राजनीति

यदि अफजल गुरु कांग्रेस का ‘दामाद’ होता…

– निर्मल रानी

भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दम भरने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों पार्टी से बाहर जा चुके अपने कई प्रमुख नेताओं को पार्टी में वापस लाने में लगी हुई है। पार्टी के समक्ष इस अभियान के अंतर्गत न तो किसी सिद्धांत को आड़े आने दिया जा रहा है, न ही पिछले गिले-शिकवों को याद करने की कोई जरूरत महसूस की जा रही है। शायद तभी भाजपा ने जसवंत सिंह जैसे पार्टी के उस वरिष्ठ नेता को पुन: दल में शामिल कर लिया जिन्होंने भारत को विभाजित करने की साजिश रचकर पाकिस्तान की बुनियाद खड़ी करने वाले मोहम्मद अली जिन्हा की ‘शान में क़सीदे’ लिख कर तथा उन्हें अपनी पुस्तक ‘जिन्ना, इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस’ में दस्तावो का रूप देकर भाजपा के किसी नेता द्वारा लिखा गया एक इतिहास बना दिया। और उनके इन्हीं कसीदों से नाराज भाजपा ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। मजे की बात तो यह है कि जसवंत सिंह ने पार्टी में अपनी वापसी हेतु यह इच्छा जताई थी कि पार्टी में उनकी वापसी के स्वागत समारोह के अवसर पर पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को उपस्थित रहना चाहिए। और वैसा ही हुआ। गोया जिन्ना की तारीफ करने वाले जसवंत सिंह का भाजपा के उन नेताओं ने भी पार्टी में स्वागत किया जिन्हें उनका जिन्ना के पक्ष में लिखा गया क़सीदा नागवार गुजरा था। और अब पार्टी में फायर ब्रांड नेता उमा भारती की वापसी की रणनीति पर काम चल रहा है यानि उमा भारती द्वारा अनुशासनहीनता की सभी हदों को पार कर जाने को भुलाने की पार्टी द्वारा तैयारी की जा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारतीय जनता पार्टी छोड़ चुके फिर वापस आ चुके फिर छोड़ चुके और फिर वापस आ चुके और अंत में अपने पुत्र को लोकसभा का प्रत्याशी न बनाए जाने के कारण पार्टी से नाराज होकर फिर बाहर जा चुके तथा मुलायम सिंह यादव जैसे भाजपा के राजनैतिक दुश्मन नं. वन से हाथ मिला चुके कल्याण सिंह को भी किसी दिन पार्टी में वापस लाने की राह हमवार की जाए।

मजे की बात तो यह है कि इन नेताओं की पार्टी में वापसी के अभियान के समय पार्टी की कमान पार्टी में अल्प अनुभव रखने वाले नेता नितिन गडकरी के हाथों में है। यहां यह बात याद करना एक बार फिर जरूरी है कि महाराष्ट्र की राजनीति तक ही सीमित रहने वाले पार्टी के क्षेत्रीय नेता नितिन गडकरी को जिस समय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, उसी समय यह आभास हो गया था कि पार्टी के समक्ष अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के लिए वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं की काफी कमी महसूस की जा रही है। परंतु इसी के साथ-साथ यह संदेश भी साफ हो गया था कि गडकरी को पार्टी का मुखिया बना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब पार्टी कमान प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में लेने जा रही है। इसीलिए अब यह माना जा रहा है कि भाजपा के खिसकते जनाधार से चिंतित संघ परिवार ने ही पार्टी के भूले-बिसरे तथा नाराज़ नेताओं को पुन: पार्टी में वापस बुलाने का गडकरी को निर्देश दिया है। नितिन गडकरी ने जहां एक ओर नाराज पार्टी नेताओं अथवा पार्टी छोड़कर जा चुके नेताओं की वापसी के लिए लाल क़ालीन बिछा दी है वहीं अपने भाषणों में अभद्र भाषा तथा असंसदीय शब्दों का प्रयोग किए जाने के लिए भी वे अपनी छवि खराब करते जा रहे हैं।

अभी कुछ ही समय बीता था जबकि गडकरी ने राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू यादव को चंडीगढ़ जैसी संभ्रांत नगरी में सोनिया गांधी का ‘तलवा चाटने वाला कुत्ता’ कहकर सार्वजनिक सभा के दौरान अपने आप को भाजपा का एक ‘योग्य’ एवं ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ध्वजावाहक’ नेता प्रमाणित किया था। अपने इस भाषण के कुछ ही क्षणों के बाद उन्हें लगा कि वे केवल गडकरी ही नहीं बल्कि भाजपा जैसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाली राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया भी हैं। और यह विचार आते ही वह बैकफुट पर आ गए और अपनी बदजुबानी के लिए पत्रकार वार्ता के दौरान माफी मांगी। परंतु तब तक तीर कमान से निकल चुका था। नितिन गडकरी की ‘क़ाबिलियत’ तथा भारतीय जनता पार्टी का ‘दुर्भाग्य’ बेनकाब हो चुका था। गडकरी के इस वक्तव्य के बाद कई दिनों तक आरजेडी कार्यकर्ताओं ने गडकरी के पुतलों का जगह-जगह भरपूर ‘स्वागत’ किया।

बहरहाल वही नितिन गडकरी अपनी आदत के अनुसार एक बार फिर भाषण देने की अपनी ‘असंसदीय शैली’ पर पर्दा डाल पाने में असफल साबित हुए। इस बार उन्होंने अफजल गुरु को कांग्रेस पार्टी का ‘दामाद’ बताया है। एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने यह प्रश्न किया है कि कांग्रेस पार्टी अफजल गुरु को फांसी नहीं दे रही है तो क्या अफजल गुरु कांग्रेस पार्टी का दामाद है? गडकरी के इस वाक्य में जहां उनकी बदजुबानी झलक रही है वहीं उनके साहित्यिक ज्ञान का भी सांफ अंदाज हो रहा है। क्योंकि दामाद किसी व्यक्ति का ही हो सकता है किसी पार्टी का तो शायद बिल्कुल नहीं। और यदि गडकरी की बात को थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाए तो क्या नितिन गडकरी से यह सवाल पूछा जा सकता है कि यदि अफजल गुरु कांग्रेस पार्टी का दामाद होता और उसी रिश्ते के नाते कांग्रेस पार्टी अफजल को माफ किए जाने का प्रयास कर रही होती तो ऐसे में क्या भाजपा भारतीय संसद पर हमला करने की योजना बनाने जैसे एक इतने बड़े जुर्म के अपराधी को माफ किए जाने का अनापत्ति प्रमाण पत्र कांग्रेस पार्टी को दे देती। अथवा क्या एक दामाद के नाते कांग्रेस पार्टी को यह अधिकार होता कि वह अफजल गुरु को मांफ कर दे?

अफजल गुरु फांसी प्रकरण को लेकर एक प्रश्न और यह भी उठता है कि इस मुद्दे पर केवल भाजपा द्वारा ही हमेशा कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही निशाने पर क्यों कर लिया जाता है? केंद्र में पिछले पांच वर्षों तक भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार शासन चला रही थी और इस बार पुन: जनता ने संप्रग सरकार को ही शासन करने हेतु चुना है। ऐसे में अफजल को फांसी देना, न देना अथवा देरी से देने का षडयंत्र रचना आदि सभी बातों की सामूहिक जिम्मेदारी संप्रग सरकार पर ही मढ़ी जानी चाहिए न कि केवल सोनिया गांधी अथवा कांग्रेस पार्टी पर। परंतु भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी हों अथवा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर भाजपा का कोई भी प्रवक्ता, सभी अफजल गुरु की फांसी में देरी होने के लिए कांग्रेस पार्टी को ही सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार ठहराने का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। यानि भाजपा आम लोगों को यह जताना चाहती है कि संसद पर हमले के अपराधी को कांग्रेस पार्टी का संरक्षण तथा हमदर्दी प्राप्त है।

हालांकि संसदीय चुनावों के दौरान भी भाजपा ने पूरे देश में लगभग सभी जनसभाओं में यही दुष्प्रचार किया था कि कांग्रेस, सोनिया गांधी तथा अफजल गुरु एक ही विषय वस्तु के नाम हैं। परंतु जब उसी चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने अफजल गुरु को फांसी दिए जाने में होने वाली देरी का प्रशासनिक कारण बताने के साथ-साथ भाजपा के सामने ही उल्टे यह सवाल खड़ा कर दिया था कि अफजल गुरु के गुरु अजहर मसूद सहित तीन अन्य ख़ूंख्वार शीर्ष आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रातों-रात चुपके से निकाल कर विशेष विमान में बिठाकर कंधार ले जाकर तालिबानों के सुपुर्द कर आने वाले तत्कालीन विदेशमंत्री जसवंत सिंह की शासकीय कारगुजारी के लिए आख़िर भाजपा के पास क्या जवाब है। उन चुनावों के दौरान जनता के मध्य कांग्रेस व भाजपा के मध्य चली इस सार्वजनिक बहस के बाद मतदाताओं ने अपने मतदान द्वारा ही यह साबित कर दिया था कि अफजल गुरु का मुद्दा भारी है या अफजल गुरु के गुरु का मुद्दा।

बहरहाल भारतीय जनता पार्टी इन दिनों महंगाई की मार से बदहाल आम जनता के पक्ष में जहां अपनी आवाज बुलंद करते दिखाई दे रही है वहीं अफजल गुरु की फांसी जैसे उन मुद्दों को भी छेड़ने से पीछे नहीं हटती जिनसे कि पार्टी को यह लगता है कि यह अलाप उसके पक्ष में शायद इस बार मतों का ध्रुवीकरण कर पाने में कारगर साबित हो। परंतु अफजल को फांसी पर लटकाए जाने हेतु आतुर दिखाई दे रही भाजपा न तो जनता को यह समझा पा रही है कि यदि अफजल गुरु को फांसी दिए जाने की पार्टी को इतनी ही जल्दी है तो पार्टी ने अफजल गुरु के पैरोकार राम जेठमलानी को राज्‍यसभा का सदस्य किन परिस्थितियों में बनाया? और दूसरे भाजपा को यह भी बता ही देना चाहिए कि यदि वह अफजल गुरु को कांग्रेस पार्टी का दामाद महसूस करती है तो ऐसे में जहर मसूद तथा उसके अन्य तीन आतंकी सहयोगियों से भाजपा के क्या रिश्ते थे जिसके तहत भाजपा ने उन्हें बाइज्‍जत कंधार छोड़ आने का फैसला लिया था।