अस्मिता, आत्मकथा, हिन्दी जाति और रामविलास शर्मा (1)

रामविलास शर्मा के जन्मदिन (10 अक्टूबर) पर विशेष

हिन्दी साहित्य में रामविलास शर्मा अस्मिता विमर्श के सबसे बड़े आलोचक हैं। हिन्दी में अस्मिता विमर्श स्त्रीसाहित्य और दलित साहित्य से आरंभ नहीं होता बल्कि रामविलास शर्मा के हिन्दी जाति विमर्श से आरंभ होता है। हिन्दी जाति की अवधारणा अस्मिता विमर्श का हिस्सा है और इस पर कोई बहस अस्मिता साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ही की जानी चाहिए। एक अन्य चीज समाजवादी पहचान की खोज का क्षेत्र भी इसके दायरे में आता है। रामविलास शर्मा ने समाजवाद के पक्ष में जो कुछ भी लिखा है वह भी मूलतःअस्मिता विमर्श के परिप्रेक्ष्य में लिखा है। वे वर्ग की अवधारणा के आधार पर सोचते हैं इससे यह समझ बनती है कि वे मार्क्सवादी हैं ,लेकिन इस प्रसंग में हम याद रखें कि वे वर्ग को अस्मिता के रूप में ही पेश करते हैं।कायदे से अस्मिता पर नहीं “अस्मिता साहित्य” की अवधारणा पर विचार करना चाहिए। इससे अस्मिता विमर्श पर समग्रता में विचार करने में सुविधा होगी। इससे नए पैदा हुए निजी और सार्वजनिक स्पेस को परिभाषित करने में मदद मिलेगी।

आत्मकथा

आत्मकथा इन दिनों फैशन में है। इसने पाठकों में ‘अन्य ‘के जीवन को जानने का आब्शेसन भी पैदा किया है। यह प्रवृत्ति टीवी से आई है। यह टेलीविजन का प्रधान ‘फ्लो’ है। एक जमाना था आत्मकथा को साहित्य में महत्व नहीं देते थे। आत्मकथा के केन्द्र में आने का प्रधान कारण है आमलोगों की ‘अन्य’ के निजी जीवन में बढ़ती दिलचस्पी।

‘अन्य’ के निजी जीवन में संचारक्रांति के बाद तेजी से दिलचस्पी बढी है। संचारक्रांति प्राइवेसी को महत्वपूर्ण विषय बनाती है। प्राइवेसी जानने के लिए लोग आत्मकथाओं को खोज-खोजकर पढ़ रहे हैं। पाठकों से लेकर आलोचकों तक सबकी दिलचस्पी इसके विधारूप में नहीं है, बल्कि ‘अन्य ‘ के निजी जीवन के गुप्त पहलुओं को जानने में है। यहां तक कि टेलीविजन पर चल रहे धारावाहिकों को रियलिटी टीवी ने काफी पीछे छोड़ दिया है। आत्मकथा की निजी आख्यानशैली पद्धति अपील कर रही है। इसके कारण कई आत्मकथा केन्द्रित धारावाहिक बेहद जनप्रिय रहे हैं।

खबरों से लेकर अन्य टीवी कार्यक्रमों में व्यक्तिगत विवरण और ब्यौरों के कार्यक्रमों में आम लोग खूब दिलचस्पी ले रहे हैं। यहां तक कि चैट शो में भी आत्मस्वीकारोक्तियां खूब आ रही हैं। ये चीजें कितनी बिखरी,सनसनीखेज और यहां तक कि क्रूरतापूर्ण है,इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है। ‘सच का सामना’ जैसे धारावाहिक में इसे देख सकते हैं। यहां पॉलीग्राफिक टेस्ट के जरिए व्यक्ति के सच -झूठ को खोजने की कोशिश की जाती है। इस कार्यक्रम का समूचा फॉरमेट अमेरिकी टीवी सीरियल ‘मूवमेंट ऑफ ट्रूथ’ से लिया गया है। इसमें व्यक्ति से निजी सवाल किए जाते हैं,पहले पॉलीग्राफिक टेस्ट लिया जाता है फिर दर्शकों के सामने बिठाकर वे ही सवाल किए जाते हैं और उनके उत्तर हासिल किए जाते हैं। ‘अन्य’ के निजी जीवन में बढ़ती दिलचस्पी बढ़ने एक अन्य कारक है ब्लॉगिंग और फेसबुक(सोशलमीडिया)।

अस्मिता साहित्य लोकतंत्र की देन है। लोकतंत्र के विकास के साथ अस्मिता विमर्श जुड़ा है। अस्मिता की राजनीति का सबसे बड़ा उभार तब सामने आता है जब भारत में आपातकाल की समाप्ति होती है। लोकतंत्र के प्रति पहले से भी ज्यादा पुख्ता संबंध और संपर्क बनते हैं। लोकतंत्र के पुख्ता होने के साथ हाशिए पर पड़े समूह एकत्रित होते हैं, अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अपने लिए सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक स्पेस की मांग करते हैं। पुराने किस्म का सामुदायिक या सामाजिकबोध अधूरा प्रतीत होता है। फलतः हाशिए के लोग नए किस्म की सामुदायिकता की हिमायत करते हैं। सामुदायिकता के नए पैरामीटर बनते हैं।

अस्मिता साहित्य और राजनीति में व्यक्ति का उत्पीड़न एक बड़ा विषय है। व्यक्ति के उत्पीड़न को ज्यादा से ज्यादा प्रामाणिक बनाकर पेश करने की ओर भी आम लेखकों का ध्यान गया । खासकर दलित लेखकों ने इस दिशा में काम किया।इस क्रम में अनेक दलित लेखकों और स्त्रीलेखिकाओं के निजी अनुभव सामने आए हैं। दलितों और स्त्रियों के अनुभवों में साझा तत्व है पितृसत्ता का उत्पीडन,अनुशासन और वर्चस्व।

इससे सबसे भिन्न रामविलास शर्मा के लेखन में अस्मिता विमर्श को मार्क्सवादी नजरिए से देखा गया है। वे वर्गीय नजरिए से जातिप्रथा पर विचार करते हैं। इस प्रसंग में उनकी दो किताबें खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। पहली है ‘इतिहास दर्शन’ (1995) और दूसरी है ‘गाँधी ,आम्बेडकर,लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’ ( 2000) । इन दोनों किताबों में उन्होंने अस्मिता के सवाल पर जातिप्रथा और उससे जुड़े सवालों पर वर्गीय नजरिए से विचार किया है।इसके अलावा उन्होंने कई साक्षात्कारों में भी अपनी राय व्यक्त की है।

इसके अलावा “भाषा और समाज” नामक किताब हिन्दी जाति की अवधारणा के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। साहित्य में पहले आत्मकथा पर विधा के रूप में ध्यान नहीं गया। उस पर बहुत कम लिखा गया। लेकिन हिन्दी में इस फिनोमिना को 1990 के बाद जनप्रियता मिली। इस क्रम में साहित्य के ढ़ाँचे में परिवर्तन आया। कम से कम यह कह सकते हैं रामविलास शर्मा ने आत्मकथा और जीवनी इन दोनों ही विधारूपों के निर्माण करके एक तरह सबको रास्ता दिखाया। रामविलास शर्मा ने सबसे पहले निराला की “साहित्य साधना” (1969) में जीवनकथा में निराला के निजी अनजाने पहलुओं का उदघाटन करने के साथ निजी पत्रों को भी शामिल किया। इसका दूसरा और तीसरा खंड़ 1972 में प्रकाशित किया। इसी तरह “घर की बात” ( 1983) के रूप में संपादित पुस्तक प्रकाशित की जिसमें अपने परिवार के अन्य लोगों के उनके बारे में लिखे निजी अनुभवों को शामिल किया गया है। संभवतः यह हिंदी में किस पुरूष लेखक के निजी विवरण और ब्यौरों को पेश करने का पहला प्रयास है। इसी तरह “बड़े भाई” के नाम से 1986 में संपादित किताब आई। बाद में आत्मकथा के रूप में “अपनी धरती अपने लोग” (1996) का तीन खंड़ों में प्रकाशन हुआ।

अस्मिता और जाति

रामविलास शर्मा ने लिखा है कि जातिप्रथा सिर्फ भारत की ही विशेषता नहीं है वह दुनिया के अन्य देशों में भी है। जिस तरह वह प्राचीनकाल में भारत में थी,वैसे ही यूनान में भी थी। रामविलास शर्मा ने लिखा है ‘यूनानी दार्शनिक प्लैटो की रचना रिपब्लिक (गणतंत्र) से भारतीय इतिहास के विवेचकों में गहरी दिलचस्पी होनी चाहिए। यह ऐसी किताब है जिसमें आदर्श समाजव्यवस्था कायम करने के लिए जातिप्रथा को आधार बनाया गया है।’

आमतौर पर अस्मिता साहित्य पर जब भी बात होती है तो उस पर हमें बार-बार बाबासाहेब आम्बेडकर के विचारों का स्मरण आता है। दलित लेखक अपने तरीके से दलित अस्मिता की रक्षा के नाम पर बाबा साहेब के विचारों का प्रयोग करते हैं। दलित लेखकों ने जिन सवालों को उठाया है उन पर बड़ी ही शिद्दत के साथ विचार करने की आवश्यकता है।

आम्बेडकर-ज्योतिबा फुले का महान योगदान है कि उन्होंने दलित को सामाजिक विमर्श और सामाजिक मुक्ति का प्रधान विषय बनाया।अस्मिता विमर्श का एक छोर महाराष्ट्र के दलित आंदोलन और उसकी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है ,दूसरा छोर यू.पी-बिहार की दलित राजनीति और सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ा है। अस्मिता विमर्श का तीसरा आयाम मासमीडिया और मासकल्चर के राष्ट्रव्यापी उभार से जुड़ा है। इन तीनों आयामों को मद्देनजर रखते हुए अस्मिता की राजनीति और अस्मिता साहित्य के विभिन्न पक्षों पर विचार करने की जरूरत है।

अस्मिता के सवाल आधुनिकयुग की देन हैं। आधुनिक युग के पहले अस्मिता की धारणा का जन्म नहीं होता। आधुनिककाल आने के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक करने और अपने अतीत को जानने-खोजने का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने अस्मिता विमर्श को संभव बनाया।

अस्मिता राजनीति में विगत 150 सालों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।खासकर नव्य आर्थिक उदारीकरण और उपग्रह मीडिया प्रसारण आने बाद परिवर्तनों का सिलसिला तेज हुआ है। उत्तर आधुनिकतावाद आने के साथ सारी दुनिया में उत्तर आधुनिक अस्मिता की धारणा का तो बबंडर ही चल निकला। मसलन् अस्मिता निर्माण के उपकरणों के रूप में मोबाइल,आई पोड,मर्दानगी आदि पर जमकर चर्चाएं हो रही हैं।

उत्तर आधुनिकता के साथ आई अस्मिता ने सेल्फ (निज ) के तरल, विखंडित, विश्रृंखलित,अ-केन्द्रित, अवसादमय, वर्णशंकर और वायवीय रूपों को जन्म दिया है। उत्तर आधुनिक अस्मिता का अर्थ है तर्क,सत्य,प्रगति और सार्वभौम स्वतंत्रता वाले आधुनिक आख्यान का अंत। इन दिनों अस्मिता के छोटे छोटे आख्यान केन्द्र में आ गए हैं। स्त्री से लेकर दलित तक,भाषा से लेकर संस्कृति तक,साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद, राष्ट्रवाद आदि तक अस्मिता के लघुप्रश्न केन्द्र में हैं।

अस्मिता का एक आयाम उपेक्षित रहा है वह है व्यक्तिवाद ।इसके कई रूप प्रचलन में हैं इनमें पहला रूप वह है जो स्वयं रामविलास शर्मा की आत्मकथा ‘ अपनी धरती अपने लोग’ और ‘निराला की साहित्य साधना’ में व्यक्त हुआ है। इन दोनों किताबों में लेखक के निर्माण की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन मिलता है। रामविलास शर्मा इन किताबों में लेखक की निजी पहचान तक सीमित रखते हैं। लेखक के निजी व्यक्तित्व की शक्ति को व्यक्तिवादी ढ़ंग से रेखांकित करते हैं।

यह ऐसा लेखकव्यक्तित्व है जो एक ओर सामाजिकता से बंधा है तो दूसरी ओर निजी व्यक्तिवादी नैतिकता से बंधा है। यह ऐसा व्यक्ति है जो सामाजिक तथ्यों की पुष्टि करता है। इन दोनों किताबों में ‘निजी’ और ‘ऐतिहासिक’ तत्वों के सहमेल से लेखकद्वय के व्यक्तित्व का निर्माण किया गया है। साथ ही इन दोनों किताबों में लेखकद्वय के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,आर्थिक कारकों का व्यापक विवेचन किया है।

लेखकद्वय की आत्मकथा-जीवनी में जिस व्यक्तिवाद को विकसित किया है वह स्थानीय लेखकों-संबंधियों-मित्रों-लेखकों –राजनेताओं-शिक्षकों आदि के संपर्कों से बना है। इनमें राजनीतिक वर्चस्व के रूपों का जिक्र भी चला आया है। साथ ही इसमें जो व्यक्तिवाद दिखाई देता है वह विचारधारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।यह ऐसा व्यक्तिवाद है जो छोटे शहरों में पला और बढ़ा है ।परंपरा की पकड़ से बाहर है।इन दोनों में रामविलास शर्मा और निराला दोनों ही गैर-परंपरागत और आधुनिक नजर आते हैं।

लेखकद्वय का व्यक्तिवाद पैसे के नियंत्रण से मुक्त है। दोनों की संचालकशक्ति पैसा और धर्म नहीं है। दोनों के यहां ‘निजी’ या ‘आत्म’ महत्वपूर्ण है। दोनों के ही ‘आत्म’ से जुड़े मुद्दे ही केन्द्र में हैं। यह ऐसा व्यक्ति है जो अपने व्यक्तित्व का स्वयं निर्माता है। हंसी-खुशी,सुख-दुख आदि का वह स्वयं सर्जक है। लेखकद्वय की विशेषता है कि वे अपने निजी व्यक्तित्व की विशेषताओं को नहीं खोते। दोनों में ‘इगो’ की समस्या है। यह ऐसा व्यक्ति है जो अपनी स्वाधीनता का भरपूर इस्तेमाल करता है। ‘निराला की साहित्य साधना’ में निराला की इमोशनल कमजोरियों का व्यापक जिक्र है। जबकि रामविलास शर्मा की आत्मकथा में इमोशनल कमजोरियां एकसिरे से गायब हैं।

लेखकद्वय अपने- अपने तरीके से आभामंडल बनाते हैं। रामविलास जी ने सचेत ढ़ंग से इन दोनों किताबों में मेनीपुलेशन की तकनीक का इस्तेमाल करते हुए दोनों में ही खास किस्म की साहित्यचेतना को रेखांकित किया है। खासकर रामविलास शर्मा की साहित्यचेतना को सुनियोजित ढ़ंग से प्रगतिवाद की संगति और प्रगतिशील मूल्यों की संगति में निर्मित किया है। दोनों किताबों में व्यक्तित्व निर्माण के ग्लोबल राजनीतिक तत्वों का इस्तेमाल किया है। खासकर लेखन में अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय प्रभावों को सहज ही देखा जा सकता है।

व्यक्ति किस तरह बनता है और वह विचारों को कैसे निर्मित करता है ? उसका सामाजिक-निजी जीवन कैसा है ? इसे हम व्यक्तियों के बहाने प्राचीन ग्रीस-यूनान से लेकर भारत के हिन्दीभाषीक्षेत्र तक फैले व्यापक फलक पर रखकर देख सकते हैं। जिन लेखकों-विचारकों पर रामविलास शर्मा ने किताबें लिखी हैं , वे हैं, निराला,प्रेमचन्द्र, रामचन्द्र शुक्ल,महावीरप्रसाद द्विवेदी ,गांधी,आम्बेडकर,लोहिया,हेगेल.मार्क्स ,सुकरात, अरस्तू,प्लेटो आदि । इन सभी किताबों में रामविलास शर्मा ने जिस उपकरण का इस्तेमाल किया है वह है इन लेखकों का ‘तार्किक सोच’ और उसके आसपास बन रही ‘सर्वसम्मति’।

‘तार्किक सोच’ और ‘सर्वसम्मति’ के आधार पर ही इन लेखकों के विचारधारात्मक संघर्ष और वैचारिक परिवेश की मीमांसा पेश की है। इस पूरे प्रसंग में जिस चीज को रामविलास शर्मा सबसे ज्यादा उभारते हैं वह है सार्वजनिक परिवेश। सार्वजनिक परिवेश के व्यापक चित्रों को पेश करके वे असल में बुर्जुआ विचारधारा के विस्तार का काम करते हैं।

बुर्जुआ विचारधारा का मूल मकसद है व्यक्ति के सार्वजनिक परिवेश का विस्तार। विगत 100 सालों में व्यक्ति के निजी और सार्वजनिक परिवेश में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है। सार्वजनिक परिवेश का विस्तार हुआ है। रामविलास शर्मा ने सार्वजनिक परिवेश(पब्लिक स्पेयर) के विस्तार के काम को एक ऐसे समय में विस्तार से पेश किया है जबकि चारों ओर से सार्वजनिक परिवेश को संकुचित करने के लिए ग्लोबल दबाब आ रहे थे।

खासकर टेलीविजन आने के बाद निजी और सार्वजनिक परिवेश,खासकर नागरिक संपर्क-संबंध कमजोर हुए हैं। जेनुइन राजनीतिक बहसों और नागरिक गोलबंदी का ह्रास हुआ है। टेलीविजन पर आने वाले चैट शो कुल मिलाकर नियोजित बहस के रूप हैं। ये सार्वजनिक परिवेश को निर्मित नहीं करते। क्योंकि ये नियोजन और नियमन के जरिए आते हैं। जब कि व्यक्ति के निजी परिवेश का सांस्थानिक औपनिवेशिकीकरण कर दिया गया है। यही वह परिवेश है जिसमें रामविलास शर्मा ने विभिन्न व्यक्तित्वों ,लेखकों और विचारकों के बहाने नए सिरे से निजी और सार्वजनिक परिवेश को परिभाषित करने की कोशिश की है।

अस्मिता,व्यक्तिवाद और सार्वजनिक परिवेश

अस्मिता,व्यक्तिवाद और सार्वजनिक परिवेश के अन्तस्संबंध को रामविलास शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘इतिहास दर्शन'(1995)में सुंदर ढ़ंग से पेश किया है। मसलन् सुकरात से आरंभ करते हैं और पहला ही उपशीर्षक देते हैं ‘समाज व्यवस्था से दर्शनशास्त्र की टक्कर’। सुकरात पर आरोप था कि वह अपने विचारों से नौजवानों को गुमराह करते हैँ। इसीलिए उनको प्राणदंड दिया गया था। सुकरात को जिस समय यह सजा दी गयी वे सत्तर साल की उम्र पार कर चुके थे। उन्होंने न्यायकर्ताओं की सभा में कहा था कि अभियोग लगाने वाले कुछ दिन सब्र करते तो वह वैसे ही विदा हो जाते।पर सुकरात के रूप में उन्हें ऐसा खतरा दीख रहा था कि वे सब्र करने को तैयार नहीं थे।

सवाल उठता है वे कौन लोग थे जो सुकरात की जान लेने पर तुले हुए थे ? सुकरात ऐसा क्या कहते थे जिससे इन लोगों की समझ में नौजवान गुमराह हुए जा रहे थे ? गुमराह हुए जा रहे थे तो ऐसा कौन सा संकट पैदा हो गया था कि उनकी जान लिये बिना काम न चलता ?

सुकरात के विचारों की ओर नौजवान इसलिए आकर्षित होते थे क्योंकि वे धार्मिक रूढ़िवाद को चुनौती देते थे।सुकरात पर अभियोग था कि वह नौजवानों को भ्रष्ट करते हैं,जिन देवताओं को नगरवासी मानते हैं, उन्हें वे नहीं मानते,उनके बदले वे अन्य देवताओं पर विश्वास करते हैं। सुकरात ने इन आरोपों को निराधार बताया।

सुकरात की खूबी क्या थी ? वे देवताओं के बारे में मनुष्यों की परंपरागत धारणाओं को चुनौती दे रहे थे। ये धारणाएँ उनके लिए उपयोगी थीं जो अवकाशभोगी थे,जो दूसरों के अंधविश्वासों से लाभ उठाकर उनका श्रम हड़प जाते थे। असल में सुकरात की विशेषता थी कि वे प्रचलित विश्वासों के प्रति शंका प्रकट करते थे। यानी सुकरात के मार्ग पर चलने के लिए क्या करें ? एक ही उत्तर है प्रचलित विश्वासों के प्रति शंका प्रकट करें।

यूनान में जमींदारों और सूदखोरों का मानना था कि लोग सामाजिक नियमों को विधान मानकर उनके अनुसार काम करते रहें ,क्या न्याय है ,क्या अन्याय है,कौन –से नियम न्यायपूर्ण हैं,कौन-से अन्यायपूर्ण,इसके बारे में जांच-पड़ताल न करें। लेकिन सुकरात ने यहीं से काम आरंभ किया था। सुकरात देवकथाओं पर आँखें बंद करके विश्वास नहीं करते थे। बल्कि नए सिरे से अनुसंधान करते थे।

सुकरात हर चीज पर शंका करते थे,सवाल खड़े करते थे। इसी तरह यूनान में एक शिक्षकों का समूह भी था जिसे सोफिस्तेस या अंग्रेजी में सौफिस्ट कहते थे।ये लोग फीस लेकर धनी परिवारों के युवाओं को शिक्षा देते थे। विशेष रूप से उन्हें तर्क-विद्या सिखाते थे। सुकरात को फीस देकर शिक्षा देना पसंद न था;इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि तर्क-वितर्क कौशल की अपेक्षा वह मनुष्य का सदाचारी और सच्चरित्र होना अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। सौफिस्टों की खूबी थी कि उन्होंने लोगों की तर्क-बुद्धि जगायी थी। प्रचलित मान्यताओं को परखना सिखाया था। वे व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन के सूत्रधार थे। सुकरात इन्हीं की परंपरा में आते थे। इनके प्रयासों के कारण स्वतंत्र चिंतन और व्यक्तिगत विवेक के जरिए आप्त वाक्यों को अपदस्थ किया। उल्लेखनीय है तर्क-विद्या में सुकरात ने सौफिस्टों से आगे जाकर मानक बनाए हैं।

रामविलास शर्मा ने लिखा है यूनान के दर्शनकार,सौफिस्ट और सुकरात ये तीनों एक ही सांस्कृतिक आंदोलन का अंग हैं। इन तीनों की साझा विशेषता है संसार के बारे में प्रचलित धारणाओं को चुनौती देना। सुकरात की एक अन्य विशेषता थी कि वे हर चीज की व्याख्या करते थे।सौफिस्ट की खूबी थी वे नैतिक और राजनैतिक प्रश्नों की चर्चा करके चुप हो जाते थे वहीं सुकरात का उद्देश्य था लोगों को सुधारना।

रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘ सुकरात लोगों को सुधारने पर तुले हुए थे,संपत्तिशाली लोग सुधरने को तैयार न थे। सुकरात ,जनता के बीच ,बाजार हाट में उनकी आलोचना करते थे। अब तक के तर्कशास्त्री न्याय,शासनतंत्र आदि की व्याख्या करके संतुष्ट हो जाते थे,सुकरात लोगों को सुधारना चाहते थे। व्यवस्था को बदले बिना लोगों को सुधारा न जा सकता था. सरकार बदलने से काम चलने वाला न था। जमींदारी गुट का शासन हो,लोकतंत्र हो,सुकरात की टक्कर दोनों से थी क्योंकि उनकी आलोचना का लक्ष्य संपत्तिशाली वर्गों वाली समाजव्यवस्था थी।’

रामविलास शर्मा ने लिखा है ‘सुकरात धाय के पुत्र थे। वह अपनी तर्क विद्या की तुलना धाय के कौशल से करते थे।धाय स्वयं बच्चा नहीं जनती,बच्चा जनने में दूसरों की सहायता करती है ।सुकरात कहते थे,ज्ञान के मामले में मैं बाँझ हूँ,देवता मुझे धाय का काम करने को बाध्य करते हैं ,उसने मुझे कभी बच्चा जनने नहीं दिया। अर्थात् सुकरात के पास कोई विचारों का खजाना नहीं है, वह तो दूसरों के दिमाग से निकलवाते हैं। सुकरात का मानना था कि दवा खिलाकर, मंत्र पढ़कर धाय गर्भवती के पेट में दर्द पैदा करती है जिससे प्रजनन संभव होता है। सुकरात के लिए कहा जा सकता था कि वह लोगों को अज्ञान का एहसास कराके इसी तरह उनके मन में दर्द पैदा करते थे।यूनान में धाय युवकों और युवतियों में उपयुक्त जोड़े ढूँढकर उनका विवाह संबंध भी निश्चित कराती थी।सुकरात का कहना था, मैं तो आदमी को परखने के बाद उसे ज्ञानी के पास ले जाकर छोड़ देता हूँ।’

सुकरात की विशेषता थी वे सामान्य जीवन के उदाहरणों के जरिए अपनी बात समझाते थे। उनकी बातचीत में हमेशा मोचियों,लद्दू गधों,लुहारों,चमड़ा बनाने वालों आदि का जिक्र रहता था। वे ज्ञान की परख की निगाह से देखते थे। आमतौर पर अपने बयानों में कारीगरों के अनुभवों का इस्तेमाल करते थे। यही वजह है कि उनसे जो भी बात करता था कारीगरों से स्वतः ही तादात्म्य स्थापित कर लेता था। गोर्गिअस की शब्दावली ” तुम्हारे कारीगरों ” में इसी तादात्म्य की झलक मिलती है।

सुकरात ने इसी झलक को उजागर करते हुए कहा, थेमिस्तोक्लेस के बारे में, हमें बताया गया है ; जहाँ तक पेरिक्लेस का संबंध है, “जब वह मध्य प्राचीर के बारे में हमें सलाह दे रहे थे ,तब मैंने स्वयं उन्हें सुना था।” सुकरात या तो कारीगरों के साथ खुद काम कर रहे थे या जहाँ काम हो रहा था,वहाँ खड़े सब कुछ देख सुन रहे थे।

सुकरात की दृष्टि में वक्तृत्व कला लोगों को प्रभावित करने की कला है। ‘ गोर्गिअस अपनी कला के प्रति आश्वस्त होकर कहते हैं,वक्तृत्व कला में जो व्यक्ति कुशल है,वह सभा को प्रभावित करके स्वयं को किसी भी पेशे के लिए नियुक्त करा सकता है;वह किसी भी प्रश्न पर , किसी के भी विरूद्ध ,इस ढंग से बोल सकता है कि बहुमत उसके पक्ष में हो जाये। सुकरात के लिए यह सिद्ध करना कठिन नहीं है कि वह बहुमत अज्ञानियों का होगा।इन्हें प्रभावित करने की कला मूल्यवान हो तो किसी चीज का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक न होगा; लोगों को प्रभावित कर लेना काफी होगा कि तुम्हारे पास इतना ज्ञान है ? सुकरात के अनुसार वक्तृत्वकला लोगों को खुश करने की कला है। बावर्ची ऐसा खाना पका सकता है जिससे खाने वाला खुश हो जाये पर वह उसके उपयुक्त है या अनुपयुक्त,यह तो वैद्य बता सकता है,बावर्ची नहीं।’

रामविलास शर्मा ने सुकरात के बहाने आधुनिक भारत के लिए उपयुक्त सार्वजनिक जीवन की परिकल्पना को रेखांकित किया है। इसके बहाने वे हमारे देश के सार्वजनिक स्पेयर या सार्वजनिक परिवेश को पुनर्परिभाषित करते हैं। उन्होंने लिखा है , ‘ सुकरात यदि लोकतंत्र के शासकों से संतुष्ट नहीं थे तो वे निरंकुश शासकों से और भी क्षुब्ध थे।वक्तृत्व कला के पक्ष में एक और बात कही गयी थी कि जिसके पास यह कला होती है,वह निरंकुश शासकों जैसा शक्तिशाली होता है।इस सिलसिले में मख़दूनिया के शासक आर्खिलाऑस का उदाहरण दिया जाता था। उसने वैध उत्तराधिकारी को मारकर राज्य पर अधिकार किया था। गद्दी पर बैठने के बाद उसने एथेन्स के अनेक संभ्रांत नागरिकों को आमंत्रित किया। और लोग गये,सुकरात ने उसके यहाँ जाने से इन्कार कर दिया। सुकरात का कहना था,सदाचारी का जीवन अच्छा है,भले ही उसमें कष्ट सहना पड़े। जिस व्यक्ति में दुर्गुण हों और वह उनसे मुक्त न हो सके, उसका जीवन सबसे खराब मानना चाहिए।’

आधुनिककाल में फासिस्ट,भ्रष्ट ,अपराधकर्मी और आततायी शासकों और व्यक्तियों के पक्ष में तरह तरह के तर्क दिए जाते हैं और उनका बड़े सलीके से मीडिया से लेकर साहित्य तक प्रचार किया जाता है। इन सबकी बड़ी तीखी आलोचना सुकरात के लेखन में मिलती है।सुकरात का मानना था भला और सदाचारी आदमी सुखी होता है,दुष्ट और अन्यायी नहीं।

वंशगत श्रेष्ठता और उसके आधार पर प्रशंसा को सुकरात एकदम पसंद नहीं करते थे। अभिजात वंश के लोगों में यह बीमारी है कि वंशगत आधार पर प्रशंसा करते हैं और चाहते हैं कि इसी आधार पर लोग उनकी प्रशंसा करें। भारत में यह बीमारी जातिगत आधार पर प्रशंसा में रूपान्तरित हो गई है। जातिगत महापुरूषों या पुरखों के आधार पर प्रशंसा करते हैं। सुकरात को यह सब नापसंद था। ऐसी प्रशंसा को सुकरात संकुचित दृष्टिकोण मानते थे।

फंडामेंटलिस्ट जिस तरह इन दिनों आक्रामक हुए हैं उसके खिलाफ रामविलास शर्मा में आक्रोश रहा है। फंडामेंटलिज्म किस तरह का वातावरण बनाता है ,और हमें क्या करना चाहिए। इसकी ओर रामविलास शर्मा ने सुकरात के बहाने ध्यान खींचा है।पुराने अभिजात और नए अभिजातवर्ग का फंडामेंटलिज्म से याराना है। उन्होंने लिखा है-

‘ अरिस्तोफनेस की नाटिका से सुकरात के प्रति इस वर्ग के शत्रुभाव की तीव्रता का अनुमान हो सकता है।किसान सुकरात से तर्क-विद्या सीखने गया था, अंत में वह समझ गया कि इस विद्या के सहारे उसका पुत्र उसे मारेगा। सुकरात नास्तिक है ,उसे अपने अपराध का दंड मिलना चाहिए। किसान कहता है, ” मैं भी कैसा पागल था।सुकरात के बहकावे में आ गया कि देवता नहीं हैं। … इन्हें कचहरी अदालत ले जाने की बात सोचना बेकार था। मैं सीधे जाकर दुष्टों की पाठशाला में आग लगा देता हूँ। ” वह छत पर चढ़कर आग लगाता है। एक छात्र कहता है; “तुम हमें जिन्दा जला दोगे !” किसान कहता हैः ” मैं ठीक यही करना चाहता हूँ यदि मेरे औजारों ने दगा न की और यदि पहले ही गिरकर मैंने अपनी गर्दन न तोड़ ली ।” सुकरात कहते हैः” तुम यहाँ छत पर क्या कर रहे हो ?” किसान कहता हैः” मैं हवा पर चल रहा हूँ और सूर्य का रहस्य भेद रहा हूँ।” उस किसान के अनुसार तत्ववादी दार्शनिक नास्तिक थे,सुकरात नास्तिक थे।इन्हें अदालत ले जाना बेकार है। सीधे इनके घर में आग लगानी चाहिए।”

” धुएँ में लोगों का दम घुटने लगता है,वे पाठशाला से भागने लगते हैं।किसान कहता है, ” किये का फल ही पा रहे हो । जो लोग देवताओं को ठेंगा दिखाते हैं,तर्क करते हैं,चंद्रमा के दूसरी ओर क्या है ,वे इसकी कीमत चुकायेंगे।” इसके बाद सुकरात के लात मारता है। फिर लोगों से कहता है, “टूट पड़ो इन पर, उठाओ पत्थर !” पत्थरों की बौछार सहते हुए सुकरात और उनके साथी भागते हैं।किसान चिल्लाता है,”बदला लो ! देवताओं के अपमान का बदला लो ! इनकी करनी को याद करो ! बदला लो !”

इस पर रामविलास शर्मा ने लिखा है , ‘कचहरी अदालत की जरूरत नहीं,पत्थर मारो और आग लगाओ, देवताओं के अपमान का बदला लो-अनेक युगों में अनेक प्रकार के प्रतिक्रियावादियों की ऐसी हरकतों से पाठक परिचित होंगे।विशेष रूप से नवस्वाधीन और पिछड़े हुए देशों में संप्रदायवादी नेता प्रगतिशील विचारकों के विरूद्ध ऐसा उन्माद उभारते हैं।’

रामविलास शर्मा ने लिखा है ‘सुकरात तो धाय का काम करते थे ,जो दूसरे के मन में है पर जिसे वह जानता नहीं है,उसे बाहर निकलवाते थे।ज्ञानी होने का दंभ उन्हें नहीं था,जिन्हें ऐसा दंभ था,उनसे जिरह करने की बीमारी उन्हें जरूर थी।इस बीमारी को देवप्रेरित अवश्य मानते थे।अंतःकरण की भूमिका इतनी ही थी।जहाँ जितना भी सत्य वह उद्घाटित करते थे,वहाँ उसका आधार साधारणजनों का सामान्य अनुभव ही होता था,किसी व्यक्ति का विशिष्ट अनुभव नहीं।’ (क्रमशः)

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