मैं और हम

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-विजय कुमार-   deendayalji
लोकसभा चुनाव निकट होने के कारण प्रचार, प्रसार और विज्ञापन-युद्ध प्रारम्भ हो गया है। कुछ दिन पूर्व समाचार पत्रों में सोनिया कांग्रेस की ओर से राहुल बाबा के चित्र वाला एक विज्ञापन ‘मैं नहीं, हम’ प्रकाशित हुआ था। इसके द्वारा भाजपा और नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाकर यह कहा गया कि वहां पूरा दल और उसके कार्यक्रम एक व्यक्ति के आसपास घूमते हैं, जबकि कांग्रेस में सामूहिक निर्णय लिये जाते हैं। इसके प्रकाशित होने पर भाजपा ने कांग्रेस पर कटाक्ष किया कि उसने हमारा विचार चुरा लिया है। उन्होंने नरेन्द्र मोदी का एक पुराना पोस्टर भी जारी किया, जिसमें यह वाक्य लिखा है। मेरे स्मृतिकोष में इस सम्बन्धी एक प्रसंग है, जिसका चुनाव से तो नहीं, पर श्री दीनदयाल उपाध्याय से गहरा सम्बन्ध है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यप्रणाली में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए कई शिविर लगाये जाते हैं। दिसम्बर और जनवरी की भीषण सरदी में ‘शीत-शिविर’, तो मई-जून की भीषण गरमी में २० से ३० दिन के ‘संघ शिक्षा वर्ग’ होते हैं। आजकल संघ का प्रभाव बढ़ने से शिविर के लिए बिजली, पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं वाले विद्यालय आदि मिल जाते हैं; पर २०-३० साल पहले शीत-शिविर पटकुटियों में लगते थे। कई बार इस दौरान वर्षा हो जाने से जो आनंद आता था, वह कल्पनातीत है। ऐसे कई शिविरों का मजा मैंने भी उठाया है। यह प्रसंग १९६८ के एक शिविर का है, जो बाद में हुई एक दुर्घटना के कारण ऐतिहासिक बन गया।
उ.प्र. का बरेली नगर बांस और उसके फर्नीचर के लिए प्रसिद्ध है। यहां के स्टेडियम में १९६८ की जनवरी के अंतिम दिनों में एक शिविर लगा था। उसके समापन में संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री दीनदयाल उपाध्याय का भाषण हुआ था, जिसका विषय था ‘मैं और हम’।
दीनदयाल जी कुछ मास पूर्व ही केरल के कालीकट नगर में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘भारतीय जनसंघ’ के अध्यक्ष चुने गये थे। बरेली के इस शिविर के बाद वे लखनऊ गये और कुछ दिन वहां रुककर रेलगाड़ी से पटना जा रहे थे कि मार्ग में मुगलसराय स्टेशन पर ११ फरवरी को उनकी हत्या कर दी गयी। इस प्रकार शिविर का वह भाषण उनके जीवन का अंतिम भाषण बन गया।
उस भाषण में दीनदयाल जी ने मुख्यत: महाभारत युद्ध को आधार बनाकर ‘मैं और हम’ के साथ ही ‘धर्म और अधर्म’ की व्याख्या की थी। उन्होंने बताया कि पांडव पक्ष के सभी लोग ‘हम’ के पक्षधर थे, जबकि कौरव पक्ष में सब ‘मैं’ वाले थे। इसलिए ‘मैं’ के पक्ष को अधर्म का पक्ष माना जाता है और उसकी पराजय हुई, जबकि ‘हम’ का विचार धर्म का विचार होने के कारण विजयी हुआ।
युद्ध में दोनों ही पक्ष के योद्धाओं की निजी प्रतिज्ञाएं थीं; पर पांडवों ने श्रीकृष्ण के निर्देश पर सामूहिक हित के लिए अपमान और कलंक सहकर भी अपनी प्रतिज्ञा छोड़ी; पर कौरवों ने ऐसा नहीं किया। जब मैदान में अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन को मोह हुआ, तो श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि तू अपने तक ही सोचता है, तो यह अधर्म है। धर्म का अर्थ व्यक्ति का नहीं, समष्टि का हित है। इससे अर्जुन का मोहभंग हुआ और वह युद्ध के लिए तैयार हुआ।
श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा थी कि वे युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएंगे; पर एक दिन जब भीष्म पितामह गाजर-मूली की तरह पांडव सेना को काट रहे थे, तो उन्होंने सुदर्शन चक्र उठा लिया। यद्यपि उसके प्रयोग की नौबत नहीं आयी, चूंकि उसके सामने भीष्म नतमस्तक हो गये और ऐसे में सुदर्शन चक्र काम नहीं करता था।
भीष्म के बाद द्रोणाचार्य सेनापति बने। उन्हें मारने के लिए श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा नामक हाथी को मरवा दिया। फिर भीम जोर से चिल्लाये, “अश्वत्थामा मारा गया, अश्वत्थामा मारा गया।” द्रोणाचार्य के पुत्र का नाम भी अश्वत्थामा ही था। पुत्रस्नेह के कारण द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा थी कि पुत्र की मृत्यु के बाद वे भी जीवित नहीं रहेंगे। अत: उन्होंने इसकी सत्यता जांचने के लिए युद्धिष्ठिर से पूछा।
युद्धिष्ठिर का व्रत था कि वे सदा सत्य बोलेंगे; लेकिन श्रीकृष्ण के कहने पर उन्होंने बात को घुमाते हुए कहा, “अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा” (अश्वत्थामा मारा गया। पता नहीं, वह नर है या हाथी)। बात पूरी होने से पहले ही श्रीकृष्ण ने शंख बजा दिया। द्रोणाचार्य केवल ‘अश्वत्थामा हतो’ ही ठीक से सुन सके और उन्होंने शस्त्र रख दिये। यह देखकर धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया। कहते हैं कि केवल इतना झूठ बोलने से ही युद्धिष्ठिर का धरती से चार इंच ऊपर चलने वाला रथ नीचे आ गया।
इसी प्रकार भीम ने भी नियम के विरुद्ध दुर्योधन की कमर से नीचे गदा मारी। श्रीकृष्ण के परम सखा अर्जुन ने शिखंडी के पीछे छिपकर भीष्म पितामह को मारा। जब कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धंस गया था, तो नि:शस्त्र अवस्था में उसका वध किया। अर्जुन की प्रतिज्ञा थी कि यदि कोई उसके गांडीव धनुष की निंदा करेगा, तो वह उसे मार देगा। एक दिन पांडव पक्ष की भारी क्षति होते देख क्रोध में युद्धिष्ठिर ने ही अर्जुन और गांडीव की निंदा कर दी। ऐसे में श्रीकृष्ण ने अपनी वाक्चातुरी से प्रतिज्ञा की दूसरी व्याख्या कर पहले युद्धिष्ठिर और फिर अर्जुन की प्राणरक्षा की।
महाभारत में ऐसे कई प्रसंग हैं, जहां पांडवों ने अपने पक्ष की जीत के लिए ‘मैं’ को छोड़कर ‘हम’ का पालन किया, जबकि कौरव पक्ष में सबके लिए अपनी निजी प्रतिज्ञा महत्वपूर्ण थी, अपने पक्ष की जीत नहीं। अर्थात एक पक्ष में होने के बाद भी वे अलग-अलग थे।
श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को भीष्म पितामह के पास भेजा, तो सेनापति होते हुए भी उन्होंने अपनी मृत्यु का रहस्य बता दिया। द्रोणाचार्य भी पुत्रमोह की प्रतिज्ञा के कारण मारे गये। अन्यथा इन दोनों को मारना असंभव था। दुर्योधन शुरू से ही कर्ण को सेनापति बनाना चाहता था; पर भीष्म और द्रोणाचार्य ने साफ कह दिया कि वे सूतपुत्र के नेतृत्व में नहीं लडेंगे। अत: कर्ण ने भी इनके नेतृत्व में लड़ने से मना कर दिया। इसलिए भीष्म और फिर द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद कर्ण सेनापति बना और तब ही वह युद्धक्षेत्र में आया।
कर्ण को अपनी दानवीरता पर गर्व था। इसीलिए उसने अपने कवच और कुंडल इंद्र को दे दिये, जबकि सूर्य ने उसे पहले ही बता दिया था कि अर्जुन की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए इंद्र छद्मवेश में इन्हें मांगने आयेगा। कुंती ने भी लोकलाज छोड़कर कर्ण को यह बता दिया कि वह कुमारी अवस्था में जन्मा उसका सबसे बड़ा पुत्र है। इस पर कर्ण ने यह वचन दिया कि वह अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी को नहीं मारेगा, जिससे वह फिर भी पांच पुत्रों की माता बनी रहेंगी। युद्ध में कई बार ऐसा हुआ, जब युद्धिष्ठिर, भीम, नकुल या सहदेव को वह मार सकता था; पर उसने ऐसा नहीं किया; लेकिन जब अर्जुन को मौका मिला, तो उसने नि:शस्त्र पर वार करने का कलंक माथे पर लेकर भी उसे मारने में विलम्ब नहीं किया।
पांडवों के मामा शल्य को दुर्योधन ने छलपूर्वक मार्ग में बने अपने स्वागत पंडाल में ठहरा लिया। अत: उन्हें कौरवों की ओर से लड़ना पड़ा। वे एक कुशल सारथी थे। अत: दुर्योधन ने उन्हें कर्ण का सारथी बना दिया; पर अर्जुन के प्रति प्रेम होने के कारण वे सदा उसके गुण गाते रहते थे। इससे कर्ण का मनोबल सदा गिरा रहा।
महाभारत में पांडवों ने ‘मैं’ के बदले ‘हम’ को महत्व दिया, इसलिए वे जीते, जबकि अधिक सेना होते हुए भी कौरव हार गये। किसी भी सामूहिक कार्य में ‘मैं’ के प्रभावी होने पर एक और एक मिलकर ‘दो’ होते हैं; पर ‘हम’ के प्रभाव में वे ‘ग्यारह’ हो जाते हैं। राष्ट्रभाव छोड़ने पर ‘मैं’ का असर दशमलव की तरह होता है। फिर चाहे जितने अंक आगे लगाएं, उनका मूल्य घटता ही जाता है।
किसी की हत्या करने वाले को जेल और फांसी मिलती है; पर सैनिकों को शत्रुओं को मारने पर पुरस्कार मिलते हैं। जासूसों को कई ऐसे काम करने पड़ते हैं, जो सामान्य जीवन में अपराध हैं; पर देश हित में होने के कारण वे क्षम्य होते हैं। आत्महत्या करना अच्छा नहीं है। कानूनी रूप से भी यह अपराध है; पर देश और धर्म के हित में मृत्यु को गले लगाने वाले हकीकत राय और गुरु तेगबहादुर से लेकर भगतसिंह आदि क्रांतिवीरों को लोग पूजते हैं। चाणक्य के अनुसार –
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।
(कुल के लिए अपना, ग्राम के लिए कुल का, जनपद के लिए ग्राम का और आत्मा के लिए पृथ्वी का हित त्याग देना चाहिए।)
दीनदयाल जी के निधन के बाद टेप रिकार्डर पर वह भाषण कई जगह सुनाया गया था। बहुत छोटा होने पर भी मुझे अपने नगर में हुआ कार्यक्रम याद है। यद्यपि भाषण का विषय तो बाद में पुस्तकों से समझ में आया कि किसी भी देश और समाज की प्रगति का अर्थ ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर निरन्तर चलने वाली यात्रा ही है।
नरेन्द्र मोदी और राहुल बाबा या फिर भा.ज.पा और सोनिया कांग्रेस में से कौन ‘मैं’ या ‘हम’ का पक्षधर है, इसका निर्णय तो जनता ही करेगी; पर इस बहाने राजनीतिक कीचड़ में कमल की तरह निर्लिप्त रहे एक मनीषी की याद जरूर आ गयी। पुराना होने पर भी यह विषय सार्वकालिक है। यदि वह टेप कहीं सुरक्षित हो, तो अंतरजाल पर वह भाषण फिर उपलब्ध कराना चाहिए।
लोकसभा के चुनाव इस बार एक निर्णायक घड़ी में होने जा रहे हैं। अत: यह कहना भी यहां समीचीन होगा कि निजी हित, मान और अपमान अर्थात ‘मैं’ से ऊपर उठकर देश, धर्म और समाज हित अर्थात ‘हम’ की बात करने वाले दल को वोट देना ही दीनदयाल जी के सच्चे अनुयायी होने की कसौटी है।

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