कविता

कैसे जियें

औद्योगिक नगरों की चिमनी से,

कण कण वायु प्रदूषित होती।

वाहन वायु प्रदूषित करते,

वायु प्रदूषण का विष रिस कर,

निर्जीव फेफड़े कर जायेगा,

कैसै न कैसे जिया जायेगा।

 

गंगा यमुना भी पवित्र कंहाँ हैं,

घुला रसायन विष इनमे है,

प्रदूषण धरा के नीचे भी है,

कूंओँ का पानी भी विषैला,

अंड़ितयों पर घात केरेगा,

कैसे न कैसे जिया जायेगा।

 

चिरैयों का संगीत भुलाया

झर झर झरनों की ध्वनि

कोलाहल मे लुप्त हो गई,

कभी लाउडस्पीकर पर भजन-कीर्तन,

कभी डी.जे. की धुन पर थिरकन,

कभी वाहनो की पी पी पों पों,

ध्वनि प्रदूषण का यह स्तर,

कान के पर्दे खा जायेगा,

कैसे न कैसे जिया जायेगा।

 

बलात्कार मासूमो का हो,

बम विसफोट आतंकवाद हो,

ख़ून जहाँ निर्दोषों का हो

भ्रष्टाचार का मुँह फैला हो,

मन मस्तिष्क प्रदूषित हो,

तब हमसे ना जिया जायेगा।