-ललित गर्ग-
विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की हालिया रिपोर्ट ने एक बार फिर वैश्विक समुदाय को चेताया है कि धरती पर करोड़ों लोग आज भी भूख, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के शिकंजे में जकड़े हुए हैं। यह रिपोर्ट केवल आंकड़ों का लेखा-जोखा नहीं, बल्कि एक वैश्विक त्रासदी की दास्तान है, जो यह सोचने पर मजबूर करती है कि इक्कीसवीं सदी के इस तथाकथित ‘विकसित’ दौर में भी हम उस प्राथमिक आवश्यकता-भोजन को सुनिश्चित नहीं कर सके हैं, जो किसी भी आदर्श शासन-व्यवस्था एवं सभ्यता की बुनियादी कसौटी है। एफएओ के अनुसार, दुनिया भर में 70 करोड़ से अधिक लोग गंभीर भूख का शिकार हैं, जबकि करीब 2 अरब लोग मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे हैं। अफ्रीका, दक्षिण एशिया, लैटिन अमेरिका और युद्धग्रस्त क्षेत्रों में हालात और भी बदतर हैं। बच्चों में कुपोषण और स्टंटिंग (विकास अवरोध) की दरें चिंताजनक हैं।
समूची दुनिया में विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। बुनियादी ढांचे से लेकर प्रौद्योगिकी के विकास में कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई जैसी तकनीक की नई-नई मिसाल कायम की जा रही हैं। किसी अन्य ग्रह पर जीवन की खोज करने या फिर भविष्य में चांद पर बस्ती बसाने के दावे भी किए जा रहे हैं। मगर, क्या वास्तव में विकास का पैमाना यही है? विकास की इस धारा में इंसान एवं इंसान की मूलभूत जरूरतें कहां है? यह कैसा विकास है कि जिसमें विसंगतियां एवं विरोधाभास ही अधिक है। एक तरफ विभिन्न देश तकनीक के सहारे खुद के ताकतवर एवं साधन संपन्न होने का दावा कर रहे हैं, तो दूसरी ओर दुनिया में करोड़ों लोग भुखमरी, बेरोजगारी से जूूझ रहे हैं। बढ़ती भूखमरी एवं कुपोषण आधुनिक विकास पर एक बदनुमा दाग है। इस वैश्विक संकट की जड़ में केवल खाद्यान्न की कमी नहीं, बल्कि युद्ध, आंतरिक संघर्ष, आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता जैसी स्थितियां गहराई से जिम्मेदार हैं।
यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते गेहूं, तेल, उर्वरक और अन्य खाद्य सामग्री की वैश्विक आपूर्ति प्रभावित हुई है। अफगानिस्तान, सीरिया, सूडान, यमन और सोमालिया जैसे देशों में वर्षों से चल रहे युद्धों ने लाखों लोगों को बेघर, बेरोजगार और भूखा बना दिया है। अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में आंतरिक संघर्ष और जलवायु आपदाएं खाद्य संकट को और विकराल बना रही हैं। भुखमरी के वैसे तो कई कारण हो सकते हैं, लेकिन दो देशों के बीच युद्ध और आंतरिक संघर्ष प्रमुख है। इन दो कारणों से ही बीस देशों में करीब 14 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। जाहिर है, लगातार जारी युद्धों, अंतरराष्ट्रीय संघर्षों एवं आतंकवाद की वजह से हालात और ज्यादा बदतर हो रहे हैं। युद्ध प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को राहत के तौर पर खाद्य सामग्री पहुंचाने में भी तरह-तरह की अड़चनों की खबरें भी आती रहती हैं। इस तरह के प्रयास वास्तव में मानवीय संवेदनाओं के दम तोड़ देने द्योतक हैं।
जलवायु परिवर्तन, बाढ़, सूखा, चक्रवात और असामयिक वर्षा जैसे कारक कृषि उत्पादन को प्रभावित कर रहे हैं। भारत, नेपाल, पाकिस्तान, जैसे देशों के पहाड़ी और मैदानी इलाकों में मानसून के दौरान होने वाली आपदाएं किसानों की मेहनत को तबाह कर देती हैं। इससे खाद्यान्न उत्पादन घटता है, महंगाई बढ़ती है और आम आदमी की थाली सूखने लगती है। संसाधनों के अभाव और संकटग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन की डगर जटिल से जटिलतर हो गई है। रपट में सामने आया है कि 2024 में लगातार छठे वर्ष दुनिया में गंभीर खाद्य संकट और बच्चों में कुपोषण बढ़ा है। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले वर्ष 53 देशों या क्षेत्रों के 29.5 करोड़ लोग गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहे थे। यह आंकड़ा वर्ष 2023 के मुकाबले 1.37 करोड़ अधिक है। यानी सुधार के बजाय स्थिति पहले से कहीं अधिक खराब हो गई है।
आधुनिक विकास के प्रारूप पर चिन्तन करना होगा। यह विचारणीय प्रश्न है कि विकास के इस प्रारूप में बड़े-बड़े मॉल बन रहे हैं, शहरों में चमचमाती इमारतें खड़ी हो रही हैं, तकनीक और एआई की बात हो रही है, लेकिन दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। भुखमरी बढ़ रही है, कुपोषण आम होता जा रहा है, बेरोजगारी चरम पर है, महंगाई ने गरीब की थाली से दाल-सब्जी गायब कर दी है। विकास का यह विरोधाभासी चेहरा दिखाता है कि संसाधनों का वितरण असमान है और नीतियां गरीबों की भूख मिटाने की बजाय अमीरों की संपत्ति बढ़ाने में लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजीएस) में 2030 तक ‘भूखमुक्त विश्व’ का सपना देखा गया था, लेकिन वर्तमान हालात यह संकेत दे रहे हैं कि हम इस लक्ष्य से दूर होते जा रहे हैं। गरीब देशों को खाद्य सहायता की आवश्यकता है, लेकिन विकसित राष्ट्र अपने राजनीतिक एवं आर्थिक स्वार्थों में उलझे हुए हैं। कृषि को प्राथमिकता देने के बजाय, हम स्मार्ट सिटी, हाईवे और बुलेट ट्रेन जैसे प्रोजेक्ट में संसाधन झोंक रहे हैं।
महंगाई और बेरोजगारी से उपजी विकट आर्थिक स्थितियां भी भुखमरी के लिए जिम्मेदार हैं। रपट में कहा गया है कि इन दोनों कारणों से पंद्रह देशों में 5.94 करोड़ लोगों का जीवन संकट में है। इसके अलावा, सूखा और बाढ़ ने 18 देशों में 9.6 करोड़ लोगों को खाद्य संकट में धकेल दिया है। अधिक चिन्ताजनक यह है कि इन लोगों को खाद्य एवं पोषण सहायता के लिए मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मदद में भी भारी गिरावट आई है। ऐसा लगता है कि वैश्विक मदद और राजनीतिक इच्छाशक्ति की सांसें धीरे-धीरे उखड़ रही हैं। ऐसे में जबरन विस्थापन भुखमरी के संकट को और बढ़ा रहा है। इस जटिल से जटिलतर होती समस्या के समाधान के लिये व्यापक प्रयत्नों की अपेक्षा है। इन प्रयत्नों में सबसे जरूरी है कि स्थायी कृषि नीति बनानी होगी जिसमें जल संरक्षण, जैविक खेती और छोटे किसानों की सुरक्षा पर बल दिया जाए। युद्ध और संघर्षों का समाधान कूटनीति और संवाद से निकाला जाए, क्योंकि सबसे बड़ी कीमत आम जनता चुकाती है। भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार की तरह लागू किया जाए, और सभी देश एक वैश्विक खाद्य भंडारण व वितरण प्रणाली विकसित करें। गरीबी उन्मूलन पर ठोस योजनाएं बने, ताकि लोग आत्मनिर्भर बनें और भीख या राहत पर निर्भर न रहें। महंगाई पर नियंत्रण, और गरीबों को सब्सिडी आधारित खाद्यान्न व्यवस्था को और मजबूत करना होगा।
एफएओ की रिपोर्ट में एक और भयावह तस्वीर सामने आती है कि दुनिया भर में उनतीस करोड़ से अधिक लोग ऐसे हालात में जी रहे हैं, जहां उनके लिए एक वक्त का भोजन जुटा पाना भी मुश्किल है। साफ है कि समाज का सबसे कमजोर तबका आज भी संघर्ष, महंगाई, प्राकृतिक आपदा और जबरन विस्थापन जैसी समस्याओं के चक्रव्यूह में कैद है। यदि हमने समय रहते भूख, गरीबी और खाद्य असुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी, तो हम विकास के उस नक्शे पर एक गहरा धब्बा छोड़ेंगे, जिसमें ऊंची इमारतें तो होंगी लेकिन उनके नीचे भूख से दम तोड़ते इंसान भी होंगे। ‘एक रोटी की कीमत तब समझ आती है, जब भूख कई रातों से जाग रही हो’-इसलिये अब समय है कि हम विकास के मायने बदलें ताकि हर थाली में भोजन हो, हर बच्चा कुपोषण से मुक्त हो, और भूख इतिहास की बात बन जाए, वर्तमान की नहीं। विकास की इक्कीसवीं सदी में भी अगर भुखमरी, कुपोषण एवं खाद्य संकट की समस्या विकराल होती जा रही है, तो यह व्यवस्था के साथ-साथ मानवता के लिए भी खतरे की घंटी है। इस समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि संकटग्रस्त इलाकों में स्थानीय खाद्य प्रणालियों और पोषण सेवाओं में निवेश पर जोर दिया जाए। समय आ गया है कि विभिन्न देशों की सरकारें जनकल्याण की योजनाओं की व्यापक समीक्षा करें और भुखमरी को दूर करने के लिए उचित एवं प्रभावी उपाय किए जाएं।