एक सौ बाईस करोड़ का बोझ,
कैसे उठा पाये !
बाग़ बग़ीचे खेत खलिहान सिमटे,
फसल कोई कैसे सींचे ।
सबको खाना कैसे खिलाये !
वसुधा कैसे मुस्कुराये !
सूखते जल-स्त्रोत जायें,
प्रदूषण ना रोक पायें,
धरा के नीचे का पानी,
और नीचे होता जाये,
प्यास सबकी कैसे बुझाये!
वसुधा कैसे मुस्कुराये !
बहुत सी सड़कें बनाईं,
करोड़ों गाड़ियाँ चलाईं,
नीचे भी मैट्रो बनाई,
कितनी गहरी करी खुदाई,
सबको कहाँ कैसे पंहुचाये !
वसुधा कैसे मु्स्कुराये !
जंगल कम होते ही जायें,
पवन प्रदूषण बढ़ता ही जाये,
पृथ्वी हरी भरी न हो तो,
वायु कैसे शुद्ध होगी ,
सांस कैसे ली जाये !
वसुधा कैसे मुस्कुराये !
सच्चाई को दर्शाती बीनू जी की कविता ने मन मोह लिया है .