नए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे के लिए कैसी होगी राह

– डॉ. ललित कुमार

कांग्रेस पार्टी में जगजीवन राम (1970) के बाद किसी दूसरे दलित नेता का अध्यक्ष बनना सीधे तौर पर यह साफ़ संकेत देता है कि पार्टी अब परिवारवाद से ऊपर उठकर सबको साथ लेकर एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ रही है। कांग्रेस पार्टी का लगातार हाशिए पर जाना और पार्टी में बढ़ता आपसी सियासी संकट उसके लिए सबसे बड़ा ब्रेकर बना हुआ है। एक सौ सेंतीस साल बाद पुरानी कांग्रेस पार्टी में यह छठां चुनाव है, जिसमें उसने किसी गैर गाँधी को अपना नया अध्यक्ष चुना है. राजनीती में 53 साल के इस अनुभवी नेता की छवि जितनी बेदाग हैं वैसा ही उसका काम भी रहा है. कर्नाटक के गुलबर्ग जिले से ताल्लुक रखने वाले मल्लिकार्जुन खडगे एक मजदूर नेता के तौर कांग्रेस पार्टी से जुड़े, जो बाद राज्य के गृहमंत्री रहें हैं. देश के रेल मंत्री और श्रम मंत्री से होते हुए वर्तमान के राज्यसभा के विपक्षी नेता के रूप में कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल किए हुए हैं. अस्सी वर्षीय मल्लिकार्जुन खडगे कांग्रेस पार्टी के उन वरिष्ठ नेताओं में शुमार है, जिनको पार्टी का संकटमोचन माना जाता है।

मल्लिकार्जुन खडगे कर्नाटक विधानसभा की गुरमीतकल सीट से वर्ष 1972 से 2004 तक लगातार कांग्रेस पार्टी के आठ बार विधायक रहें, जबकि नौवीं 2008 में चित्तपुर से विधानसभा पहुंचे। उसके बाद वर्ष 2009 और 2014 में लोकसभा सांसद बने। मल्लिकार्जुन खडगे पर गुलबर्ग शहर की जनता कितना विश्वास करती है यह उनकी जीत से समझा जा सकता है। मलिकार्जुन खडगे जिस दलित समाज से आते हैं, उनके लिए राजनीति में संघर्ष कई मायनों में खास है। कर्नाटक में बीजेपी सरकार होने के बावजूद भी मल्लिकार्जुन खड़गे का कद कम नहीं हुआ, बल्कि उनको जितना दबाने की कोशिश की गई। वह हर बार कई गुना तेजी से कर्नाटक की राजनीति में एक बेदाग और विश्वसनीय नेता के तौर पर उभरकर सामने आए।

वर्ष 2014 में खडगे को लोकसभा में विपक्ष की भूमिका दी गई। जिसे उन्होंने ईमानदारी से निभाया और सत्तारूढ़ पार्टी पर लगातार मुखर होकर सदन में अपनी बात रखते हुए दिखाई दिए। मल्लिकार्जुन खड़गे की सबसे ज्यादा लोकप्रियता तब हुई, जब उन्होंने सदन में ईडब्ल्यूएस आरक्षण मुद्दे पर खुलकर अपनी बात रखी, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘आर्य बाहर से आये हुये विदेशी है, हम इस देश के मूलवासी है, हम भागने वाले नही हैं’। मल्लिकार्जुन खडगे के तेवर हमेशा सत्तारूढ़ पार्टी पर तीखे ही रहें हैं। वर्ष 2019 में जब लोकसभा चुनाव हारे तब कांग्रेस पार्टी ने उन्हें कर्नाटक से राज्यसभा सांसद बनाकर सदन में भेजा। मल्लिकार्जुन खडगे राज्यसभा में भी विपक्षी नेता के तौर पर भी कई मुद्दों पर अपनी बात मुखर होकर रखते रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए यह राहत की बात है कि अब शायद कांग्रेस परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति से दूर रहें और बाकी लोगों को भी पार्टी में मौका मिले। क्योंकि पार्टी पिछले दो दशकों से परिवारवाद का दंश झेलती हुई आ रही है। मल्लिकार्जुन खडगे को पार्टी की कमान सौंपना शायद इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह साफ तौर पर देश को यह संदेश देना चाहते है कि पार्टी अब परिवारवाद के आसरे नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं की आशा, आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर देश को एक नेतृत्व देना चाहती है। दरअसल, कांग्रेस पार्टी की मुश्किल भर इतनी नहीं है कि पार्टी एकदम से कोई अचानक चमत्कार कर दें, बल्कि मल्लिकार्जुन के सामने जिन चुनौतियों को ध्यान में रखकर नए अध्यक्ष पद की कुर्सी सौंपी है। उसका मतलब साफ है कि पार्टी गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में उस दहलीज पर खड़ी है, जहां उसके सामने तमाम तरह की चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। पार्टी अगर ईमानदारी से काम करती है और कुछ कड़े फैसले लेती है, तो शायद पार्टी इन दोनों राज्यों में कुछ कमाल करने में कामयाब हो जाए, लेकिन यह होगा कैसे यह बड़ा सवाल है।

गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनाव में मल्लिकार्जुन खडगे की अग्निपरीक्षा होनी तय है। अगर पार्टी इन दोनों राज्यों में कुछ अच्छा कर देती है, तो कांग्रेस पार्टी की छवि में सुधार आ सकता है। वर्ष 2017, गुजरात में कांग्रेस पार्टी को 182 विधानसभा सीटों में से 80 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि बीजेपी को 99 सीटों पर यानी कांग्रेस मात्र 13 सीटें जीत से दूर रही। उधर हिमाचल में 68 सीटों में से 21 सीटों पर जीत मिली, जबकि बीजेपी 44 सीटों पर जीत हासिल करके एक बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी यानी कांग्रेस पार्टी यहां भी 14 सीटें जीत से दूर रही। कुल मिलाकर इन दोनों राज्यों के आंकड़ों को अगर गौर से देखें तो कांग्रेस पार्टी थोड़ी भी मेहनत करके और गांव-गांव जाकर संगठित होकर काम करती, तो शायद मल्लिकार्जुन खडगे किंगमेकर की भूमिका के तौर पर उभरकर सामने आएंगे। जिससे वर्ष 2024 में देश की जनता कांग्रेस को फिर से एक नए विकल्प के तौर पर देख सकती है। गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनाव की परीक्षा के बाद वर्ष 2023 में 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें उनका गृह राज्य कर्नाटक भी शामिल है। इन तमाम चुनावों की रूपरेखा खडगे किस रूप में और कैसे तय करेंगे यह एक बड़ी चुनौती है। पार्टी के भीतर निराशा और हताश का आलम यह है कि पार्टी लगातार हर मोर्चे पर विफल होती दिख रही है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद पार्टी में एक नया जोश नजर आ रहा है। अब खडगे उसे कैसे अपनी राजनीतिक बुद्धि के आसरे उसमें नया जोश जनता के बीच भरेंगे यह समझना भी उनके लिए बेहद जरूरी है।

खडगे और कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती भाजपा और संघ परिवार की विचारधारा से लड़ना है। भाजपा को वर्ष 2024 के आम चुनाव में अगर सत्ता से उखाड़ना है, तो कांग्रेस पार्टी को उससे पहले आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कमर कसनी होगी और देश की जनता का विश्वास जीतकर पार्टी को मजबूत करके एक बेहतर विकल्प देना होगा। क्योंकि देश की जनता वर्तमान सरकार के जुमलों से त्रस्त है। इस सरकार में आज का युवा बेरोजगारी की मार झेल रहा है और वह अपने सबसे बुरे दौर से गुजरा रहा हैं। ऐसे हालत कभी देश में नहीं आए, जहाँ देश की वर्तमान सरकार सभी सरकारी बड़ी संस्थाओं को एक-एक करके बेचती जा रही हैं और देश की जनता मूकदर्शक बनकर अपनी आँखों के सामने ये सब होते हुए देख रही हैं। देश की जनता यह देख भी रही है कि कैसे निजीकरण लगातार भारत में बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है, जिसका खामियाजा उसको आने वाले कुछ वर्षों में भुगतना पड़ सकता हैं।

अगर यह सरकार ऐसे ही मनमानी करती रही तो भारत में श्रीलंका जैसे भयानक हालात कभी भी पैदा हो सकते हैं। खडगे के सामने भी सबसे बड़ी चुनौती है, वर्ष 2024 के आम चुनाव में सबको एक साथ लेकर चलने की। हालांकि खडगे का चेहरा इस समय देश में एक साफ-सुथरे नेता के तौर पर देखा जाता है, जिससे कई चीजें उनके पक्ष में हो सकती है, जो सबको एक साथ लेकर चलना पसंद करते हैं। खडगे का कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनना ऐसे समय में हुआ है। जब पार्टी देशभर के हर राज्य में अपनी आंतरिक कलह की वजह से सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और एक के बाद एक पार्टी को चुनावी हार का भी सामना करना पड़ रहा है।

खडगे पर बीजेपी यह भी आरोप लगा सकती है कि यह दस जनपथ के दवाव में रहकर निर्णय लेंगे यानि वह रिमोट से कंट्रोल होंगे। खडगे को इन आरोपों का भी सामना करके उसे गलत साबित करना होगा। खडगे पार्टी संगठन में कितना परिवर्तन करते हैं, युवाओं को कितना साथ लेकर चलेंगे? क्या सभी राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव कराए जायेंगे? क्या पार्टी के छोटे-छोटे संगठनों में भी चुनाव होंगे? साथ ही खडगे को कांग्रेस पार्टी के फिसले वोटे बैंक को साधना भी एक बड़ी चुनौती होगी,यानी इन सब पहलुओं के बीच आपसी सामंजस्य बनाकर चलना खडगे की राह किसी लिटमस टेस्ट से कम नहीं आंकी जा रही हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकार रशीद किदवई कहते हैं कि खडगे को राहुल गांधी के साथ आपसी तालमेल बैठाना बहुत जरूरी है, क्योंकि वह अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी (एआईसीसी), कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) और अधिकांश राज्यों में प्रमुख पदों पर काबिज है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर मनिंद्रनाथ ठाकुर का कहना है कि खडगे और कांग्रेस के सामने तीन मुख्य चुनौतियां हैं। हिंदी भाषी क्षेत्र में समर्थन आधार का पुनर्गठन, एक नया सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विचार, जिससे लोगों को आकर्षित किया जा सके और संगठनात्मक संरचना में सुधार। खडगे के समक्ष कई चुनौतियां मौजूद हैं। इसलिए कांग्रेस को अब यह समझना भी बेहद जरूरी है कि उसने किसी अनुभवी नेता को अगर इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी है तो वह उसके आदेशों का पालन करते हुए संगठित होकर देश में काम करें तभी कांग्रेस का भविष्य उज्जवल नजर आ सकता है।

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