सम्मान का गणित

0
133

respectशर्मा जी यद्यपि खुद भी वरिष्ठ नागरिक हैं, फिर भी वे बड़े-बुजुर्गों की बात का बहुत सम्मान करते हैं। अवकाश प्राप्ति के बाद सबसे पहले उन्होंने मकान की मरम्मत कराई। इसके बाद कुछ समय आराम किया; पर इस चक्कर में जहां उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, वहां घरेलू मामलों में बिना बात दखल देने से घर में भी कलह होने लगी। अंततः शर्मा जी ने उन बुजुर्गों की बात मान ली, जिन्होंने खाली दिमाग को ‘शैतान का घर’ कहा है। अतः भागदौड़ और जुगाड़बाजी से वे कई सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गये। इससे घर भी ठीक हो गया और उनका दिमाग भी। ‘एक पंथ दो काज’ की कहावत शायद ऐसे समय के लिए ही बनी है।

इन दिनों शर्मा जी दो संस्थाओं के अध्यक्ष, तीन के उपाध्यक्ष, चार के महामंत्री, पांच के मंत्री और छह के कोषाध्यक्ष हैं। सदस्यता वाली संस्थाओं की तो कोई गिनती ही नहीं है। कई संस्थाओं ने तो बिना पूछे ही उन्हें अपनी कार्यकारिणी में रख लिया है। इनमें से कुछ का अस्तित्व तो बस कागजों पर ही है। पिछले दिनों जब शर्मा जी ने अपना परिचय पत्र छपवाया, तो वह शादी के कार्ड जितना बड़ा हो गया। अतः उन्होंने सदस्यता वाली संस्थाओं के नाम हटा दिये, फिर भी वह पोस्ट कार्ड जैसा तो रह ही गया। जब वे अपना परिचय पत्र किसी को देते, तो वह उसकी लम्बाई-चौड़ाई देखकर फुरसत से पढ़ने के लिए जेब में रख लेता था।

इतनी सारी संस्थाओं से जुड़ने के कारण वे कंधे पर थैला लटकाये हर दूसरे-चौथे दिन निमन्त्रण पत्र बांटते मिल जाते हैं। किसी संस्था की साधारण सभा, तो किसी का वार्षिकोत्सव; कहीं नये अध्यक्ष का स्वागत, तो कहीं पुराने को श्रद्धांजलि। उनके थैले में कई तरह की मोहरें, संस्थाओं के लैटर पैड और चंदे वाली किताबें भी होती हैं। पहले वे निमन्त्रण पत्र देते हैं और फिर माहौल बनने पर चंदे की किताब खोल लेते हैं। अतः कई लोग तो उन्हें आता देखते ही खिसक जाते हैं। खैर, आप कुछ भी कहें; पर इस तरह शर्मा जी समय अच्छा कट रहा है।

पिछले दिनों हमारे मोहल्ले के मंदिर का वार्षिकोत्सव था। शर्मा जी मंदिर समिति के अध्यक्ष हैं। श्रीराम कथा, नगर संकीर्तन, बच्चों की प्रतियोगिताएं और भंडारे से लेकर लोगों का मान-सम्मान; पूरे सप्ताह भर का कार्यक्रम था। उत्साहित तो समिति के सब लोग थे; पर शर्मा जी की सक्रियता सबसे अधिक थी।

वार्षिकोत्सव के सभी कार्यक्रम बहुत अच्छे से सम्पन्न हुए। अब अंत में धन्यवाद ज्ञापन और मान-सम्मान होना था। शर्मा जी ने बड़ी संख्या में माला, अंगवस्त्र और स्मृति चिन्ह मंगा रखे थे। उन्होंने धन्यवाद सभा में उपस्थित अधिकांश लोगों का सम्मान कराया। खन्ना जी ने गुप्ता जी का, गुप्ता जी ने सिंह साहब का, सिंह साहब ने सिन्हा जी का, सिन्हा जी ने कपूर साहब का….; इस तरह सबने एक दूसरे का सम्मान कर अपना कर्तव्य पूरा किया। कार्यक्रम के सर्वेसर्वा होने के नाते शर्मा जी ही उसका संचालन कर रहे थे। वे एक-एक व्यक्ति को बुलाते, उसकी तारीफ के पुल बांधते, और फिर उसे सम्मानित करा देते। यहां तक कि उन्होंने मोहल्ले के चौकीदार, सफाई कर्मचारी, प्रसाद बनाने वाले हलवाई और टैंट वाले के गले में भी माला डलवाकर उनकी फोटो खिंचवा दी। बाद में सबने मिलकर शर्मा जी को भी सम्मानित किया।

वार्षिकोत्सव और उसका सारा हिसाब-किताब निबटने के बाद जब वे फुर्सत में हो गये, तो मैं उनसे मिलने गया। चाय पीते हुए इस विषय पर चर्चा होने लगी।

– शर्मा जी, वार्षिकोत्सव तो काफी सफल रहा ?

– हां भाई। सबने मिलकर काम किया, तभी ऐसा हुआ।

– लेकिन आपने सैकड़ों लोगों का सम्मान किया, ये बात कुछ हजम नहीं हुई। इससे तो सम्मान की ही गरिमा कम होती है।

– देखो वर्मा, इन्सान मान-सम्मान का भूखा तो होता ही है। इसलिए जिसने इस समारोह में थोड़ा भी योगदान दिया, हमने उसके गले में माला डलवा दी। इससे हमें तो कुछ घाटा नहीं हुआ।

– क्यों, इस सबमें काफी खर्चा हुआ होगा ?

– जी नहीं। सौ रु. का अंगवस्त्र आता है और इतने का ही स्मृति चिन्ह। जिसने ग्यारह सौ रु. दिये, उसका माला से और इससे अधिक देने वाले का अंगवस्त्र से अभिनंदन कर दिया।

– क्या हलवाई और टैंट वाले ने भी चंदा दिया था.. ?

– दिया तो नहीं था; पर सम्मान करके हमने उनके बिल में हजार रु. की कटौती तो कर दी।

– और चौकीदार, माली, सफाई कर्मचारी…..?

– सम्मान के असली अधिकारी तो ये ही हैं। इनसे तो पूरे साल काम पड़ता है। इसलिए इनका सम्मान तो होना ही चाहिए।

– लेकिन मैंने तो आपको फूटी कौड़ी नहीं दी। फिर भी.. ?

– तो क्या हुआ ? तुमने वार्षिकोत्सव की रिपोर्ट अखबारों में छपवा दी। ये भी तो योगदान ही हुआ। जहां तक चंदे की बात है, इस बार माफ कर दिया है; पर अगली बार नहीं छोड़ूंगा। 2,100 रु. अभी से निकालकर रख लो। तुम्हें भी ठीक से सम्मानित करना है।

इतना कहकर शर्मा जी अंदर से अपना सुपरिचित थैला उठा लाये। उनका उत्साह देखकर ऐसा लगा कि वे चंदे की किताब और अंगवस्त्र निकालकर कहीं मुझे यहीं सम्मानित न कर दें। इसलिए मैंने चाय अधूरी छोड़कर वहां से खिसकने में ही भलाई समझी।

व्यापारी और उद्योगपति टैक्स बचाने के लिए गणित भिड़ाते हैं। राजनेता इस बात की चिन्ता करते हैं कि चुनाव में खर्चा चाहे जितना हो; पर उसका हिसाब कानूनी सीमा से बाहर न जाए। लेकिन शर्मा जी की कृपा से चंदे का गणित आज ही मेरी समझ में आया। मैं यह भी समझ गया कि पिछले पांच साल से वे निर्विवाद रूप से कई संस्थाओं के अध्यक्ष से लेकर कोषाध्यक्ष तक क्यों बने हुए हैं ?

यहां से निबटकर शर्मा जी एक साहित्यिक संस्था द्वारा निकाली जा रही वार्षिक स्मारिका के विमोचन समारोह में व्यस्त हो गये। उसमें कई राजनेता भी आने वाले थे। उसके लिए भी उन्होंने मुझे निमन्त्रण दिया; पर मैंने वहां जाना टाल दिया, क्योंकि मेरी जेब फिलहाल एक और माला का भार सहन करने में असमर्थ थी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,708 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress