा
यह है कि राजनीति जब निःस्वार्थ राष्ट्रसेवा है तो विधायकों सांसदों को
या तो केवल वेतन दिया जाए या मुफ्त की आवश्यक सुविधायें ; किन्तु जो भी
दिया जाये वह आय-कर की परिधि के भीतर हो । साथ ही, उन्हें क्षेत्र-विकास
निधि के नाम पर कोई फण्ड न दिया जाय और उनकी गतिविधियों को केवल विधेयक
निर्माण तक सीमित किया जाये । इतने मात्र से ही राजनीति में लोभी-लालची
लण्ठ-लम्पट अपराधी-भ्रष्टाचारी किस्म के लोगों की भरमार कम हो जाएगी ,
चुनावी टिकट की मारा-मारी एवं इस हेतु होने वाले दलबदल की आपाधापी थम
जाएगी । फिर तो सेवाभावी निःस्वार्थी राष्ट्रसेवी सज्जन सन्त-फकीर किस्म
के लोग ही राजनीति को अपनाएंगे और अवांछित लोग स्वतः इससे दूर होते
जाएंगे । पहले प्रयोग के तौर पर इन उपायों को अपना कर देखने में कोई हानि
नहीं है । जाहिर है, अभी प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं और संसद में जो
लोग हैं , वे ऐसा कतई नहीं होने देना चाहेंगे, किन्तु कडवी दवा की घूंट
तो जबरन भी पिलाना ही पडेगा और आज राजनीति के शीर्ष पर नरेन्द्र मोदी
जैसे निस्पृह व्यक्तित्व जब नीति-नियन्ता बन चुके हैं तब कदाचित यह भी
मुमकिन है ।
• मनोज ज्वाला; मई’ २०१९
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