वाक भेद के विकार को समझना भी आवश्यक है। तनिक निम्नलिखित शब्दों पर दृष्टिपात करें कि ये किस प्रकार वाक भेद के कारण विकार ग्रस्त हो गये हैं :-
शुद्घ शब्द अशुद्घ शब्द
विभीत्सा भेदना
वायुरोग बाय रोग
ज्वरी जुरी-थकान
वन्ध्या बधिया, बांझ स्त्री
जिह्वा जिभ्या
बुभुक्षा भूख
भित्ति भीत
मृत्तिका मिट्टी
अस्त-व्यस्त ऐशी तैशी
ढांचा ढसरा
वत्स बछड़ा
वंशी अंशी
बाह्य बाहरी
वणिज बणजारा-बंजारा- व्यापारी
मस्तक माथा
मक्षि मक्खी
वर्तमान बरतना
आलप आला
वपिल: बाप, बापू
इन शब्दों में शुद्घ शब्दों को देखने की आवश्यकता है कि किस प्रकार ये शब्द अशुद्घ बना दिये गये और आज हममें से अधिकांश लोग अशुद्घ शब्दों को बोलकर ही ये सोच लेते हैं कि हमने शुद्घ शब्दों का प्रयोग किया है। इसी से ये भ्रांति फैलती है कि भाषा में परिवर्तन आता रहता है और भाषा में नये नये शब्द जुड़ते रहते हैं। क्या उच्छिष्ट भोजन को कभी नया भोजन या भोजन में होने वाला परिवर्तन माना जा सकता है? कदापि नही। इसके उपरांत भी यूरोपीयन विचारकों का मानना है कि When a language lives it changes. It changes in society अर्थात सजीव भाषा परिवर्त्तित होती है और यह परिवर्तन समाज में ही होता है।
परंतु भारतीय मत की प्रतिनिधि महर्षि पतंजलि की टिप्पणी है। उनका मानना है-शिष्ट व्यवहार में आदि भाषा स्थिर रही। पर साधारण ज्ञान के लोगों में भाषा में परिवर्तन हुआ और होता रहता है। यथा शिष्टों में संस्कृत सदा एकरस रही, पर साधारण पुरूषों के व्यवहार में इसमें परिवर्तन हुआ और असाधु पद उत्पन्न हुए। तत्पश्चात प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाएं (बोलियां) क्रमश: अस्तित्व में आयीं। शिष्ट लोगों का प्रदेश गंगा और यमुना के मध्य में था।
महर्षि पतंजलि सर्वथा सही कह रहे हैं। ज्ञानरस तो कपूर है, उसे विद्याभ्यास से सुरक्षित रखोगे और निरंतर उसे सत्यरूप में प्रसारित करोगे तो वह उड़ेगा नही और यदि उसे खुला छोड़ोगे, उसकी सुरक्षा नही करोगे-तो वह उड़ जाएगा। वेदवाणी उन उन स्थानों पर अक्षुण्ण रही जहां जहां विद्वानों का प्राबल्य रहा और जहां जहां से विद्वानों का प्राबल्य समाप्त होता चला गया वहां वहां अविद्या का अंधकार फैल गया। इस प्रकार नई भाषाएं बोलियों के रूप में बनीं तो अवश्य परंतु यह ज्ञान का विस्तार नही अपितु संकोचन था। संकोचन को उत्कृष्ट ज्ञान मानना तो अपनी अज्ञानता का और भी निकृष्ट प्रदर्शन करना होगा।
अब विचारणीय बात ये है कि भाषा में परिवर्तन आता किस प्रकार है? इसके कई कारण हो सकते हैं। सर्वप्रथम शारीरिक कारणों पर विचार करते हैं। शारीरिक कारणों में उच्चारण के लिए मुंह व ओष्ठों की आकृति पर विचार किया जाता है। भारतीय भाषाविदों की मान्यता रही है कि:-
न करालो न लम्बोष्ठों नाव्यक्तो नानुनासिक:।
गदगदो बद्घजिहश्च न वर्णान वक्तुमर्हति।।
अर्थात न तो भयानक बहुत खुले चौड़े मुंह वाला अथवा बाहर निकले हुए दांतों वाला, न ही लंबे होठों वाला, न ही अस्पष्ट बोलने बाला, न ही नासिका से उच्चारण करने वाला, न ही घर्घर स्वर वाला और बंधी हुई जिह्वा वाला व्यक्ति वर्णों को ठीक उच्चारण नही कर सकता। ऐसे लोगों से भाषा दोष शीघ्रता से फैलता है। विकार विकार से फैलता है-उससे शांत कभी नही हो सकता। जिनका वाद्ययंत्र ही दोषपूर्ण हो, वो गायक या उपदेशक अपने श्रोताओं को कभी भी मंत्रमुग्ध नही कर सकता। मनुष्य के शरीर में स्वर, कण्ठ, मुंह जैसे अवयव एक वाद्ययंत्र ही हैं। भाष का हृदयग्राही और भावपूर्ण होना इस वाद्ययंत्र पर अधिक निर्भर करता है।
दूसरा कारण
शुद्घ अशुद्घ शब्दों की उपरोक्त तालिका के देखने से स्पष्टï होता है कि कई बार शब्दों का अशुद्घ उच्चारण व्यक्ति की अज्ञानता जनित संस्कार हीनता का परिणाम भी होते हैं। जिनसे शब्दों का भावार्थ तक भी परिवर्तित हो जाता है। जैसे संस्कृत के ज्मा शब्द का फारसी में जमीन शब्द बन गया है। इसी प्रकार युक्ति का जुगती और जुगती का जुगाड़ शब्द बन गया है। ऐसे शब्दों को भारतीय भाषाविदों ने दुष्ट शब्द की संज्ञा दी है। क्योंकि ये शब्द अवैज्ञानिक और अवैयाकरिणक होते हैं। अपने यौगिक स्वरूप और भाव को छुपाते हैं तथा कोई नया स्वरूप धारण कर पाठकों को छलते हैं। इसलिए हमारा मानना है कि दुष्ट शब्द प्रचलन में चाहे आ जाएं पर वे किसी नई भाषा को जन्म नही दे सकते। संस्कृत का रयीणाम्-रयि शब्द (स्याम पतयो रयीणाम्) विकृत दुष्ट होकर रईस हो गया है और यही शब्द प्रचलन में है। यदि यह शब्द अपने वास्तविक स्वरूप में उच्चारित किया जाए तो कितना प्यारा शब्द है।
संस्कृत में बक: बगुला के लिए कहा जाता है। बगुला एक ठग, धूर्त और पाखण्डी प्राणी माना जाता है, वह अपने पंजों में दूसरों को फंसा लेता है। बगुला भक्ति बड़ी प्रसिद्घ है। संस्कृत में वाद वचन, भाषण, विचार के लिए कहा जाता है। अब शब्द बक और वाद को मिलाकर बना-बकवाद। निश्चय ही ये शब्द उन्हीं लोगों के लिए प्रयुक्त होता है जो बगुला भक्ति के लिए जाने जाते हैं और जिनका आचरण, भ्रष्ट होता है या जिनकी कथनी व करनी में अंतर होता है। परंतु व्यवहार में बकवाद का बकवास शब्द भी प्रचलित है। निश्चय ही यह दुष्ट शब्द है। जिसने भाषा को भी विकृत किया है। अत: यह मानना नितांत भ्रामक है कि भाषा का विकास होता रहता है, अपितु यह कहा जाना चाहिए कि वास्तविक मानवीय देवभाषा संस्कृत का हस हुआ है। भाषा के विषय में यह दुखद सत्य है कि हम विकास से पतन की ओर बढ़े हैं और भ्रामक भाषाई सिद्घांतों के चलते बढ़ते ही जा रहे हैं।
अज्ञानता जनित कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण कुतीर्थ से अध्ययन कराना है। कहीं कहीं अशिक्षित गुरू (कुतीर्थ) से भी लोगों को अध्ययन लेना पड़ जाता है। महाभारत युद्घ में विद्वानों का बड़ी संख्या में अंत हो गया था तो वेद विरूद्घ मत रखने वाले कुतीर्थों की देश में बाढ़ सी आ गयी थी। आदि शंकराचार्य जी ने इस बाढ़ को रोकने का अथक परिश्रम किया और वह इसमें सफल भी हुए। परंतु कुछ काल पश्चात ही फिर वेद विरूद्घ आंधी चली और शंकराचार्य जी के शिष्य ही पुन: अविद्या अंधकार में फंस गये। संस्कृतियों का यह उत्थान पतन का क्रम हमें बताता है कि समाज में कहीं न कहीं कुतीर्थों के द्वारा शिक्षा दी जा रही है या कहिए कि अपात्रों का सम्मान हो रहा है और सुपात्रों का अपमान हो रहा है।
ऐसे कुतीर्थों के मुंह से जो कुछ शब्द आते या निकलते हैं उन्हें उनके शिष्य रामबाण समझकर प्रयोग करते हैं। ऐसे कुतीर्थों ने ही समाज में गुप्त रूप से मंत्र देने की परंपरा चलाई। क्योंकि वेदमंत्रों के रूप में मंत्र तो हमारे पास पूर्व से ही थे, परंतु वे मंत्र तो गुरूजी को याद नही थे इसलिए अपने पास से गढ़ा हुआ मंत्र दे दिया और कह दिया कि इसे किसी को बताना मत। क्योंकि बताने से गुरूजी की व्याकरण संबंधी अज्ञानता साफ झलकने का डर था। जबकि मंत्र में तो गूढ़ विचार का सार छिपा होता है, वह विचार का दोहन (दोहा) करके बना होता है, जिससे सर्वकल्याण होता है, इसलिए मंत्र छिपाने की वस्तु है ही नही। परंतु क्योंकि गुरूजी का मंत्र वेदमंत्रों की अपेक्षा रसहीन भारहीन और सारहीन है, इसलिए भलाई इसी में है कि वह बताया ना जाए।
आजकल एक शब्द चला है झण्ड करना। यह शब्द अपेक्षाकृत गरिमाहीन है, परंतु इसे पढ़े लिखे कुतीर्थ भी प्रयोग करते हैं। यह शब्द झुण्ड का विकृत स्वरूप है, जिसका अर्थ होता है बिना तने का वृक्ष-रीढ़ विहीन-तीसरा अर्थ इसका बनेगा किसी को निरूत्तर कर देना। अब अच्छी बात तो ये है कि किसी को निरूत्तर कर देने के लिए गरिमाहीन झण्ड शब्द का प्रयोग ना किया जाए, परंतु हो रहा है। इसलिए पाणिनी ने (पाणिनी शिक्षा 25, 26) सुतीर्थ से शिक्षा दिलाने की अनुशंसा और प्रशंसा की है।
तीसरा कारण
तीसरे कारण में मानसिक अवस्था की अन्यमनस्क होने की स्थिति आती है, इसे प्रमाद भी कह सकते हैं। ऐतरेय ब्राहमण में इसे दृप्त वाक कहा जाता है। कई बार वक्ता असावधानी वश या प्रमादवश ऐसे शब्दों का प्रयोग कर जाते हैं जो वहां प्रयोग किये ही नही जाने चाहिए थे।
कई बार लोग सही शब्दों को जानते हुए भी उन्हें बिगाड़कर प्रयोग करते हैं।
भारत में लार्ड साहब (अंग्रेजी काल में प्रचलित) को ‘लाटसाब’ कहने की परंपरा अब तक है। पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि शब्द क्या है, परंतु फिर भी ‘लाटसाब’ ही बोलते हैं। कई बार माता पिता अपने बच्चों से प्यार करते हुए शब्दों को बिगाड़कर बोलते हैं। इस प्रकार के विकार को संस्कृत में सदृच्छा कहा जाता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने इन शब्दों को यदृच्छा की संज्ञा दी है। पंडित भगवतदत्त जी कहते हैं कि इन कारणों से उत्पन्न अपशब्दों का जब शिक्षणमाण बालक अनुकरण करते हैं और माता पिता आदि उस पर ध्यान नही देते तब नई पीढ़ी में उन अपशब्दों की परंपरा चल पड़ती है। शनै: शनै: परिवर्तन होते हुए कुछ शतियों में भाषा में इतना भेद और हो पतन हो जाता है कि वह उपभाषा बन जाती है।
भारत की सारी भाषाएं इसी प्रकार बनी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में 1642 बोलियां थीं जो स्वयं को अलग अलग भाषा बताने का दावा कर रही थीं। बड़ी कठिनाई से उन सबकी छंटनी की गयी और हिंदी को वरीयता दी गयी।
लिपिदोष
संसार की ऐसी बहुत सी भाषाएं हैं जिनके पास पर्याप्त वर्ण उपलब्ध नही हैं। वास्तव में तो संस्कृत से भिन्न अन्य सारी भाषाओं के पास वर्णों की पर्याप्त संख्या नही है। इसलिए एक भाषा का शब्द जब दूसरी भाषा में लिखा जाता है तो सामान्यतया दूसरी भाषा के बोलने वाले उस शब्द का उच्चारण दोषपूर्ण ढंग से करते हैं। राजीव गांधी के समय में रूस के राष्ट्रपति गोर्बाच्योब दिल्ली आऐ थे तो उन्होंने देश की संसद को संबोधित किया था तब वह अपने भाषण में राजीव गांधी के लिए रजीव गांजी बोलते थे। इसी प्रकार गोर्बाच्योव को हमारे समाचार पत्रों में कहीं गोर्बाच्योफ लिखा होता था तो कहीं गोर्बाच्यौव लिखा होता था, तो कहीं गोर्बाच्यौफ और कहीं गौर्बाचौफ लिखा गया था। यह लिपिदोष था।
लिपि के लिए संस्कृत ने 63 वर्णो की अपनी लिपि बनायी जिसके प्रत्येक वर्ण का अपना वैज्ञानिक महत्व है। हमारे वर्णों की संख्या में 36 का आंकड़ा नही है अपितु 63 का आंकड़ा है जो सुरी प्रवृत्ति को प्रकट करता है।hindi
देवभाषा में ही देवत्व का आंकड़ा समाहित हो सकता था, क्योंकि उसे देव संस्कृति का समन्वय और सामंजस्य का निर्माण जो करना था। उसे संस्कार देने थे और क्षुद्र स्वार्थों को निकालना था।
क्रमश:
राकेश कुमार आर्य