राज बब्‍बर से यूपी में कांग्रेस को कितनी मिलेगी प्राणवायु?

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने के लिए यह सर्वविदित है कि राज बब्बर को मैदान में उतारा गया है। पार्टी ने उनसे अपेक्षा की है कि वे जातिगत समीकरणों का लाभ उठाकर उत्तरप्रदेश से उसका पिछले 27 सालों से चला आ रहा सियासी वनवास समाप्त कर देंगे। निश्चित ही उम्मीद रखना और स्वप्न देखना बुरा नहीं है, लेकिन इस हकीकत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो वर्तमान यूपी के राजनीतिक समीकरण की तस्वीर अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
उत्तरप्रदेश का सही तथ्य यह भी है कि पार्टी का परंपरागत मुस्लिम एवं यादव वोट बैंक समाजवादी पार्टी की झोली में, दलित वोट बैंक बसपा में तथा सवर्ण वोट बैंक भाजपा के खाते में खिसका है। इसी वोट बैंक को फिर से हासिल करने की कोशिश में कांग्रेस ने संभवत: राज बब्बर को आगे किया हो। इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि राज बब्बर की पृष्ठभूमि सिनेमायी है, इसलिए प्रदेश की तीस प्रतिशत युवा आबादी को लुभाने के लिए उन्हें प्रतिनिधि चेहरा बनाने की कोशिश की गई हो।  नि:संदेह राज बब्बर का अपना ग्लैमर है। वे कुशल वक्ता होने के साथ हमेशा विवादों से परे रहने का हुनर जानते हैं। इसके बावजूद बब्बर की फिल्मी चकाचौंध कांग्रेस का जनाधार बढ़ाने में कितनी कारगर सिद्ध होगी, अभी से कुछ कहना जल्दबाजी है।
वहीं गुलाम नबी आजाद को यूपी का प्रभारी बनाकर भी कांग्रेस की ओर से यही संदेश देने की कोशिश रही होगी कि यहां के अल्पसंख्यक वर्ग को पार्टी ज्यादा तरजीह देती है, वह इस वर्ग का ध्यान रखने में अन्य किसी राजनीतिक पार्टी से कमतर नहीं बल्कि इस मामले में कुछ ज्यादा ही सोचती है। लेकिन एक हकीकत कांग्रेस की अंदरूनी यह भी है कि राज्य में पार्टी के अन्य समुदाय सदस्य यहां से प्रियंका गांधी की प्रभावी मौजूदगी के लिए प्रयास कर रहे थे।
फिलहाल तो कांग्रेस को लग रहा है कि इस राज्य से तीन बार सांसद रह चुके तेजतर्रार राज बब्बर को पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने से बहुत कुछ हासिल करने में वह कामयाब हो जाएगी, पार्टी को यहां तक लगता है कि सत्ता के सिंहासन पर बैठने में भी उसको सफलता मिलेगी, किंतु यह इतना आसान भी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी के साथ उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का जोर कुछ कम नहीं है। सपा की सत्ता है और बहुत बड़े वर्ग का साथ नेताजी यानी कि मुलायम सिंह को मिला हुआ है।
तथ्‍य यह भी है कि उत्‍तर प्रदेश के कांग्रेस प्रभारी गुलाम नबी आजाद जिस वर्ग से आते हैं, सपा सरकार की सत्ता में इस वर्ग के लोगों ने देखा है कि नेताजी के बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुजफ्फरपुर जैसे दंगों से लेकर अखलाक के केस में किस प्रकार इस विशेष समुदाय के प्रति अपनी भक्ति दिखाते हैं। स्वाभाविक है कि इस कारण से प्रदेश में इस समुदाय विशेष का बहुत बड़ा वर्ग अपने लाभ के चलते समाजवादी पार्टी का साथ छोडऩे से परहेज करेगा, जबकि इस पक्ष का एक सच यह भी है कि साक्षरता, शिक्षित और उच्च शिक्षा दर के मामले में यह अब भी बहुत पीछे है, हां, जो पढ़े लिखे हैं वे जरूर सत्ता के सिंहासन पर सपा पर दौबारा भरोसा करके बैठाने को लेकर अपने मत का प्रयोग किसी अन्य के पक्ष में कर सकते हैं, लेकिन इनकी संख्या काफी कम ही है।
वहीं इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता है कि सपा सरकार के निर्णयों ने बहुसंख्यक समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को नाराज किया है। इस वर्ग को लगने लगा है कि वे समाजवादी पार्टी के राज्य में सुरक्षित नहीं है। यदि सूबे में कहीं भी धार्मिक विद्वेष के कारण दो समुदायों के बीच हिंसा की स्थिति बनती है तो ज्यादातर मामलों में शिकार यहां के बहुसंख्यक समाज के लोग ही होते हैं, जब तक सेना को नहीं बुलाया जाता, तब तक तो बहुत नुकसान हो ही चुका होता है। इसलिए राज्य में सत्ता के स्तर पर समाजवादी पार्टी से बहुत बड़ा वर्ग मुक्त होना चाहता है। जहां तक बहुजन समाज पार्टी का प्रश्न है, उसके प्रति भी आम जनता में तरह-तरह की राय है। राज्य में जातिगत समीकरणों से देखें तो बहुसंख्यक समाज यूपी में उन जातियों का है, जिनकी दम भरकर मायावती अभी तक सत्ता में आती रही हैं, बौद्धकि स्तर पर हिन्दू समाज के अगले लोगों का साथ भी समय-समय पर मायावती को मिलता रहा है। किंतु वर्तमान हालात बहुत कुछ बदल चुके हैं।
केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आ जाने के बाद और विशेषकर उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व मिलने से देश के आम लोगों की राय बहुत हद तक भाजपा के पक्ष में हैं। जीएसटी, एफडीआई, महंगाई जैसे कुछ मुद्दे अवश्य हैं, जिनके कारण मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयत्न किया जाता है। लेकिन जो इन विषयों को उठा रहे हैं, उनमें से भी ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि पूर्व में इंदिरा सरकार के रहते हुए तथा उसके पश्चात देश में मोदी सरकार के आने के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि भारत का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। भारत को जानने और समझने का आकर्षण इन दिनों इतना अधिक है कि गूगल से लेकर सभी सर्च इंजनों पर विश्व हमें ज्यादा से ज्यादा जानना और समझना चाहता है। अन्य राष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर भी मोदी सरकार का फरफॉर्मेंस श्रेष्ठ है, भारत लगातार ऊंची विकास दर हासिल कर रहा है।
कुल मिलाकर उत्तरप्रदेश का जो नौजवान है, पढ़ा लिखा वर्ग है, वह यह समझ रहा है कि यदि तेजी से अपने प्रदेश का विकास करना और करवाना है, तो हमें अपने राज्य में भारतीय जनता पार्टी को इस बार सरकार बनाने का मौका देना चाहिए। इससे होगा यह कि राज्य सरकार प्रदेश की जनता के सामने यह रोना नहीं रो सकती कि विकास के लिए केंद्र सरकार से फलां मदद चाही गई थी, लेकिन विचारधारा के स्तर पर साम्य नहीं होने तथा हमारी पार्टी की सरकार नहीं होने के कारण हमें मदद नहीं दी गई।

2 COMMENTS

  1. कांग्रेस ही क्यों कांग्रेस द्वारा स्थापित अधिकतर सांस्कृतिक, अध्यात्मिक, कार्यकारी इत्यादि संस्थाओं में कागज़-दाब भरे पड़े हैं जिसके कारण अब तक सभी काम भ्रष्टाचार और घोटालों के बलि चढ़ा दिए जाते रहे हैं| ऐसी स्थिति में जब कांग्रेस मुक्त भारत की कामना की जा रही है तो आए दिन कांग्रेस लीला क्यों बांची जा रही है?

  2. राज बबर , व गुलाम नबी आजाद , और शीला दीक्षित का लाया जाना कांग्रेस की मात्र चुनावी खाना पूर्ति मात्र लगती है , राज्य में चौथे नंबर पर चल रही कांग्रेस अभी भी उसी जगह पर खड़ी है , जहाँ इतने साल से संघर्ष कर रहे किसी युवा नेता को लाना चाहिए था , वहां दीक्षित जैसे थके घोड़े पर जीन कस कर सवारी करने की सोचना उनकी मानसिक स्थिति को दर्शाता है , यह भी संकेत देता है कि इतने बड़े , चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण , उसके पुराने गढ़ में अब कोई राज्य का अपना नेता ही नहीं है , दीक्षित को राज्य की बहु कह कर वोट पाने की लालसा करना खुद को ही स्वप्न दुनिया में रखना है , यह वही बहु है जिस ने दिल्ली की सी एम रहते हुए यू पी के लोगों को दिल्ली का सब से बड़ा बोझ बताया था
    लोगो को राज्य की बहु याद आएगी तो बहु के पुराने बोल भी याद आएंगे , नहीं आएंगे तो दूसरे दल याद दिला देंगे , अब सितारों का ग्लैमर लोगों को पहले जितना आकर्षित नहीं करता , और राज का तो वह करिश्मा काफी कुछ धुल चूका है

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