मनमोहन कुमार आर्य,
वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून में आज प्रातः 6.30 बजे से यजुर्वेद पारायण यज्ञ हुआ। यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी थे। यज्ञ में मन्त्र पाठ गुरुकुल पौन्धा के दो ब्रह्मचारी श्री ओम्प्रकाश एवं विनीत कुमार जी ने किया। यज्ञ तीन वृहद कुण्डों में किया गया। यज्ञ के बाद पं. सत्यपाल पथिक जी और पं. नरेश दत्त आर्य जी के भजन हुए। ढोलक पर संगति पं. नरेश दत्त आर्य जी के सुपुत्र श्री नरेन्द्र आर्य जी ने दी। सभी भजनोपदेशकों को श्री नरेन्द्र आर्य जी ही ढोलक पर संगति देते हैं। पं. सत्यपाल पथिक जी के गाये भजन के शब्द थे ‘यह यज्ञ पुराने भारत का गौरव दर्शाने वाला है’। इसके बाद आचार्य उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ जी का प्रवचन हुआ। आचार्य जी ने यज्ञ में मौन आहुति की चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि एक बार वाणी और मन में बहस हुई। दोनों ने कहा कि वह बड़े हैं, उनका महत्व अधिक है। दोनों ने अपने अपने पक्ष में प्रमाण दिये परन्तु विवाद समाप्त नहीं हुआ। दोनो निर्णय कराने के लिये प्रजापति के पास गये। उनके सम्मुख भी दोनो ंने अपने अपने तर्क प्रस्तुत किये। वाणी ने कहा कि वह ईश्वर का वर्णन करती है। वेद मन्त्रों को बोलती है। यज्ञ के ब्रह्मा जी को कोई निर्देश देना होता है तो वह वाणी से बोलकर ही देते हैं। वाणी में ही सत्संगों में उपदेश व प्रवचन भी होते हैं। यदि वाणी न बोले, तो यज्ञ नहीं हो सकता। मन ने प्रजापति को कहा कि जब तक आत्मा व वाणी के मध्य मन युक्त न हो वाणी बोल नहीं सकती। उन्होंने कहा कि वाणी जिन शब्दों को बोलती है वह आकाश का गुण हैं। शब्दोच्चार में आकाश का भी महत्व है। परमात्मा आकाश से भी महान है। मन ने स्वयं को बड़ा बताया। उसने कहा कि वह योग व ईश्वर के साधक को परमात्मा तक पहुंचाता है। प्रजापति ने वाणी को मन को बड़ा मानने के लिये कहा। वाणी सन्तुष्ट नहीं हुई। उसने प्रजापति को कहा कि यज्ञ में जब प्रजापति के लिये आहुति आयेगी तो वह अर्थात् वाणी बोलेगी नहीं, वह मौन रहेगी।
आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि मन की एकाग्रता का परिणाम ध्यान है। मन आत्मा का प्रमुख साधन है। मन जड़ है। आत्मा की चेतना से मन क्रियाशील होता है। मन को साधने की जरूरत है। मन सात्विक, राजसिक व तामसिक गुणों वाला होता है। सात्विक मन पाप नहीं करता। मन राजसिक गुणों से युक्त होता है तो पाप करता है। आचार्य जी ने इसका एक उदाहरण दिया। एक व्यक्ति सत्संग में गया। उसकी चप्पल पुरानी थी। वहां उसने नई चप्पल देखी। उसे लोभ आ गया। उसने चप्पल चोरी की व घर चला गया। वहां मन ने उसे धिक्कारा। तूने चोरी की। चोरी करना अधर्म व पाप है। उसके सात्विक भाव जाग गये। वह पुनः सत्संग के स्थान पर आता है और चप्पल छोड़ जाता है।
आचार्य जी ने धर्म व सत्संग प्रेमियों को कहा कि आप अपने मन को सात्विक व पवित्र बनाये रखो। आचार्य जी ने सात्विक व तामसिक मन का एक और उदाहरण दिया। उन्होंने कश्मीर के राजा गुलाब सिंह जी की घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि एक दिन प्रातःकाल भ्रमण करते हुए उनकी दृष्टि एक युवती पर पड़ी तो उनके मन में कुछ विकार आ गया। बाद में मन में सात्विक विचार आये तो उन्होंने सोचा कि प्रजा तो राजा के पुत्र व पुत्रियों के समान होती है। उन्होंने अपने आप को धिक्कारा। राज पुरोहित को बुलाकर स्थिति बताई और उसका दण्ड व पश्चाताप पूछा। उन्होंने इस घटना में राज पुरोहित को अपना नाम नहीं बताया। राजपुरोहित ने कहा कि इसका प्रायश्चित तो चिता में जलकर मृत्यु को प्राप्त कर ही हो सकता है। राजा ने पुरोहित को कहा कि वह व्यक्ति मैं ही हूं। इससे राज पुरोहित व प्रजा पर चिन्ता के भाव उत्पन्न हुए। चिता बनाई गई। अग्नि प्रज्जवलित हो गई। राजा चिता में कूदने के तैयार खड़े हैं। राजा के कूदने का अवसर आते ही राज पुरोहित ने राजा का हाथ खींचकर राजा को कहा कि आपका प्रायश्चित हो गया। राज पुरोहित ने कहा कि आपके मन ने पाप किया था। आपके मन को चिता दिखा कर दग्ध कर दिया गया है। इस प्रकार राजा की जान बची। आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि मन बड़ा चंचल है। मन को साधे बिना जीवन सफल नहीं हो सकता। मन की एकाग्रता स्थापित होने पर ही सफलता प्राप्त होती है। जीवन में मन की एकाग्रता बंहुत महत्वपूर्ण है।
आचार्य जी ने कहा कि गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद में कृष्ण जी कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न काम, क्रोध, मद, मोह आदि मनुष्य से पाप कराते हैं। उन्होंने मन की साधना करने को कहा। मन को पवित्र विचारों से युक्त करो तो यह पाप से पृथक रहेगा। आचार्य जी ने कहा कि यदि हमारा अन्न व भोजन पवित्र होगा तो मन पवित्र होगा। मन की पवित्रता के लिये आप पुरुषार्थ व धर्मपूर्वक धन अर्जित करो। उस अर्जित धन से अन्न वा भोजन प्राप्त करो। अधर्म से धन मत कमाओ। पवित्र अन्तःकरण वाला मनुष्य ही साधना में आगे बढ़ता है। संसार में यश प्राप्ति के लिये आप शुद्ध अन्न का सेवन करो। आचार्य जी ने मन की चचंलता से सम्बन्धित स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी के जीवन की एक कथा भी सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार वह बाजार से गुजर रहे थे। रबड़ी की दुकान पर रबड़ी देख कर उनका मन उस पर झुक गया। उन्होंने मन को समझाने का प्रयास किया। अन्ततः वह रबड़ी की दुकान पर पहुंच गये। उन्होंने 10 रुपये की रबड़ी ली। वहां पास में रेत पड़ा था। उन्होंने रबड़ी में कुछ रेत मिला दिया। अब रबड़ी खाने लगे तो रेत के कारण वह खाई न जा सकी। इस प्रकार से स्वामी सर्वदानन्द जी ने अपने मन को शिक्षा दी। आचार्य जी ने कहा कि स्वामी जी ने अपने मन को कहा कि तूने मेरी किरकरी की और मैंने तेरी किरकरी की। आचार्य जी ने कहा कि मन को गिरावट में जाने से रोकना चाहिये।
आचार्य जी ने कहा कि गीता कहती है कि शरीर, वाणी व मन का तप करो। मन प्रसन्न रहना चाहिये। मन में बुरे विचार पैदा न हो। वाणी का सदुपयोग करो। हम जो शब्द बोलते हैं, वह भी ब्रह्म है। वाणी का उपयोग तप के रूप में हो। हम अपने हाथ व पैरों से बुरे काम न करें। हम कुसंग में न जाये। तीनों तप करने से मनुष्य साधना में आगे बढ़ता है। समय हो गया था अतः आचार्य जी ने यहीं पर अपने व्याख्यान को विराम दिया।
आश्रम द्वारा संचालित तपोवन विद्या निकेतन विद्यालय के बच्चों को आश्रम के प्रधान श्री दर्शन कुमार अग्निहोत्री जी की ओर से छात्रवृत्तिया दी जाती हैं। नर्सरी से कक्षा आठ तक के उन छात्रों को जो अपनी कक्षा में प्रथम, द्वितीय व तृतीय आते हैं, क्रमशः 175, 150 तथा 100 रुपये मासिक की छात्र वृत्ति दी जाती है। आज सभी विद्यार्थियों को 6 माह की छात्रवृत्ति की धनराशि बांटी गई। यह भी बता दें कि इस विद्यालय का परीक्षा परिणाम शत प्रतिशत रहता है। विद्यालय में 400 विद्यार्थी हैं। अधिकांश विद्यार्थी गरीब परिवारों के हैं। बच्चों को वैदिक सिद्धान्त व यज्ञ आदि की शिक्षा भी जाती है। बच्चें यज्ञ व सत्संग में बैठते हैं। आश्रम बच्चों को चिकित्सकीय सुविधायें भी देता है। स्कूल की भूमि व भवन आदि की अपनी विवशताओं के कारण बहुत से बच्चों को प्रवेश नहीं दिया जा पाता है। इस विद्यालय की प्रधानाचार्य श्रीमती उषा नेगी जी ने इस स्कूल को अल्प वेतन लेकर भी उन्नति के शिखर पर पहुंचाया है, अतः वह बधाई की पात्र हैं। उनकी सभी शिक्षिकायें और कर्मचारी भी अपनी सेवाओं के लिये बधाई के पात्र हैं। इसके बाद शान्तिपाठ के साथ प्रातःकालीन यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन सम्पन्न हुआ।