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तारकेश कुमार ओझा
किसी बीमार राजनेता व मशहूर शख्सियत के इलाज के लिए विदेश जाने की खबर सुन कर मुझे बचपन से ही हैरत होती रही है। ऐसी खबरें सुन कर मैं अक्सर सोच में पड़ जाता था कि आखिर जनाब को ऐसी क्या बीमारी है, जिसका इलाज देश में नहीं हो सकता। शायद विदेश के किसी पहाड़ में उनके मर्ज की संजीवनी बूटी छिपी हो। य द्यपि ज्यादातर राजनेता सत्ता से हटने के बाद ही इलाज के लिए विदेश जाते हैं। सत्तासीन राजनेताओं के बारे में कम ही सुना जाता है कि कोई इलाज के लिए विदेश जाए। देश के एक प्रदेश के चिर कुंवारे एक मुख्यमंत्री के साथ ऐसे ही गजब हो गया। बताते हैं कि अरसे बाद उस मुख्यमंत्री को विदेश जाने की सूझी। लेकिन वे विदशी धरती पर पैर भी नहीं रख पाए थे कि उनके सूबे में उनके सर्वाधिक भरोसेमंद ने ही उन्हें कुर्सी से उतारने की पूरी व्यवस्था गुचपुच तरीके से कर डाली। गनीमत रही कि समय रहते मुख्यमंत्री को इसकी भनक लग गई और सूबे में लौटते ही उन्होंने पहला काम अपने उस भरोसेमंद को पार्टी से निकालने का किया। इसके बाद से उन्होंने विदेश की कौन कहे , देशी दौरे में भी भारी कटौती कर दी। पहले सत्ता से बेदखल राजनेताओं के इलाज के लिए ही विदेश जाने की खबरें सुनी – पढ़ी जाती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में सिर्फ राजनेता ही नहीं बल्कि उनके बाल – बच्चों के भी किसी न किसी बहाने विदेश जाने की खबरें अक्सर सुनने – पढ़ने को मिला करती है। अब ऐसे ही विदेशी दौरे देश के कुछ राजनेताओं की गले की हड्डी साबित हो रहे हैं। लेकिन कायदे से देखा जाए तो विदेशी दौरों का मोह गांव – कस्बे के नेताओं में भी प्रेशर – सूगर की बीमारी की तरह फैल रही है। फ र्क सि र्फ इतना है कि देहाती या कस्बाई स्तर के जो नेता विदेशी दौरे नहीं कर पाते, उन्होंने देश में ही विदेश का प्रबंध कर लिया है। जैसे विदेशों में बसे भारतवंशी चाहे जहां रहे , वे अपने बीच एक छोटा हिंदुस्तान बनाए रखते हैं, वैसे ही अपने देश में इस वर्ग ने विदेश का प्रबंध कर लिया है। यह देशी विदेश उनके गांव – कस्बे से कुछ दूर स्थित जिला मुख्यालय भी हो सकता है तो प्रदेश की राजधानी भी।
राजनीति का ककहरा सीख रहे नेताओं की नई पौध ज्यादातर लोगों पर भौंकाल भरने के लिए स्वयं के कार्यक्षेत्र से कुछ दूरी पर स्थित जिला मुख्यालय के कचहरी या कलेक्ट्रेट में होने की दलीलें देती है। मेरे शहर में कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने प्रदेश की राजधानी में डेरे का इंतजाम कर लिया है। जब जैसी सुविधा हो वे इस देश – विदेश के बीच चक्कर काटते रहते हैं।
जब कभी अपने क्षेत्र में कोई अप्रिय परिस्थिति उत्पन्न हुई नेताजी झट बोरिया – बिस्तर बांध कर इस कृत्रिम विदेश की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। फिर अनुकूल परिस्थिति की सूचना पर लौट भी आते हैं। यह देशी – विदेश कई तरीके से उनके आड़े वक्त पर काम आता है। किसी झमेले से बचने के लिए नेताजी मोबाइल पर ही बहकने लगते हैं… अरे भाई, मैं तुम्हारी परेशानी समझ रहा हूं, लेकिन क्या करूं … मैं इन दिनों बाहर हूं। लौट कर देखता हूं कि क्या कर सकता हूं।
किसी के पास न्यौता आया कि फलां कार्यक्रम में आपको विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहना ही है… लेकिन नेताजी इससे संतुष्ट नहीं है तो झट चल दिया इसी देशी – विदेश का दांव। अरे नहीं भाई …. फलां दिन तो मैं बाहर रहने वाला हूं.. बहुत जरूरी काम है… माफ करना।
मेरे शहर में नेताओं की एक नई पीढ़ी तैयार हुई है जिन्होंने देश के किसी सुदूर हिस्से में स्थित किसी प्रसिद्ध तीर्थ स्थली को ही अपना विदेश बना लिया है। जो राजनैतिक दांव – पेंच में उनके बड़े काम आता है। किसी भी प्रकार की असहज स्थिति उत्पन्न होते ही नेताजी झट वहां के लिए निकल जाते हैं। फिर करते रहिए मोबाइल पर रिंग पर रिंग। प्रत्युत्तर में बार – बार बस स्विच आफ की ध्वनि। किसी विश्वस्त सहयोगी से संप र्क करने पर पता लगता है कि भैया तो फलां दिन ही फलां तीर्थ पर निकल गए। हैरत की बात तो यह है कि परिस्थिति अनुकूल होते ही नेताओं की यह नई पौध शहर वापस भी लौट आती है। दांव – पेंच में मात के मामलों में यह उनके लिए ढाल साबित होती है। क्योंकि अपने बचाव में नेताजी फौरन दलील फेंकते हैं कि अरे मैं तो शहर में था नहीं… व र्ना क्या मजाल उसकी कि ऐसा करने की जु र्रत करे। खैर अब निपटता हूं उनसे। बेशक विदेश यात्राओं के दौरान विवादास्पद से मुलाकात कर फंसे देश के नामचीन नेताओं के सामने भी निश्चय ही ऐसी कोई मजबूरी रही होगी। व र्ना जानते – बुझते अपना हाथ कौन जलाता है भला…।