और कितने आतंकवादी हमले सहेगा भारत?

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नरेश भारतीय

भारत में आतंकवादी धमाकों का दौर फिर से शुरू हो गया है. महानगरी मुम्बई जो अभी २००८ के धमाकों की गूंज और विनाशलीला को भुला नहीं सकी है उस पर इन ताजा हमलों से प्रकटत: उन्हीं तत्वों द्वारा पुनरपि यह सन्देश भारत को दिया गया है कि उनकी तरफ से लड़ाई रुकी नहीं है.

कौन हैं ये लोग? क्या चाहते हैं? किस से चाहते हैं? और क्यों चाहते हैं? उनके पीछे कौन खड़ा है? यही सब घिसे पिटे प्रश्न, जब कभी ऐसी घटनाएँ होती हैं, पूछे जाते हैं और हर बार मिलने वाले प्रमाण एक जैसे जवाब ही देते हैं. हर बार भारत बहसों के तूफ़ान के बाद चुप हो कर बैठ जाता है. इसका जवाब अब देश की उस सरकार से अपेक्षित है जो इस निरंतर उलझती समस्या का समाधान ढूँढने की बजाए देश के अंदर अपनी सत्ता राजनीति का खेल खेलने में अधिक व्यस्त नज़र आती है. जाने अनजाने देश के समाज को विभाजित करके अल्पसंख्यवाद का घृणित खेल खेल कर वोट बटोरक अभियान में जुटी है. देश के हिंदू समाज को आतंकवादी कह कर जैसा भ्रमपूर्ण वातावरण निर्माण करने का प्रयास कुछ समय से हुआ है उससे कांग्रेस को कितना लाभ हुआ है वही जाने लेकिन इतना अवश्य हुआ है कि कट्टरपन्थी इस्लामी आतंकवाद को भारत में और खुल खेलने का अवसर अवश्य मिला है. भारत उस पाकिस्तान के आगे घुटने टेकता और शांति वार्ताओं के आयोजन की पहल करता दिखाई देता रहा है और पाकिस्तान पीठ पीछे उसे अनवरत पृथकतावाद और विध्वंस की राह पर धकेलता आया है.

भारत का तथाकथित उदारपंथ और अमरीका के दबाव में आकर पाकिस्तान के विरुद्ध कोई भी सीधी कार्रवाई न कर सकना उसकी अन्तर्निहित शक्तिहीनता का सन्देश ही देश की जनता और शेष विश्व को देता आया है. अमरीका और ब्रिटेन भारत की सहनशक्ति और संयम की तारीफ करके अपने स्वार्थ की पूर्ति में प्रत्नशील रहे हैं. हाल के वर्षों में उनका स्वार्थ मुख्य रूप से रहा है पाकिस्तान के रास्ते और उसकी सहायता से अफगानिस्तान में अपनी पैठ मजबूत करना और उस आतंकवाद से लड़ना जिसे वे पश्चिम के लिए खतरा मानते हैं. पाकिस्तान भारत के लिए खतरा है और आतंकवाद के भारत में प्रसार के लिए जिम्मेदार है यह जानते हुए भी यह उनके लिए कोई मुद्दा नहीं रहा है.

मुम्बई में हुए इन नए हमलों से भारत को फिर ललकारा गया है और यदि इस बार भी भारत, ये प्रमाण मिलने पर भी कि पाकिस्तान ने ही पूर्ववत यह घिनौना और अमानवीय खूनी खेल खेला है, कोई ठोस कदम नहीं उठाता तो यह उसकी उदारवादिता नहीं अपितु कायरता का सबूत ही देश की जनता और शेष विश्व के समक्ष प्रस्तुत होगा. किसी से नहीं छुपा है कि यह लड़ाई वस्तुत: एक असफल, असंतुष्ट और दिशाहीन देश पाकिस्तान की भारत के विरुद्ध उसकी एतिहासिक नफरत की लड़ाई है. सभी जानते हैं कि उसे पश्चिमी ताकतों द्वारा अभयदान दिया जाता रहा है. भले ही कुछ विश्लेषकों का अब यह मत बना हो कि अमरीका द्वारा ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में ही ढूँढ निकालने और मार देने के बाद से पश्चिम और पाकिस्तान के बरसों से चले आ रहे गठबंधन के तार ढीले हुए हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई अभी भी यही है कि पाकिस्तान बखूबी यह जानता है कि उसे गिरने नहीं दिया जाएगा. वह जानता है कि अमरीका और ब्रिटेन अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसके जीवनदाता बने रहेंगे. पाकिस्तान की प्रवंचक रीति नीति की अच्छी खासी जानकारी होने के बावजूद अमरीका ने जब कभी उसे आँखें दिखाने की हिमाकत की है पाकिस्तान ने तुरंत पैंतरा बदला है. अमरीका की धमकी के आगे वह कभी भी झुका नहीं. पलक झपकते ही अपने क्षत्रीय मित्र देश चीन को सामने ला खड़ा करता है, क्योंकि, अमरीका की क्षेत्रीय रणनीति की संवेदनशीलता को पाकिस्तान भलीभांति जानता है. इसीलिए उसके लिए बनी हुई अपनी उपयोगिता की कीमत वसूलने से वह कभी चूका नहीं. पश्चिम को अभी उसकी आवश्यकता है. लेकिन भारत के पास सिवा इसके और कोई विकल्प अब नहीं बचा है कि अपने नागरिकों की पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से रक्षा के लिए और देश को और बर्बादी से बचाने के लिए वह अब सीधी कारवाई करने का साहस दिखाए.

भारत को सताते रहने के लिए पाकिस्तान ने कश्मीर को १९४७ से ही एक मुद्दा बनाने की चेष्ठा की है. तब भारत के द्वारा की गयी भूल के कारण कश्मीर के जिस हिस्से पर उसने अवैध अधिकार अब तक जमा रखा है उसका कुछ अंश चीन को भेंट करके उसने उसे लुभा रखा है. समूचे कश्मीर को हथियाने के अपने सपने को साकार करना उसकी सोची समझी गयी ऐसी रणनीति है जिससे वह समझाता है कि उसका अस्तित्व बना रह सकता है. जिहाद के नाम पर कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों को अपना मुखास्त्र बना कर और बरसों से भारत विरोधी विध्वंस की व्यूह रचना वह इसी उद्देश्य से करता है. भारत में आतंकवादी हमलों को वह भारत की आतंरिक समस्या कह कर अपना पल्ला झाड़ लेता है.

यह सच्चाई सर्वविदित है कि भारत में हाल के वर्षों में जितने आतंकवादी हमले हुए हैं मुख्य रूप से पाकिस्तान प्रायोजित, या प्रोत्साहित और उसके समर्थन-सहायता से हुए हैं. इस पर भी भारत का दुर्भाग्य यह है कि वह हर बार उसी भूल को दोहराता है और थोडा बहुत शोर मचा कर अपनी जनता को शांत कर लेता है. अब तो पाकिस्तान को ऑंखें दिखाना तक भूल गया है. भारत में कहीं भी हमले होते हैं. उनमें भी निर्दोष, निरपराध भारतीय नागरिक हताहत होते हैं. बस होता यही है कि सबसे पहले अमरीका और ब्रिटेन भारत को सहानुभूति सन्देश भेजते हैं. हमलों की निंदा के कुछ शब्द कह देते हैं. भारत को सहायता देने का आश्वासन देते हैं. भारत के नेता घटनाओं की जांच के आदेश जारी कर देते हैं और बयानबाजी में व्यस्त हो जाते हैं. तब भारत के अंदर दलीय आरोपों प्रत्यारोपों का क्रम शुरू हो जाता है. अंतत: इन आतंकवादी घटनाओं से पीड़ित परिवार-परिजनों के लिए मुआवजों की घोषणा हो जाती है. शीर्षस्थ नेताओं के द्वारा लोगों से शांति बनाए रखने के अनुरोध किए जाते हैं. समाचार माध्यम गरमाता है. पूर्व घटनाचक्र के फिर से चर्चे होते हैं. पाकिस्तान हमेशा की तरह होशियारी दिखाता है. सहानुभूति जतलाता है. ऊपर से आतंकवादकी निंदा करता दिखाई देता है लेकिन साथ ही बहुधा भारत में आतंकवाद को उसका आंतरिक मसला बता कर या फिर भारत में कश्मीरियों की आजादी के लिए लड़ाई बतला कर अपने हाथ धो लेता है. कब तक चलता रहेगा ये सब?

पिछले मुम्बई धमाकों का एक दोषी आतंकवादी कसाब पकड़ा जाता है और अदालत के द्वारा अपराधी पाया जा कर सज़ा का हकदार माना जाता है, लेकिन फिर भी जीता रहता है. भारत के संसद भवन पर किए गए आतंकवादी हमले का अपराधी जिसे फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है उसे फांसी नहीं दी जाती. क्यों? भारत में आतंकवाद प्रतिरोधक क्षमता होते हुए भी उसका यदि प्रभावी ढंग से इस्तेमाल नहीं करती उसकी सरकार, न्यायपालिका द्वारा अपना कर्तव्य निर्वहन कर देने के बाद भी यदि कार्यपालिका अपना कर्तव्य निभाने में आनाकानी करती है तो देश के लोगों का यह हक बनता है कि उससे जवाब मांगे. परन्तु इसके साथ ही भारत की जनता को यह भी समझ लेना चाहिए कि यदि आतंकवाद के विरुद्ध उसे प्रभावी लड़ाई लड़ना है तो उसे अपने राजनेताओं को विवश करना होगा कि वे अपने दलगत हानिलाभ से ऊपर उठ कर राष्ट्रहित सर्वोपरि रणनीति अपना कर इस गंभीर चुनौती का सामना करने का अपना संकल्प प्रदर्शित करें.

मुम्बई में हुए ये हमले एक बार फिर यह सन्देश दोहराते हैं कि भारत के लिए अब यह नितान्त आवश्यक है कि आतंकवाद की रोकथाम के लिए अपनी ढिलमुल नीति की समुचित समीक्षा करके कुछ ठोस कदम उठाए. भारत का गृहमंत्री यदि यह स्वीकारता है कि इन हमलों की कोई पूर्व भनक सरकार को नहीं थी तो इससे यही पुष्टि होती है कि आतंकवाद के विरूद्ध जैसी सतर्कता की आज आवश्यकता है उस पर पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया जा रहा. कांग्रेस के नेता युवराज राहुल गांधी ने मुम्बई हमलों के सम्बन्ध में तुरत फुरत एक सार्वजनिक बयान देने की तत्परता तो दिखाई पर एक बार फिर अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दे डाला. भारत की लोकतंत्रीय राजनीति में वंशवाद के प्रतीक राहुल गांधी जिन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस के नेताओं के द्वारा दिन रात एक की जा रही है उन्होंने ऐसे समय यह कह कर देश स्तंभित कर दिया कि भारत में आतंकवाद को प्रभावी ढंग से रोका नहीं जा सकता. अपने इस बयान के समर्थन में तर्क देते हुए अपने लंबे चौड़े स्पष्टीकरण में उन्होंने भारत की स्थिति की तुलना इराक और अफगानिस्तान तक से कर डाली. न सिर्फ यह विषय की उनकी किंचित अनभिज्ञता प्रदर्शित करता है बल्कि इसके साथ ही विश्व के समक्ष उसकी अशक्तता जतलाता है जो वस्तुत: सही नहीं है. उसके बाद कांगेस के नेता दिग्विजय सिंह का पाकिस्तान में आतंकवादी हमलों की बात कहना उससे भी बडी गलती थी. विदेशों में भारत का मान ऐसे वक्तव्यों से बढ़ता नहीं, घटता ही है.

इन नए धमाकों की एक के बाद एक परतें ज्यों ज्यों खुलती चली जायेंगी स्थिति स्पष्ट होती चली जायेगी. इन्डियन मुजाहिदीन पर उंगली उठी है. उसके तार भी तो पाकिस्तान के साथ जुड़े हुए हैं. भारत की खुफिया एजेंसियों को इन धमाकों की सम्भावना के सम्बन्ध में कोई जानकारी पहले से थी कि नहीं अब मुद्दा यह नहीं है. पर हाँ यह मुद्दा अवश्य है कि क्या भारत इस बढ़ते आतंकवाद को रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाने की तत्परता दिखाता है कि नहीं. यदि इस बार भी वही होगा जो अब तक होता आया है और भारत यह जानते हुए भी कि उसके अपराधी पाकिस्तान के किन आई एस आई सुरक्षित ठिकानों पर इन हमलों की सफलता के जश्न मनाते भारत का मजाक बना रहे हैं कुच्छ नहीं करता तो फिर निस्संदेह भारत के लोगों को एक लंबे समय तक आतंकवाद के काले साये के तले जीते मरते रहना होगा. आये दिन भारतवासियों को धमाकों, रक्तपात, विनाश, विभाजन और सामाजिक विखंडन का यह तांडव देखना सहना होगा. वाणी और व्यवहार से भारत के राजनेताओं से यदि थोडा बहुत संकेत भी देश के दुश्मनों को नहीं मिलता कि भारत कुछ करने की तैयारी में है तो निश्चय ही उनके हौंसले और बुलंद होंगे. कैसी होनी चाहिए रणनीति भारत की आतंकवाद की रोकथाम के लिए आज इसकी समीक्षा जिम्मेवाराना ढंग से सर्वदलीय मंथन बैठकों में होना एक अपरिहार्य आवश्यकता है. क्या ऐसा जिम्मेदार लोकतंत्र कभी पनपेगा भारत में?

 

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  1. श्री नरेश भारतीय जी को साधुवाद. वोट ही कंग्रेस्सियों का धर्म है. स्वर्गीय ज्ञानी जैल सिंह द्वारा तत्कालीन अकाली जनता(जनसंघ) सर्कार को गिराने के लिए नवम्बर १९७८ में भिंडरावाले व निरंकारियों का झगडा कराकर पुनजब को खालिस्तान आन्दोलन की आग में झोंक दिया और जब पानी सर से उतरने लगा तो इंदिरा जी ने हिन्दू कार्ड खेलते हुए ओपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दिया और बदले में अपनी जान गवां दी. उसका भी लाभ राजीव गाँधी उठाने से नहीं चुके और दो महीने तक लगातार टीवी पर इंदिराजी के शव की क्लिपिंग्स दिखा दिखा कर चुनाव में ४१५ सीट जीत ली. लेकिन सोनिया गाँधी के बॉय फ्रेंड क्वात्रोची के कारन सत्ता से हाथ धो बेठे. उसी क्वात्रोची की लिट्टे के बालासिंघन के साथ पेरिस के पाँच सितारा होटल में हुई मुलाकात के दौरान किये गए षड़यंत्र के कारन हत्या की साजिश का शिकार हुए. खेद है की भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा व सपा के रामजीलाल सुमन द्वारा इस षड़यंत्र के सम्बन्ध में २७ अप्रेल २००७ को संसद में जांच की मांग किये जाने पर सोनिया गाँधी के इशारे पर कांग्रेसियों ने शोर मचा कर मुद्दे को दबा दिया. क्यों षड़यंत्र की आज तक जांच नहीं हुई जबकि जैन आयोग ने स्पष्ट रूप से इसकी सिफारिश की थी? सोनिया जी को क्या दर है? या कहीं इस बात में कुछ दम तो नहीं है की सोनिया जी को हत्या के षड़यंत्र की जानकारी थी और इसी कारन वो श्रीपेरुम्ब्दुर के दौरे में राजीव के साथ नहीं गयी थी जबकि इसके अलावा और सभी दौरों पर उनके साथ गयी थी. कहीं ये सच तो नहीं है की सोनिया (एड्विगे अन्तोनिया सोनिया माईनो) की माता पावलो माईनो क्वात्रोची की मार्फ़त अदनान खशोगी से लिट्टे को हतियार मुहैय्या कराती थी और इसी सम्बन्ध के चलते उसे राजीव की हत्या के षड़यंत्र की जानकारी थी जिससे सोनिया को इसका पता चल गया था और वो श्रीपेरुमबुदुर नहीं गयी. सोनिया का इस देश से एकमात्र रिश्ता लूट का है. उसे इस देश से कोई लगाव नहीं है. अफ़सोस तो यह है की कांग्रेसी सोनिया के तलवे चाटने के इस कदर आदि हो चुके हैं की उनके अन्दर विवेक नाम की चीज नहीं बची है और वो सोनिया राहुल के इशारे पर अनर्गल बकवास करके देश को कमजोर करने के पश्चिमी देशों के षड़यंत्र में सहभागी बन रहे हैं. (सद्य प्रकाशित पुस्तक ब्रेकिंग इण्डिया में लेखक राजीव मल्होत्रा व अरविन्दन नील्कंदन ने देश तोड़ने के पश्चिमी षड्यंत्रों के विषय में विस्तार से लिखा है और इस सम्बन्ध में अधिकृत दस्तावेजों के साक्ष्य भी दिए हैं).देश के लिए सोते जागते चिंता करने वाले आर एस एस पर हर घटना के लिए आरोप लगाना भी इसी का हिस्सा है. हिन्दू आतंकवाद का झूठा हौव्वा खड़ा करके मुस्लिम अलगाववादियों व आतंकवादियों क़ी ओर से ध्यान भटकना भी इसी में शामिल है.मुस्लिम समस्या जल्दी ही अपने पूरे विकराल रूप में देश के सामने आने वाली है. केरल में बेशक मुख्या मंत्री कांग्रेस का बना है लेकिन मुस्लिम विधायकों की अधिक संख्या के चलते वो मुस्लिम कार्ड मानने को मजबूर है. आसाम में पहले ही सत्ता की कुंजी घुस्पेठिये मुसलमानों को सौंपी जा चुकी है. बंगाल में भी मुस्लिम घुस्पेथियों का अधिकांश जिलों में वर्चस्व स्थापित हो चूका है. उत्तर प्रदेश उभरती हुई मुस्लिम राजनीतिक शक्तियों के हाथ में जाने की स्थिति में पहुँच रहा है. ऐसे में कांग्रेसियों द्वारा मुस्लिम आतंकवादियों को क्लीन चित देकर आर एस एस व हिन्दू आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करना उनकी पुरानी बीमारी का ही लक्षण है. फिरोज खान ( गाँधी?) के पोते राहुल गाँधी ( रौल विन्ची) को उत्तराधिकार की लड़ाई के लिए अपने दादा के मुस्लिम बिरादरान का समर्थन जुटाना अति आवश्यक है. दिग्गी रजा इसमें खास दल्ले का रोल निभा रहा है.

  2. मुझे बड़ा अफ़सोस होता है जब श्री आर एन सिंह जी जैसे वरिस्थ लोग भी बेचारे दिग्विजय सिंह पर कम्मेंट करते है
    साथियों दिग्विजय जैसा जीनियस अनमोल हीरा भारत में दुबारा जन्म नहीं लेगा कदर करो हीरे की .

    लोग बेचारे को क्या क्या समझते है

    दोस्तों हमारे दिग्विजय जी इंजिनियर है वो भी खालिस
    इस देश में जूता ग्ठने की प्रथा सदियों पहले खत्म हो चुकी थी .
    सुकर मनाओ की दिगविजय जीके द्वारा विकसित टेक्नोलोजी का की इस प्रथा को बचाया ही नही अपितु विकसित भी किया एक नया आयाम दिया जिसके द्वारा आज करोड़ो लोगो को व्यवसाय मिल रहा है .
    और आम जन मानस को सस्ती सुंदर व्यवस्था अन्यथा चप्पल टूटती तो उसे फेकते या घर पर ही शुरू हो जाते ,
    ऐसे म्हापुरुस को अगर कुछ देना ही चाहते हो तो अच्छी तरह से दो .

  3. आपने कुछ शब्द लिखे हैं,उदारता,कायरता इत्यादि.एक बात में तो गलतफहमी नहीं होनी चाहिए.हम उदार नहीं ,कायर हैं और इस बात को जितना जल्द हर भारतीय समझ ले उतना ही अच्छा है.महाकवि दिनकर ने कुरुक्षेत्र में लिखा था ,
    क्षमा शोभती उस भुजंग को,
    जिसके पास गरल हो .
    उसको क्या जो स्वयं,
    विष रहित विनीत सरल हो.
    अब इस बात पर विचार कीजिये की हम आखिर इतने कायर क्यों हैं,तो इसका उतर यही है की वीरता चरित्रता से आती है,चरित्रहीनता से नहीं. हर आतंकी हमले के बाद हमारा आपसी विवाद भी इसमें एक प्रमुख भूमिका निभाता है.बीजेपी कुछ बोलता है तो कांग्रेस कुछ और.कांग्रेस का तो और बुरा हाल है.वहाँ
    तो मन मोहन सिंह कुछ कहते हैं तो राहुल और दिग्विजय सिंह का सम्मिलित स्वर कुछ और ही इंगित करता है..बहुत बार हमारे उपर आतंकी हमलों की तुलना अमेरिका के ९/११ से की जाती है और कहा जाता है की वहाँ फिर हमला क्यों नहीं हुआ? जब हम बार बार इनसे जूझने को वाध्य हो जा रहे हैं, तो आपलोग शायद भूल गये की हमला बुश के समय हुआ था,जो रिपब्लिकन पार्टी के थे,पर किसी डेमोक्रेट ने यह आवाज भी नहीं उठायी थी की यह सब बुश की नीतियों के चलते हुआ और इसको अमेरिका पर हमला मानकर सब एक जुट होकर लड़े और आज भी लड़ रहेहैं.सरकार बदल गयी,पर निति नहीं बदली.क्या हम ऐसा कर सकते हैं?
    एक अन्य बात भी है.हमले से कौन प्रभावित होता है ?अगर २६/११ को छोड़ दिया जाए तो केवल वे लोग प्रभावित होते हैं ,जिनके जान की कीमत ५ लाख रूपये है.अगर इन हमलों में १००० जानें भी जाती हैं तो खर्च आया महज ५० करोड़ रूपये.सरकार भी खुश और मृतक के परिजन भी खुश .अगर सरकार वह सब करने लगे जिससे इन सब हमलों पर लगाम लगे तो खर्च भी अनेक गुना ज्यादा और राजनैतिक लाभ भी कम . .है न घाटे का सौदा? तो फिर चलने दीजिये यह सब मरने दीजिये लोगों को बढाते जाइए वोट बैंक या तो मुसलमानों और पाकिस्तान को इसका जिम्मेदार ठहरा कर या फिर दिग्विजयी भाषा बोलकर,जिसमें इन सब हमलों का जिम्मेदार संघ परिवार है.ऐसे यह दूसरी बात है की दिग्विजय सिंह जैसे खतरनाक पागल को खुलेआम घूमने देना भारत के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो रहाहै..

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