कैसे हो प्रकृति की विनाशकारी लीलाओं से बचाव?

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कुछ समय पूर्व पूरे विश्व की निगाहें कोपनहेगन में हुए उस विश्वस्तरीय सम्मेलन पर लगी थीं जोकि दुनिया में बढ़ती जा रही ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के उपायों पर चर्चा करने हेतु बुलाया गया था। परंतु जैसी कि सम्मेलन से पूर्व ही उम्मीद की जा रही थी उसी के अनुसार कोपनहेगन वार्ता लगभग बेनतीजा रही। लगभग सभी देश एक दूसरे को ग्लोबल वार्मिंग में होती जा रही बढ़ोत्तरी का जिम्मेदार ठहराते रहे। आरोप-प्रत्यारोप की यह स्थिति तो सम्मेलन में भाग लेने वाले राष्ट्र प्रमुखों व राष्ट्र प्रतिनिधियों के मध्य चल रही थी। परंतु सम्मेलन स्थल के बाहर पूरे विश्व से अपने खर्च पर तमाम कष्ट उठाकर कोपनहेगन पहुंचे अनेकों पर्यावरणविद् व पर्यावरण प्रेमी लगातार इस बात को लेकर प्रदर्शन करते रहे कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार देश विकास, प्रगति तथा उर्जा उत्पादन आदि के नाम पर धरती को गर्म करने से बाज़ आएं। यह प्रदर्शनकारी तथा ग़ैर सरकारी संगठनों से जुड़े पर्यावरण प्रेमी अपने साथ ऐसे तमाम उपायों की लंबी सूची लेकर आए थे जिनपर अमल कर मध्य मार्ग के ऐसे उपाय किए जा सकते थे जिनसे कि देशों का विकास भी प्रभावित न हो, उनकी उर्जा संबंधी जरूरतें भी पूरी हों तथा धरती को गर्म होने से भी बचाया जा सके। परंतु दुर्भाग्यवश उन प्रदर्शनकारियों की हैसियत नक्कारख़ाने में तूती की आवाज मात्र थी। फैसले तो दरअसल वही लिए जाते हैं जोकि शासकीय अथवा राजकीय स्तर पर शामिल होने वाले नेताओं या अधिकारियों द्वारा निर्धारित किए गए हों।

ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ हमारी पृथ्वी भूकंप जैसे महाविनाश से भी प्राय:जूझती रहती है। प्रत्येक वर्ष दुनिया के किसी न किसी कोने से भूकंप की घटनाओं के दो तीन समाचार अवश्य मिल जाते हैं। गत् 13 जनवरी को उत्तर अमेरिकी महाद्वीप के कैरेबियाई क्षेत्र के एक छोटे से देश हेती की राजधानी पोर्ट आंफ प्रिंस में 7.3 क्षमता का भयानक भूकंप आया था। इस महाविनाश कारी भूकंप की गहराई का केंद्र पृथ्वी के भीतर मात्र 13 किलोमीटर की दूरी पर केंद्रित बताया जा रहा था। इस भूकंप के परिणामस्वरूप पूरा का पूरा हेती शहर तबाह हो गया था। हेती की तबाही का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां की सरकार, शासन व प्रशासन सब कुछ पूरी तरह अस्त व्यस्त तथा भूकंप से स्वत: प्रभावित था। इसलिए अमेरिकी राहत कर्मियों को राहत कार्यों की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेनी पड़ी थी। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यहां चलने वाले राहत अभियान को अमेरिका द्वारा चलाया जाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा राहत अभियान बताया था। बहरहाल अभी तक हेती वासी अपना सामान्य जीवन नहीं शुरु कर पाए हैं। सारी दुनिया से हेती वासियों को सहायता पहुंचाए जाने का सिलसिला जारी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी हेती को 10 अरब डॉलर की सहायता देने कीघोषणा की है। हेती के इस भूकंप के कुछ ही समय बाद चिल्ली में भी एक और विनाशकारी भूकंप आया। हेती में जहां लाखों लोगों के मरने व बेघर होने का समाचार था वहीं चिल्ली में भी हज़ारों लोग मारे गए तथा बेघर हुए।

प्रश्न यह है कि उपरोक्त तथा इन जैसे भूकंप की पूर्व सूचना प्राप्त करने के लिए तथा इससे होने वाले जान व माल के नुंकसान को कम से कम करने हेतु दुनिया के प्रगतिशील देश आंखिर क्या उपाय कर रहे हैं। लगभग पूरी दुनिया में विज्ञान उन क्षेत्रों की पहचान कर  चुकी है जो क्षेत्र कभी भी भूकंप की चपेट में आ सकते हैं। इस जानकारी के हासिल हो जाने के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि सरकारी तौर पर भूकंप से होने वाले नुंकसान से बचाव हेतु कुछ विशेष किया जा रहा हो। हां यदि धरती के अध्ययन के विषय में ताजातरीन कोई समाचार प्राप्त हो रहा है तो वह है स्विटजरलैंड में जेनेवा के समीप 27 किलोमीटर लंबी भूमिगत सुरंग में किए गए महाप्रयोग का समाचार। 25 वर्षों में वैज्ञानिकों द्वारा की गई अथाह मेहनत के परिणामस्वरूप तैयार हुई इस मशीन की अनुमानित लागत 10 अरब डॉलर बताई जा रही है। हमारे वैज्ञानिक दुनिया के इस सबसे बड़े प्रयोग के माध्यम से यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि

ब्राह्मांड की उत्पति आंखिर कैसे हुई। 14 अरब वर्ष पूर्व बिग बैंग से उत्पन्न हुए ब्रह्मांडों का आंखिर रहस्य क्या है। परंतु इतने खर्चीले तथा इतना अधिक समय लगाने वाली इस महायोजना के समक्ष ऐसा कोई प्रश्न नहीं है जिनसे मनुष्य को यह पता चल सके कि धरती में अगला भूकंप कब और कहां आएगा तथा उसकी संभावित तीव्रता क्या होगी। भूगर्भ विज्ञान में दिलचस्पी रखने वाले कुछ विशेषज्ञों की राय है कि महामशीन जैसे ख़तरा मोल लेने वाले प्रयोगों से बेहतर तो यही था कि  इसी या इससे भी कम ख़र्च में वैज्ञानिक भूगर्भीय हालात का गहन अध्ययन करने का प्रयास करते। जिससे मनुष्य को भविष्य के ख़तरों से सचेत किया जा सकता तथा उनकी जान व माल की क्षति को भी सीमित किया जा सकता।

परंतु बड़े दुर्भाग्य की बात है कि दुनिया की सक्षम सरकारें तथा राजकीय स्तर पर योजनाएं व महायोजनाएं संचालित करने वाले वैज्ञानिक प्राय:उन्हीं योजनाओं पर कार्य कर रहे हैं जो उनके लिए निर्धारित की गई हैं। जबकि ठीक इसके विपरीत दुनिया में तमाम ऐसे ग़ैर सरकारी संगठन तथा निजी स्तर पर तमाम लोग ऐसे सक्रिय हैं जो समय-समय पर अपनी सीमाओं के अनुसार अपने रायों व अपने-अपने देशों की सरकारों को समय-समय पर ऐसी सलाह देते रहते हैं जो कि प्रकृति तथा मानव कल्याण से जुड़ी हो। इस संबंध में आज मैं यहां भारत के हिमाचल प्रदेश राय के सत्तर वर्षीय एक ऐसे समाजसेवी वैज्ञानिक का उल्लेख करने जा रहा हूं जिसने अपना लगभग पूरा जीवन पर्यावरण की रक्षा,वन्य जीव संरक्षण, पर्यावरण की दिशा में किए जाने वाले सकारात्मक कार्यों तथा सामाजिक सरोकारों के मध्य व्यतीत कर दिया। हिमाचल प्रदेश राय के हमीरपुर में 1940 में जन्मे आचार्य रतन लाल वर्मा को उनके द्वारा निजी स्तरपर किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा 22 बार सम्मानित किया जा चुका है। 70 वर्ष की आयु में भी वे आज भी पर्यावरण की रक्षा, प्राकृतिक सौंदर्य की रक्षा व रख रखाव तथा वन्य जीव समाज के संरक्षण व उत्थान के लिए पूर्णतया सक्रिय व समर्पित हैं।

आचार्य रतन लाल वर्मा चूंकि स्वयं पहाड़ी क्षेत्र में पैदा हुए अत:उन्हें पहाड़ी क्षेत्र की संवेदनशीलता, प्राकृतिक सौंदर्य, उसका रख-रखाव तथा इसकी रक्षा आदि के बारे में गहरी रुचि तथा जानकारी है। वे अपने इसी अनुभव के आधार पर प्राय:अपने राय तथा केंद्र सरकार को समय-समय पर पत्र लिखकर समाचार पत्रों में अपने लेख व साक्षात्कार के माध्यम से तथा पर्यावरण व प्रकृति के संबंध में होने वाले सेमिनार में अपने धरातलीय विचार प्रस्तुत कर सरकार तथा जनता को जागरुक करने का काम करते चले आ रहे हैं। भारत का हिमाचल प्रदेश राय भूकंपीय दृष्टि से संवेदनशील जोन संख्या 4 व 5 के अंतर्गत आता है। इस खतरनाक सच्चाई को जानने के बावजूद हिमाचल प्रदेश में संभावित भूकंप के बचाव के कोई विशेष उपाए नहीं अपनाए जा रहे हैं। आचार्य वर्मा ने इस विषय को लेकर गत् कई वर्षों से एक लंबी मुहिम छेड़ रखी है। वर्मा का मानना है कि जनता के सहयोग तथा सरकार द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों के मध्य ऐसे उपाय सुनिश्चित हो जाने चाहिए ताकि भूकंप आने के बावजूद जान व माल की क्षति कम सेकम हो। अर्थात् ऐसी योजनाएं बनें तथा कार्यान्वित हों जिससे नुंकसान की संभावना कम से कम हो। वर्मा का कथन है कि हिमाचल प्रदेश के संवेदनशील जोन में होने कीवास्तविकता को नार अंदाज करते हुए राय के धनाढय लोगों द्वारा बहुमंजिली इमारतों का निर्माण कार्य जारी है। उनके अनुसार बहुमंजिले निर्माण दरअसल आवश्यकताओं के अनुसार तो कम किए जाते हैं जबकि ऐसे निर्माण के पीछे असली मकसद या तो व्यवसायिक होता है या फिर अपनी आर्थिक सामर्थ्य का प्रदर्शन करना।

भवन निर्माण नीति को लेकर वर्मा गत् कई वर्षों से संघर्षशील रहे हैं। उनकी सक्रियता तथा सरकार पर उनके द्वारा बार-बार दबाव डालने का परिणाम भी कांफी हद तक सामने आने लगा है। वर्मा ने हिमाचल प्रदेश की भूगर्भीय धरातलीय विशेषताएं तथा वहां होने वाले तथाकथित विकास अर्थात् बेढंगे बहुजन प्राणघातक निर्माण के विषय में हिमाचल सरकार को इस बात के लिए राजी कर लिया है कि सरकार भवन निर्माण के नए मानदंड लागू करे तथा इस संबंध में बने पुराने कानूनों को संशोधित किया जाए। वर्मा के प्रयासों से ही हिमाचल प्रदेश नगर एवं ग्राम योजना अधिनियम 1977 में संशोधन कर एक नई धारा 31-ए जोड़ी गई है। जिसके अनुसार किसी भी भवन को उपयोग में लाने से पहले आवेदक भवन की स्थिर संरचना का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करेगा। वर्मा का हिमाचल सरकार पर इस बात के लिए भी लगातार दबाव बना हुआ है कि चूंकि अंधाधुंध बहुमंािले निर्माण के परिणामस्वरूप न केवल भूकंपीय स्थिति में जान व माल का नुंकसान अधिक से अधिक होने की संभावना को बल मिल रहा है। बल्कि इससे हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल की प्राकृतिक सुंदरता, उसकी रमणीयता, सांस्कृतिक समृद्धि तथा सामाजिक पर्यावरणीय शांति को भी जबरदस्त ग्रहण लग रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि उपभोक्ता वाद तथा शहरीकरण की अंधी दौड़ में आवश्यकता से अधिक प्राणघातक निर्माण किए जा रहे हैं।

निश्चित रूप से रतन लाल वर्मा तथा इन जैसे समर्पित पर्यावरणविद् समाज व प्रकृति को मिली एक ईश्वरीय सौंगात ही माने जा सकते हैं। क्योंकि आज के  स्वार्थी व लोभी संसार में किसे इतनी फुर्सत है कि वह अपना तन, मन, धन सब कुछ दांव पर लगा कर जनता, पर्यावरण तथा प्रकृति की रक्षा के लिए स्वयं को समर्पित कर दे। परंतु इसी के साथ-साथ एक और प्रश्न यह भी उठता है कि क्या अकेले रतन लाल वर्मा या इस पृथ्वी पर सक्रिय इन जैसे चंद लोग पृथ्वी व पर्यावरण की रक्षा कर पाने में तथा इस संबंध में अपनी योजनाएं बनाने के लिए कांफी हैं। शायद बिल्कुल नहीं, लिहाजा जरूरत इस बात की है कि सरकारों, सरकारी तंत्रों तथा पेशेवर वैज्ञानिकों का मुंह देखने के बजाए इस पृथ्वी पर रहने वाले वर्मा जैसे समस्त वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों को अपनी धरती की रक्षा हेतु सक्रिय हो उठना चाहिए तथा अपनी सामर्थ्य व ज्ञान के अनुसार समय-समय पर पर्यावरण के सरकारी ठेकेदारों को झकझोरते व सचेत करते रहना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर गैर सरकारी संगठनों तक की यह जिम्मेदारी है कि वे ऐसे समर्पित लोगों को समय-समय पर प्रोत्साहित भी करें ताकि अन्य स्वयं सेवी लोगों की भी हौसला अफजाई हो सके।

-तनवीर जाफरी


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