सत्ता के लिए सिद्धांतों की अनदेखी

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वीरेन्द्र सिंह परिहार

हाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के 34 दिन बाद बृहस्पतिवार को शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना, एन.सी.पी. और कांग्रेस की मिली-जुली सरकार आकार लेने जा रही है। इससे पहले राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने रातोंरात राष्टपति शासन हटवाकर देवेन्द्र फडणवीस और अजित पवार को मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। लेकिन अजित पवार के इस्तीफा दे देने से वह सरकार अल्पमत में आ गई और विधानसभा में बहुमत परीक्षण से पहले ही देवेन्द्र फडणवीस को इस्तीफा देना पड़ा। अजित पवार एनसीपी के नेता और शरद पवार के भतीजे हैं। बहुमत परीक्षण सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रहा था। चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में जैसे-जैसे घटनाक्रम देखने को मिलने वह अभूतपूर्व होने के साथ दुर्भाग्यजनक भी कहे जा सकते हैं। जैसे ही 24 अक्टूबर को चुनाव नतीजे आये, शिवसेना ने गला फाड़-फाड़कर फिफ्टी-फिफ्टी की हिस्सेदारी का राग अलापना शुरू कर दिया। शिवसेना का कहना था कि ऐसा कि ऐसा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव पूर्व गठबंधन के समय वादा किया था। जबकि भाजपा ने ऐसी किसी प्रतिबद्धता के प्रति साफ-साफ इनकार कर दिया। हां, दोनों दलों का गठबंधन टूटने से पहले तक अमित शाह जरूर चुप रहे। भाजपा का कहना है कि जब विधानसभा चुनाव के पूर्व शिवसेना भाजपा की तुलना में कम सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हो गई, उसने छोटे भाई की भूमिका को स्वीकार कर लिया तो फिर सत्ता में फिफ्टी-फिफ्टी की हिस्सेदारी का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। वैसे भी शिवसेना की सीटें मात्र 56 थी, जबकि भाजपा 105 सीटों पर विजयी रही थी। यानी करीब-करीब दोगुने का अन्तर। उधर, उद्धव ठाकरे अपने 27 वर्षीय पुत्र आदित्य ठाकरे को ढाई साल मुख्यमंत्री बनाने का प्रयास कर रहे थे। पहले तो भाजपा को ऐसा महसूस हुआ कि शायद इस तरह से शिवसेना सौदेबाजी कर उपमुख्यमंत्री का पद, मंत्रिमण्डल में ज्यादा स्थान और मलाईदार मंत्रालयों को पाना चाहती है। लेकिन शीघ्र ही समझ में आया कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। शिवसेना भाजपा को ब्लैकमेल करने पर उतारू है। शिवसेना को ऐसा लगा कि भाजपा जैसे कभी उत्तर प्रदेश में मायावती को और कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार हो गई थी, वैसे ही मजबूरी में शिवसेना को भी मुख्यमंत्री पद देने को तैयार हो जाएगी। उद्धव यह आकलन नहीं कर पाये कि यह नई भाजपा है, जो विपक्ष में भले ही बैठ ले पर इस तरह से आत्म-समर्पण करने को तैयार नहीं होगी। भाजपा चाहती तो 50-50 का फार्मूला मानकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकती थी। लेकिन उसने ऐसा न कर यह बता दिया कि वह औरों से अलग है। ब्लैकमेलिंग के आगे सरेंडर नहीं करेगी। उधर, दाल गलती न देखकर उद्धव ठाकरे एनसीपी और कांग्रेस पार्टी के दरवाजे खटखटाने लगे। आखिरकार एनसीपी और कांग्रेस ने अपनी शर्तों पर शिवसेना को समर्पण करने पर मजबूर कर दिया। आखिरकार, सिद्धांतों की बलि देकर उद्धव को मुख्यमंत्री पद स्वीकारना पड़ा। अब मुख्यमंत्री का पद भले ही शिवसेना के पास रहे, राज एनसीपी और कांग्रेस करेंगी। लोकतंत्र का प्रहसन देखिए कि जनता ने जिसे सरकार चलाने का जनादेश दिया था, उसे विपक्ष में बैठना पड़ रहा है और जिसे विपक्ष में बैठना था, वह सरकार में है। यह सीधे-सीधे जनादेश का अपहरण है। इसी के साथ भाजपा-शिवसेना का 30 साल पुराना गठबंधन सत्ता के लिए स्वार्थ की बलि चढ़ गया।     भाजपा-शिवसेना 1989 से ही साथ-साथ चुनाव लड़ते रहे, जिसमें विधानसभा चुनाव में शिवसेना की भूमिका बड़े भाई की होती थी। 2014 में नरेन्द्र मोदी की व्यापक लोकप्रियता और लोकसभा चुनावों में भाजपा की भारी सफलता के चलते बाद शिवसेना को लगा कि ‘बड़ा भाई’ पीछे छूट गया और ‘छोटे भाई’ ने केंद्र में सरकार बना लिया। इससे वह कुंठित हो गई। नतीजतन 2014 का विधानसभा चुनाव दोनें दलों ने अलग-अलग लड़ा। भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। हालांकि वह बहुमत से दूर रही। शिवसेना सौदेबाजी पर उतारू हो गई लेकिन एनसीपी के विधानसभा से बाहर रहने के कारण तब के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने सदन में आसानी से बहुमत साबित कर लिया। तब शिवसेना को लगा कि भाजपा कहीं एनसीपी से हाथ नहीं मिला ले। इसलिए पुराने संबंधों की दुहाई देकर वह भाजपा के पास लौट आई। भाजपा की विशालता देखिए कि उसने सबकुछ जानते-समझते भी स्वार्थी शिवसेना को गले लगा लिया। भाजपा-शिवसेना गठबंधन की मिलीजुली सरकार बनी और दोनों पार्टियों ने पांच साल तक शासन किया। लेकिन शिवसेना तो शिवसेना ठहरी। उसकी नीयत में शुरू से खोट था। तभी तो सामना में सरकार के खिलाफ लगातार माहौल बनाती रहती थी। 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां साथ लड़ीं। लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली और विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने लायक बहुमत। लेकिन आगे क्या हुआ देश ने नंगी आंखों से देखा। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों में भागीदार होने के बावजूद शिवसेना पूरे 5 वर्ष तक मोदी और फडणवीस सरकार पर विषबुझे तीर भी छोड़ती रही। विधानसभा चुनाव में वह 144 सीटों पर लड़ना चाह रही थी। लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उद्धव ठाकरे को साफ संदेशा भिजवा दिया कि यदि शिवसेना 124 सीटों पर राजी नहीं है तो भाजपा अकेले चुनाव मैदान में जाएगी। उद्धव को पता था कि यदि इस बार भी चुनाव में अकेले गये तो पिछली बार की तुलना में आधी सीटें ही रह जाएंगी। फलतः मन मारकर उन्हें भाजपा को बड़ा भाई मानकर चुनाव मैदान में उतरना पड़ा। पर ऐसा लगता है कि उन्होंने मन में ठान लिया था कि चुनाव नतीजों बाद गुल खिलाना है। वही किया।उद्धव ठाकरे से यह पूछा जा सकता है कि उनके पिता बाला साहब ठाकरे के पास 1995 में मौका था कि यदि वह खुद मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे तो उद्धव ठाकरे को कुर्सी पर बैठा सकते थे, पर वंशवाद की घृणित राजनीति करना न पसन्द करते हुए उन्होंने एक शिवसैनिक मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनवाया। इतना ही नहीं बाला साहब ठाकरे के रहते उनके खानदान का कोई सदस्य चुनाव भी नहीं लड़ सका। अब उद्धव कहते हैं कि मैने बाला साहब को वचन दिया था कि मैं एक न एक दिन किसी शिवसैनिक को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाकर दिखाऊंगा। बात ठीक हो सकती थी, पर यह तभी जब वह अपने दम-खम से बहुमत लेकर आते। पर यहां तो छल-कपट और विश्वासघात की कहानी दोहराई गई है। भाजपा ने इस बार विधानसभा की 162 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 105 सीटें प्राप्त हुई। यानी उसकी सफलता का प्रतिशत 70 था जबकि शिवसेना 124 सीटों पर लड़कर मात्र 56 सीटें ही पा सकी। यानी उसकी सफलता का प्रतिशत मात्र 45 ही था। इससे जनमत का पता चलता है। जाहिर है, यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो वह या तो स्पष्ट बहुमत पाती या बहुमत के आस-पास होती। परन्तु, गठबन्धन धर्म निभाने के चलते वह अकेले चुनाव मैदान में नहीं गई। यह बात अलग है कि शिवसेना  ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ की तर्ज पर बराबर भाजपा को ही झूठा साबित करने की कोशिश करती रही।पूरे घटनाक्रम में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने एनसीपी विधायक दल के नेता अजित पवार के समर्थन की चिट्ठी के चलते 24 नवम्बर को भाजपा के विधायक दल के नेता देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और एनसीपी के अजित पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। निश्चित रूप से यह जल्दबाजी में उठाया गया कदम था, जिससे भाजपा की किरकिरी हुई है। लेकिन इसमें मुख्य दोषी अजित पवार ही कहे जा सकते हैं, जिनके साथ एनसीपी के विधायक न होते हुए भी उन्होंने विधायकों के साथ होने का दावा कर भ्रम फैलाया। निश्चित रूप से शिवसेना का इन दोनों पार्टियों से गठजोड़ सिद्धान्तहीन ही नहीं बेमेल भी है। इसलिए उद्धव की तीन पहियों वाली सरकार कितनी टिकाऊ और कितनी जनहितकारी होगी, इस पर सबकी नजर है।

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