-अतुल तारे-
देशवासी अपनी आंखों का क्या करें? क्या अब इन आंखों को खुद ही फोड़ लें या फिर पिछले छह दशक से देश की आंखों में धूल, मिर्ची और न जाने क्या-क्या झोंक रहे इन माननीयों की ही ‘आंखें’ निकाल लें, तय करना मुश्किल है। आखिर कब तक? आक्रोश के लिए शब्दकोश में अब शब्द भी नहीं हैं। कारण बेशर्माई, दबंगई की सारी सीमाएं देश के कतिपय माननीय रोज लांघ रहे हैं, हर पल लांघ रहे हैं। ‘गुण्डे’ फिल्म सिर्फ सिनेमाघरों में नहीं है, दुर्भाग्य से राजनीति के मंच पर भी बेखौफ चल रही है। आज से कुछ साल पहले संसद पर हमला हुआ था। हमलावर आतंकवादी थे, अब ये अंदर से हमला करने वाले कौन हैं, इन्हें क्या नाम दिया जाए? कारण हमलावर बाहर से हों तो दो-दो हाथ किए जा सकते हैं। जो घुन समूचे तंत्र को अंदर से खोखला कर रही हो उससे कैसे निपटा जाए? किसे दोष दें आखिर देश के ये कथाकथित कर्णधार देश को किस अंधेरी सुरंग की ओर ले जाने पर आमादा हैं? कठघरे में सिर्फ वे सांसद ही नहीं हैं, जिन्होंने सारी हदें लांघ दी। कसूरवार वे अधिक हैं जिनकी गंदी घृणित राजनीति उन्हें हौंसला दे रही थी। कौन नहीं जानता कांग्रेस अपने राजनीतिक जीवन काल के सर्वाधिक संकट के दौर में है। आने वाला लोकसभा चुनाव उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। आजादी के समय से ही कांग्रेस ने अपने हितों को देश के हितों से ऊपर हमेशा प्राथमिकता दी है। देश विभाजन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। आजादी के बाद भाषा आधारित जति आधारित प्रांतों की रचना उसकी दूसरी सबसे बड़ी भूल थी जिसका खामियाजा आज तक देश भुगत रहा है। पर सत्ता के लिए डिवाइड एंड रूल की नीति कांग्रेस ने अंग्रेजों से विरासत में ली थी। तेलंगाना को लेकर उसका रवैया इसी नीति का विस्तार था। सीमांध्र के सांसदों से तेलंगाना का विरोध एवं तेलंगाना क्षेत्र के सांसदों के साथ पक्ष में खड़ा दिखाई देने की रणनीति के पीछे कांग्रेस का सोच ही यही था कि दोनों से वोटों की फसल काटी जाए। इतिहास साक्षी है कि एनडीए की सरकार के समय झारखंड बना उत्तराखंड बना और छत्तीसगढ़ बना। राज्यों में एनडीए की सरकारें नहीं थी पर यह अटलजी का ही नेतृत्व था कि तीनों स्थानों पर शांति से राज्यों का विभाजन हुआ। पर कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने तेलंगाना के मुद्दे पर जो आग लगाई है उससे सारा देश झुलस रहा है। तेलंगाना का विरोध कांग्रेस के ही अदूरदर्शी नेतृत्व का प्रतिफल है। यह विरोध सिर्फ राजनीतिक कारणों से नहीं है। सीमांध्र की ताकतवर राजनीति ने तेलंगाना की प्राकृतिक संपदा पर अकूत वैभव प्राप्त कर सीमांध्र के तमाम राजनेताओं को कुबेरपति बनाया है। वे जानते हैं कि तेलंगाना से अधिपत्य गया, तो उनका साम्राज्य खतरे में है। वहीं तेलंगाना के लिए भी यह जीवन मरण का प्रश्न है। पर एक ही राज्य में शोषण का खेल कांग्रेस आंखें मूंद कर देखती रही और अब चुनाव सिर पर हैं तो उसने एक संवेदनशील मुद्दे को चिंगारी दिखा दी है। भारतीय लोकतंत्र का विश्व में अत्यंत आदरणीय स्थान है। पर नेतृत्व की असंवेदनशीलता, अदूरदर्शिता कितने दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उपस्थित कर सकती है यह देश ने फिर देखा है। संसद हो या विधानसभा, जिला पंचायत हों या गांव की चौपाल यह स्थान स्वस्थ बहस के लिए है। गंभीर विचार-विमर्श के लिए है। पर बीते दशकों में ऐसी कई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुई हैं जो शर्मसार करती हैं। ऐसी ही घटनाएं केजरीवाल जैसे कुकुरमुत्ते नेताओं को पनपने के लिए खाद-पानी मुहैया कराती हैं जिन्हें विदेशी ताकतें अपने हितों के लिए पालती पोसती हैं। केजरीवाल एंड कम्पनी लोकतंत्र के लिए कितनी घातक है यह भी देश देख रहा है। आज मुख्यमंत्री स्वयं को अराजक बताकर न केवल पलायन कर गया है अपितु दिल्ली का नंगा नाच देश भर में करने पर उतारु हैं। अच्छा हो देश के समस्त राजनीतिक दल खासकर कांग्रेस अब भी सबक ले और ऐसी स्तरहीन दिशा विहीन राजनीति से दूर रहने की शपथ ले। कारण ऐसा करके संभव है कोई तात्कालिक लाभ मिल जाए पर ध्यान से सोचें तो वह महसूस करेगी कि देशवासी अब अपनी आंखें साफ कर चुके हैं और अब मिर्ची या धूल झोंकने से वह बचने वाली नहीं है।
इन सब घटनाओं ने सिद्ध कर दिया है कि भारतीय राजनीती केवल गुंडे, अप्रादियों का अड्डा बन कर रहगयी है.इन सब के बाद आतंकवाद का रोना रोना घड़ियाली आंसू बहन सरीखा लगता है. हमारे नेता जब ऐसे हैं तो उनके बाएं हाथ छुटभैये कम नहीं होंगे.शायद गांधी नेहरू पटेल आंबेडकर भगत सिंह व सुभाष चन्द्र ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना तो कतई न की होगी.चर्चिल ने आज़ादी का यह कह कर विरोध किया था कि भारत अभी जनतंत्र के लिए परिपक्व नहीं हुआ है, यह सच ही प्रतीत होता है.