अंतरिक्ष व्यापर में भारत की धमक

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प्रमोद भार्गव

अंतरिक्ष विज्ञान के व्यापर में अब हम अग्रणी देशों में शामिल हो गए हैं। इसका प्रमाण हमें ९ जुलाई २०१५ को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के हरिकोटा से तब मिल गया,जब हमारे वैज्ञानिक और अभियंताओं ने धु्रवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान,यानी पीएसएलवी सी-२८ से ब्रिटेन के पांच उपग्रहों को प्रक्षेपित करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया। हालांकि इसके पहले यहीं से ३० जून २०१४ को इसी तरह की वाणिज्यिक पहल की गई थी। इसमें विकसित देशों के पांच उपग्रहों को सवार करके उन्हें गंतव्य तक पहुंचा गया था। इन सफल प्रक्षेपण से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की विश्वसनीयता को वैश्विक मन्यता मिल गई है। इस उपलब्धि में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि अब हमारे वैज्ञानिक शोध संस्थानों को बाजार में जगह मिल रही है और ये लाभदायी कारोबार की ओर बढ़ रहे हैं। लिहाजा अब भारत उपग्रह प्रक्षेपित करके खरबों डॉलर कमाने के वैश्विक क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। यदि देश के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय भी आविष्कारों के व्यापार से जुड़ जाएं तो देश के छोटे वैज्ञानिकों को तो मान्यता मिलेगी ही, हमारे शोध संस्थान विदेशी मुद्रा कमाने का भी एक बड़ा जरिया बन सकते हैं।

मनुष्य का जिज्ञासु स्वभाव उसकी प्रकृति का हिस्सा रहा है। मानव की खगोलीय खोजें उपनिषदों से शुरू होकर उपग्रहों तक पहुंची हैं। हमारे पूर्वजों ने शून्य और उड़न तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोलविज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिर,भास्कराचार्य और यवनाचार्य  ब्रह्मांण्ड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रमों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीश धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामाकरण ‘आर्यभट्ट‘ के नाम से किया है। अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण-अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होनें ३ अप्रैल १९८४ को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान ‘सोयूज टी-११ में यात्रा की थी। सोवियत संघ और भारत का यह साझा अंतरिक्ष कार्यक्रम था। तय है,इस मुकाम तक लाने में अनेक ऐसे दूरदर्शी वैज्ञानिकों की भूमिका रही है,जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने इस पिछड़े देश को न केवल अंतरिक्ष की अनंत उंचाईयों तक पहुंचाया,बल्कि अब धन कमाने का आधार भी मजबूत कर दिया। ये उपलब्धियां कूटनीति को भी नई दिशा देने का पर्याय बन सकती हैं।

दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका,रूस,चीन,जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम ;एंट्रिक्स कार्पोरेशन के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है,जो हमारे पीएसएलवी सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। इसलिए इसकी व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। ब्रिटेन के जो पांच उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़े गए हैं उनका वजन १४४० किलोग्राम है।

दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरूआत २६ मई १९९९ में हुई थी। और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओषन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-३ ने २२ अक्टूबर २००१ को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे,इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार २२ अप्रैल २००७ को धु्रवीय यान पीएसएलवी सी-८ के मार्फत इटली के ‘एंजाइल‘उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था,इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया। दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है,जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरूआत २१ जनवरी २००८ को हुई,जब पीएसएलवी सी-१० ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूनला भी शुरू कर दिया। यह कीमत ५ हजार से लेकर २० हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड ;उपग्रह का वजन के हिसाब से ली जाती है।

सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है,उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट,फेसबुक,ट्विटर, ब्लॉग और वॉट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेषण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती है। अब तो शिक्षा,स्वास्थ्य, कृषि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी अपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है।  भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता पहले से ही कर रहा है। हालांकि यह कूटनीतिक इरादा कितना व्यावहरिक बैठता है और इसके क्या नफा-नुकसान होंगे,यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है और यह देश को भिन्न-२ क्षेत्रों में अभिनव अवसर हासिल करा रही है। चंद्र और मंगल अभियान इसरो के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम के ही हिस्सा हैं।

बावजूद चुनौतियां कम नहीं हैं,क्योंकि हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलाब्धियां हासिल की हैं,वे गर्व करने लायक हैं। गोया, एक समय ऐसा भी था,जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्व-शक्ति है,जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलएसवी मसलन भू-उपग्रह प्रक्षेपण यान की सफलता की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वेदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर लिया। अब इसरो की इस स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मान रही है।

नई और अहम् चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। क्योंकि फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी हमारे यहां नहीं हो पा रहा है। आधुनिकतम राइफलें भी हम आयात कर रहे हैं। इस बद्हाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक विमानवाहक पोत और पनडुब्यिों की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं ? हाल ही में हमने विमान वाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य रूस से खरीदा है। जबकि रक्षा संबंधी हथियारों के निर्माण के लिए ही हमारे यहां रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ;डीआरडीओ काम कर रहा हैं,परंतु इसकी उपलब्धियां गौण हैं। इसे अब इसरो से प्रेरणा लेकर अपनी सक्रियता बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है। रक्षा सामग्री आयात में खर्च की जाने वाली धन-राशि का आंकड़ा हर साल बढ़ता ही जा रहा है। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना ही चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया था,उसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है।

यदि देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय का भी इसी तरह के वैज्ञानिक आविष्कार और व्यापर से जोड़ दिया जाए तो हम हथियार निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते है। दरअसल अकादमिक संस्थान दो तरह की लक्ष्यपूर्ति से जुड़े होते हैं,अध्यापन और अनुसंधान। जबकि विवि का मकसद ज्ञान का प्रसार और नए व मौलिक ज्ञान की रचनात्मकता को बढ़ावा देना होता है। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ विवि में अकादमिक माहौल लगभग समाप्त हो गया। इसकी एक वजह स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों की स्थापना भी रही है। इसरो की ताजा उपलब्धियों से साफ हुआ है कि अकादमिक समुदाय,सरकार और उद्यमिता में एकरूपता संभव है। इस गठजोड़ के बूते शैक्षिक व स्वतंत्र शोध संस्थानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बशर्ते इसरो की तरह विवि को भी आविष्कारों से वाणिज्यिक लाभ उठाने की अनुमति दे दी जाए। इसी दिशा में पहल करते हुए डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार सरकारी अनुदान प्राप्त बौद्धिक संपत्ति सरंक्षक विधेयक २००८ लाई थी। इसका उद्देश्य विवि और शोध संस्थानों में अविश्कारों की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना और बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को सरंक्षण तथा उन्हें बाजार उपलब्ध कराना है। इस उद्यमशीलता को यदि वाकई धरातल मिलता है तो विज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेशी छात्र आगे आएंगे और आविष्कारों के नायाब सिलसिले की शुरूआत संभव होगी। क्योंकि तमाम लोग ऐसे होते हैं,जो जंग लगी शिक्षा प्रणाली को चुनौती देते हुए अपनी मेधा के बूते कुछ लीक से हटकर अनूठा करना चाहते हैं। अनूठेपन की यही चाहत नए व मौलिक आविष्कारों की जननी होती है।

 

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