वेंटिलेटर पर स्वास्थ्य सुविधाएं कैसे लड़ेगा कोरोना से भारत?

0
520

कोरोना महामारी अपने चरम पर है। आए दिन संक्रमित लोगो की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी हो रही है। कोरोना वायरस चाइना के वुहान मार्किट से निकलकर सम्पूर्ण विश्व मे फैल चुका है। वही हमारे देश की बात करे तो इस वायरस ने न केवल शहरी क्षेत्र में बल्कि अब ग्रामीण अंचलों में भी अपने पैर पसारने शुरू कर दिए है। भारत में स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही खस्ताहाल में थी। ऊपर से कोरोना के बढ़ते खतरे ने कंगाली में आटा गिला वाली कहावत को अमलीजामा पहना दिया है। भारत के ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो लगभग 2.37 लाख स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है। हाल तो इस क़दर बद से बद्दतर है कि ग्रामीण क्षेत्रो में न ही स्वास्थ्य केंद्र है और न ही स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा। भारत सरकार का स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी बहुत कम है। फिर ऐसे में कल्पना करिए कहीं ग्रामीण अंचलों में व्यापक पैमाने पर कोरोना ने अपने पैर पसार लिए फ़िर कहीं सारा तंत्र ही शायद कोरोना के सामने पानी भरता नज़र आए!

      भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलीजेंस के अनुसार 11,082 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। ऐसे में बात भारत के ग्रामीण क्षेत्रो की करे तो यहां  डॉक्टरों की संख्या नाम मात्र की है। आज भी ग्रामीण इलाकों में न ही स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध है और न ही पर्याप्त संख्या में डॉक्टर। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की हालिया रिपोर्ट जारी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ़ 75 फ़ीसदी गांवों में स्वास्थ्य सेवा प्रदाता है। इसमें से 86 फीसदी प्राइवेट डॉक्टर है और इन डॉक्टरों में भी 68 फीसदी डॉक्टरों के पास न ही मेडिकल की डिग्री है और न ही कोई उचित ट्रेनिंग। हाल तो यहां तक ख़राब है कि ये डॉक्टर बेधड़क हर मर्ज का ईलाज करने का दावा करते है। ऐसे में एक तरफ़ झोलाछाप डॉक्टर के भरोसे ग्रामीण अंचल के लोगों की जिंदगी है। तो दूसरी तरफ कोरोना से बढ़ते आंकड़े। फ़िर डर का माहौल तो बढ़ना लाज़िमी ही है। अब जिस डॉक्टर को नब्ज़ देखने और इंजेक्शन लगाने की मूलभूत जानकारी नहीं। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना का ईलाज कैसे संभव होगा यह भी अपने आप में बड़ा सवाल है? दुर्भाग्य तो देखिए संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन जीने की स्वतंत्रता का अधिकार देने वाले देश का कि उसी संवैधानिक व्यवस्था तले कई स्वास्थ्य केंद्र तो ऐसे हैं सुदूर अंचलों में जहां वर्षों से डॉक्टर झांककर देखने तक नहीं आएं कि सरकारी बिल्डिंग बची भी है कि वह भी धराशाई हो गई। ऐसे में कैसे लड़ेगा आत्मनिर्भरता की शेखचिल्ली मारने वाला भारत का ग्रामीण तबक़ा कोरोना से क्या इसका जवाब किसी दल या किसी सियासतदां के पास है? होगा भी तो कैसे आज़ादी के बाद से ही तो भ्रष्टाचार का रोग ऐसा चढ़ा है हमारे लोकतंत्र को कि सामाजिकता और जनकल्याण की बातें तो सिर्फ़ चुनावी हो चली हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में कहीं सरकारें स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सभी को आत्मनिर्भर होने को न कह दें। दर्द तो अब इस बात का भी सता रहा है। 
      भारत में स्वास्थ्य कर्मियों पर 2016 में  डब्ल्यूएचओ ने एक रिपोर्ट जारी की थी। जिमसें कहा गया कि एलोपैथी की प्रैक्टिस करने वाले 57.3 प्रतिशत लोग ऐसे है जिन्होंने मेडिकल की पढ़ाई ही नहीं की है। 31.4 फ़ीसदी लोग महज 12वीं तक की शिक्षा ग्रहण किए हुए। ऐसे में समझ सकते है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाएं ख़ुद वेंटिलेटर   पर है। ऐसे में ऑक्सीजन की कमी होए तो स्वास्थ्य केंद्र जाने की सोचना इस लोकतंत्र के साये तले किसी गुनाह से कम नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं ऐसी हैं नहीं कि सभी तक पहुँच सकें और झोलाछाप डॉक्टर के पास गए फिर मरना तो तय ही है। ऐसे में सरकार को कोसने से भी कुछ नहीं होगा। बस यहीं सोचते हुए अपने आराध्य से प्रार्थना कीजिए कि इस देश के मठाधीशों को थोड़ी अक्ल दें, ताकि सामान्य लोगों की भी सुध ले सकें।  
        अभी चंद दिनों पहले ही उत्तरप्रदेश के कुछ गांवों में कोरोनो महामारी को देवी का अवतार मान कर पूजा की जाने लगी। अब यह ग्रामीणों की अंधभक्ति कहे या मजबूरी जब देश मे स्वास्थ्य सेवाएं ही उपलब्ध नही फिर ग्रामीण कही तो उपचार के लिए जाएंगे ही। वैसे यह पहली बार नही हुआ जब कोई महामारी आई हो और उसे ग्रामीणों ने देवी का अवतार मान कर उसकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी हो। समय समय पर देश में ऐसी न जाने कितनी तस्वीरे आए दिन अखबारों और मीडिया की सुर्खियां बनती है जब ग्रामीण जन अंधविश्वास के चलते घरेलू उपचार से अपना ईलाज तलाशने को मजबूर होते हैं। आइये कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश में हुए घटनाक्रम से बात समझते है। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में एक पेड़ रातों रात चमत्कारी हो जाता है। लगभग 2 महीने तक लोग अंधविश्वास के चलते यहां ईलाज के लिए आते रहे। आलम यह था कि ईलाज की आस में कोई विहल्चेयर के सहारे तो कोई अपने परिजनों के कंधे पर सवार हो आ रहा था। सबकी बस यही ललक थी कि कैसे भी करके वह अपनी बीमारी से छुटकारा पा सके। यह खबर जब मीडिया की सुर्खी बनी तो पता चला कि एक चरवाहे ने झूठी खबर फैल दी थी। वहां न ही कोई पेड़ चमत्कारी था और न ही किसी तरह की बीमारी ठीक हो रही थी। ऐसी न जानी कितनी घटनाएं है जो चीख चीख कर ये बताती रहती है कि किस प्रकार ग्रामीण जनता अपने मर्ज की दवा के लिए कभी चमत्कारी पेड़ का तो कभी ढोंगी साधुओं के चक्कर में ईलाज की आस लिए दरबदर भटकते रहती, वह भी इक्कीसवीं सदी के विकसित और वैज्ञानिक युग में। 
     ऐसे में जब किसी भी देश की तरक़्क़ी को उस देश के नागरिकों के सेहतमंद होने से जोड़कर देखा जाता है। फिर देश को आजाद हुए 73 वर्षों के बाद भी देश की स्वास्थ्य सेवाओ की दुर्दशा यह बताने के लिए काफी है कि अभी भी हमें इस क्षेत्र में काफी सुधार करने की आवश्यकता है। सुधार सिर्फ़ स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में ही करने की आवश्यकता नहीं, जरूरत तो मानसिकता में बदलाव की भी महती जरूरत है। फिर वह चाहें हुक्मरानी व्यवस्था की मानसिकता हो या फ़िर उस झोलाछाप डॉक्टर की। जो पैसे की ख़ातिर लोगों की जान से खेल रहा। भारत में आजदी के 30 साल बाद पहली बार 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति पेश की गई। तो वही दूसरी बार 2002 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की चर्चा की गई। जबकि तीसरी बार करीब 15 साल के लम्बे अंतराल के बाद 2017 में स्वास्थ्य नीति लाई गई। जो यह बताने के लिए काफी है कि सरकार स्वास्थ्य सम्बंधित मुद्दों को लेकर कितनी लचर है। हमारे देश मे जीडीपी का लगभग 1 से 1.5 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने का मानक 5 प्रतिशत तय किया गया है। ऐसे में अगर अवाम की जिंदगी की भी संवैधानिक व्यवस्था में कोई क़ीमत है। फिर इस दिशा में बहुत कुछ कर गुजरने की दिशा में व्यवस्था को सोचना होगा, साथ में झोलाछाप डॉक्टर के चंगुल से भी अवाम को मुक्त कराना होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,469 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress