मानवीय संवेदनाओं की मौत को दिखला गए हंगल साब

सिद्धार्थ शंकर गौतम 

स्व. अवतार किशन उर्फ़ एके हंगल की मौत से रुपहले परदे पर जो सन्नाटा पसरा है उसके पीछे का स्याह पक्ष और भी काला है| ५० वर्षों तक रुपहले परदे पर अपनी अदाकारी का जादू बिखेरते रहे हंगल साब की ज़िन्दगी के आखिरी दिन मुफलिसी में तो बीते ही, उनकी मौत के बाद उनको कंधा देने भी सिने जगत के दिग्गजों की दूरी परदे की दुनिया के परदे के पीछे की सच्चाई बयां कर रही है| मूल रूप से रंगमंच के कलाकार हंगल साब का तन-मन रंगमंच में इस कदर रमा हुआ था कि उम्र के तीसरे दशक में बेमन से उन्होंने रुपहले परदे की दुनिया का रुख किया| अपने जीवन के प्रारंभिक काल में एक दर्जी का व्यवसाय करने वाले हंगल ने पेशावर (अविभाजित भारत) में अपना बचपन गुजारा जहां थियेटर के शौक ने उनके अंदर के कलाकार को जीवंत किया| भारत के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भाग लेने की वजह से उन्हें ३ वर्ष जेल में बिताने पड़े| अपने पिता की सेवानिवृति के बाद वे पेशावर से कराची आ गए और विभाजन की त्रासदी को अपने दिल में दबाए उन्होंने मुंबई का रुख किया| मुंबई में थियेटर समूह इप्टा के साथ उनका जुड़ाव हुआ जहां दिग्गज अदाकार बलराज साहनी व प्रसिद्ध गीतकार कैफ़ी आजमी उनके सखा बने| ये दोनों ही मार्क्सवादी विचारधारा के करीबी थे लिहाजा इनके साथ ने हंगल साब के अंदर मार्क्स के विचारों को पैदा किया जिसपर वे ताउम्र कायम भी रहे| हंगल साब ने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया और समाज के आखिरी व्यक्ति के दुःख को वे अपना दुःख मानते रहे| उनकी राजनीतिक समझ और विचारों के बेबाक सम्प्रेषण से एक वक़्त ऐसा भी आया कि मुंबई में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने उनकी फिल्मों को प्रतिबंधित करवा दिया किन्तु हंगल साब न तो अपने विचारों से विमुख हुए न ही उन्होंने ठाकरे के सन्मुख सर झुकाया| जीवन पर्यंत मार्क्स की अवधारणा को साकार स्वरुप देने की ईमानदार कोशिश करने से उन्होंने सामाजिक जीवन में आदर्श प्रस्तुत किया|

फ़िल्मी दुनिया उन्हें कम ही रास आती थी लेकिन अपने समकालीनों की बात को वे टाल न पाते थे| हंगल साब ने रुपहले परदे के तकरीबन सभी बड़े-छोटे कलाकारों के साथ काम किया और सबसे बड़ी बात उनकी कमोबेश सभी फिल्मों में उनका चरित्र सकारात्मक ही था| यानी उन्होंने जिन आदर्शों, मूल्यों व संस्कारों को अपने जीवन में आत्मसात किया, उसी के अनुरूप परदे पर भी उसका चित्रण कर उदाहरण पेश किया| बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम से अपनी सिने पारी का आगाज करने वाले हंगल साब का जो चरित्र चित्रण शोले तथा शौक़ीन नामक चलचित्रों में हुआ, उसने उन्हें अमर कर दिया| हंगल साब के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे कभी किसी के पास काम मांगने नहीं गए और कैमरे से उन्हें इतना आत्मीय लगाव था कि उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी वे कैमरे के समक्ष खुद को ऐसे पेश करते थे मानो अभी उनका सर्वश्रेष्ठ आना बाकी हो| संघर्ष का झंडा बुलंद करते-करते उन्होंने कभी नैतिकता से समझौता नहीं किया और शायद यही वजह रही कि उनके संगी-साथियों की संख्या सीमित ही रही| उनकी अंतिम यात्रा भी इस बात की गवाही देती है कि सत्य और नैतिकता की सीख देने वाला व्यक्तित्व वर्तमान समाज को रास नहीं आता| जिन खानों ने उन्हें अपनी फिल्म में लेने के लिए आदर-सम्मान के तमाम पैमाने व आदर्श पेश किए थे, अंतिम समय तो क्या उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल होना उन्हें गवारा न हुआ| खैर हंगल साब की अंतिम यात्रा में शामिल रजा मुराद, राकेश बेदी, इला अरुण जैसे उनके संगी-साथियों के चेहरे पर उभरी दुःख की कालिमा इस बात को प्रस्तुत कर रही थी कि परदे की दुनिया के परदे के पीछे का सच कहीं अधिक स्याह है जहां मानवीय संवेदनाओं की रोज़ मौत होती है| हंगल साब की जीवटता को मेरी ओर से अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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