काश! हिन्दी की महत्ता कम्युनिस्ट पार्टियां समझतीं

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

सबसे पहले मैं अपने एक पाठक की टिप्पणी पर ध्यान देना चाहूँगा । उन्होंने एक बड़ी समस्या की ओर ध्यान खींचा हैं। लिखा है- “भारत गांवों का देश है। यहां की ग्रामीण जनता मुख्‍य रूप से हिन्‍दी बोलती है और उसका मुख्‍य पेशा कृषि है। लेकिन मुझे लगता है कि भारत के कम्‍युनिस्‍टों ने दोंनों में से किसी का साथ नहीं दिया – न हिन्‍दी का, न ही कृषि का। गांवों का भी नहीं। अपने प्रयोजन के लिए इनका इस्‍तेमाल खूब किया, लेकिन इन्‍हें मजबूती नहीं दी।”

मैं इस बात से बुनियादी तौर पर सहमत हूँ कि हिन्दी के लिए कम्युनिस्टों ने ज्यादा कुछ नहीं किया। मैं इस पूरी समस्या को कुछ बड़े फलक पर रखकर देखना चाहूँगा। इस समस्या का एक पहलू है जो कम्युनिस्ट पार्टी के संगठनों से जुड़ा है ,दूसरा पहलू वह है जो मार्क्सवादियों के ज्ञानकांड से जुड़ा है। यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने संगठन के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कम काम किया है। इससे भी बड़ा सच यह है कि हिन्दीभाषीक्षेत्र के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों, खासकर हिन्दी के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, भाषा, आलोचना आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है।

हिन्दी की तस्वीर सिर्फ राजनीतिक प्रौपेगैण्डा के आधार पर नहीं बनायी जानी चाहिए। यह सच है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्टों के प्रचार के माध्यम बेहद कमजोर हैं। उसका ही यह दुष्परिणाम है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट संगठन सिकुड़ते चले गए हैं। हिन्दी में प्रचारतंत्र की महत्ता का अभी कम्युनिस्ट पार्टियों में बोध ही पैदा नहीं हुआ है। फलतः कम्युनिस्ट आंदोलन का हिन्दीभाषी क्षेत्र में विकास नहीं हो पाया है। साथ ही अभी जो नेतृत्व है उसकी हिन्दीभाषी यथार्थ पर पकड़ कम है। इन इलाकों के संगठनकर्ताओं के प्रति उनके मन में समानता के भाव का अभाव है। वरना यह कैसे संभव है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र से माकपा के पोलिटब्यूरो में एक भी सदस्य में न हो ! माकपा जैसी विशाल पार्टी में 50 करोड़ की आबादी का पोलिट ब्यूरो में कोई भी व्यक्ति न होना

यह इस बात का संकेत है कि पार्टी अभी भी संगठन बनाने के मामले में पुराने ढ़ंग से सोचती है। उसके पास पिछड़े क्षेत्रों से केन्द्रीय नेतृत्व में ऊपर लाने के लिए संतुलित समझ का अभी तक विकास नहीं हुआ है अथवा यो कहें कि वह अभी क्षेत्रीय दबाबों में दबी पड़ी है। आज भी उनका मानना है कि जिन इलाकों में संगठन ज्यादा मजबूत है उन इलाकों से ही सर्वोच्च नेतृत्व में लोग रखे जाएंगे। इस आधार पर तो कभी भी पिछड़े इलाकों से प्रतिभावान मार्क्सवादी ऊपर नहीं आ पाएंगे।

संगठन में क्षेत्रवाद असंतुलन पैदा करता है। संगठन निर्माण में समानता के सिद्धांत का पालना किया जाना चाहिए। कोई भी तरीका निकालकर हिन्दीभाषी क्षेत्र के अनुभवी और मेधावी कॉमरेडों को पोलिट ब्यूरो में अन्य मजबूत इलाके के संगठकों के बराबर स्थान मिलना चाहिए। इससे हिन्दी भाषी राज्यों को तरक्की की मौका मिलेगा।

हिन्दी के उत्थान और उसे जनप्रिय बनाने के लिए हिन्दी के मार्क्सवाद से प्रभावित लेखकों ने जितना काम किया है उतना काम किसी अन्य ने नहीं किया है। हिन्दी के श्रेष्ठ समीक्षक, पत्रकार, लेखक, आलोचक, कवि, कहानीकार, उपन्यालकार, शोधकर्ता आदि मार्क्सवादियों के यहां ही पैदा हुए हैं। आधुनिककाल का हिन्दी साहित्य का विमर्श हो या इतिहास लेखन हो इस मामले में हिन्दीभाषी समाज का योगदान अतुलनीय है। राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, यशपाल, मुक्तिबोध आदि की परंपरा में सैंकड़ों लेखक हिन्दी में हैं जिन पर मार्क्सवाद का असर है और वे उसके प्रति आस्था भी रखते हैं। यह एक ऐसे समाज में पैदा हुए लेखक हैं जहां कम्युनिस्ट आंदोलन बेहद कमजोर है। कमजोर आंदोलन और शानदार साहित्य परंपरा का असंतुलित विकास हिन्दी में ही संभव है। यह विरल फिनोमिना है।

हिन्दीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी की कोई दीर्घकालिक सांगठनिक नीति नहीं रही है इसके कारण भी समय-समय पर इस क्षेत्र में पैदा हुए कम्युनिस्ट उभार की रक्षा केन्द्रीय नेतृत्व नहीं कर पाया है। विभिन्न किस्म की गुटबाजियों और इरेशनल बातों को आधार बनाकर प्रतिभावान कम्युनिस्टों को हाशिए पर डालना,उनकी उपेक्षा करना,पार्टी से निकालना, निंदा करना आदि सामंती हथकंड़ों का व्यक्तिगत पंगे और स्कोर हासिल करने के लिए इस्तेमाल होता रहा है, इसके कारण बिहार, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में जमे-जमाए आंदोलन को सुचिंतित ढ़ंग से नष्ट किया गया। इसका ही यह परिणाम है कि आज इन राज्यों कम्युनिस्ट ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलते।

याद रखें एक कम्युनिस्ट को तैयार करने में बड़ा समय लगता है और हमारे बड़े कम्युनिस्ट नेता महज किसी सामान्य बात को असामान्य बनाकर उस व्यक्ति को निकाल देते हैं जिसने खून पसीना एक करके संगठन बनाया होता है। वे भूल जाते हैं कि संगठन बनाने वाले को निकालने का अर्थ है संगठन की आत्मा को निकाल देना। संगठनकर्ता की आत्मा के बिना संगठन बेजान होता है.कागजी होता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान आदि में कुछ-कुछ ऐसा ही घटा है। इसका असर हिन्दीभाषी समाज पर भी पड़ा है। आज हिन्दीभाषी समाज में युवाओं, बुद्धिजीवियों, स्त्रियों, किसानों आदि में प्रभाव पैदा करने वाले कम्युनिस्टों का अकाल है। जबकि एक जमाने में हिन्दीभाषी क्षेत्र में ऐसा नहीं था।

कम्युनिस्ट पार्टियों के केन्द्रीय नेतृत्व की मानसिकता यह है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र पिछड़ा है,यहां प्रतिभाशाली कम्युनिस्ट नहीं हैं। हिन्दी वाले सांस्कृतिक -राजनीतिक तौर पर पिछड़े हैं अतः उन्हें उपेक्षित रखो। इस बीमारी ने एक खास किस्म का गैर हिन्दीभाषी विवेक कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं में पैदा किया है। इसके कारण कम्युनिस्ट पार्टियां आज भी हिन्दीभाषी क्षेत्र में पनप नहीं पायी हैं। इस मामले में कम्युनिस्टों को अपने शत्रुओं से सीखना चाहिए। खासकर आरएसएस से सीखना चाहिए।

कम्युनिस्ट पार्टियों की मुश्किल यह है कि केन्द्रीय नेतृत्व अंग्रेजी प्रेम में डूबा हुआ है। जहां संगठन मजबूत है मसलन केरल,पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वहां स्थानीय भाषा के आग्रहों में डूबे हुए हैं। जाहिर है अंग्रेजी, मलयालम, बांग्ला, त्रिपुरी से आप भारत की जनता के पास नहीं पहुँच सकते। मेरे लिए यह आश्चर्य और बेहद तकलीफ की बात है कि ईएमएस जैसा महापंडित कई दशक तक दिल्ली में रहने के बाबजूद हिन्दी में बोलना नहीं सीख पाया। पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री एक भी बार हिन्दी में बोलने की केशिश नहीं करता। मैं अभी तक यह समझने में असमर्थ हूँ कि जिस भाषा को भारत की संपर्कभाषा माना जाता है उसके प्रति कम्युनिस्ट नेताओं का रूख मित्रतापूर्ण नहीं है।

आज भी कम्युनिस्ट पार्टी के हिन्दी अखबार बेहद खराब अवस्था में हैं। हिन्दी अखबार प्रकाशन के नाम पर अंग्रेजी अखबार का अनुवाद छापकर कम्युनिस्ट पार्टियां अपने कर्म की इतिश्री मान लेती हैं। वे यह महसूस ही नहीं करते कि हिन्दी अनुवाद की भाषा नहीं है। जाहिर है जब वे हिन्दी के बारे में महसूस ही नहीं करते तो देश की जनता के बड़े हिस्से तक उनकी पहुँच नहीं हो पाएगी।

कम्युनिस्ट पार्टियां जब तक हिन्दीभाषी क्षेत्र को प्राथमिकता नहीं देतीं। हिन्दी के प्रति समानता और सम्मान का व्यवहार नहीं करतीं। अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के मोहजाल से बाहर नहीं आतीं तब तक हिन्दीभाषी राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों के विकास की संभावनाएं कम हैं। केन्द्रीय नेतृत्व के गैर-कम्युनिस्ट व्यवहार के कारण बिहार, यू.पी. और राजस्थान में संगठन तबाह हो चुके हैं। भविष्य में इसके कारण हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और मध्यप्रदेश के संगठन भी नष्ट हो सकते हैं।

2 COMMENTS

  1. सारे खबरों में अंग्रेजी के खिलाफ होने पर भी यह वेबसाइट पते में अंग्रेजी क्यों रखती है? उदाहरण इस लेख का ही लेते हैं-
    https://www.pravakta.com/i-wish-communist-parties-consider-themselves-the-importance-of-हिंदी में ‘i-wish-communist-parties-consider-themselves-the-importance-of-hindi’ क्या है?

  2. jb hindi prdeshon ki janta saakshar ho jayegi to apne mukti ke saadhan jarur talash legi …hnidi ke liye saamywad ne kuchh nahin kiya ….kintu hindi ne bhi aaj tk sirf poonjiwad ke bhadeton ko hi malamal kiya hai ….jahaa jahaa hidi waha waha saamprdaayikta ka bolwala kyon hai ?is par bhi prkash dalen …

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