भारतीय व्यवस्था में ‘अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग’ का बोलबाला

वर्तमान समय भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए मंथन का दौर है? इस मंथन से क्या निकलेगा यह तो वक्त ही बतायेगा, किंतु उम्मीद की जा रही है कि आने वाला समय पूरी दुनिया के लिए अच्छा ही होगा। मंथन का दौर किसी एक क्षेत्रा में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्रा में चल रहा है। इस मंथन में नकारात्मक शक्तियों का क्षय एवं सकारात्मक श्ािक्तयों का पुनः उत्थान एक तरह से निश्चित माना जा रहा है।

आज जिस तरह पूरी दुनिया में तमाम तरह की अप्राकृतिक एवं असामयिक घटनाएं देखने एवं सुनने को मिल रही हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि मंथन का दौर चल रहा है। मंथन में अमृत एवं विष दोनों का निकलना स्वाभाविक है किंतु भगवान भोलेनाथ की तरह समाज में आज ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो ‘विष’ का पान स्वयं करें और ‘अमृत’ समाज कल्याण के लिए छोड़ दें।

पूरी दुनिया के साथ यदि भारत की बात की जाये तो यह पूर्ण रूप से एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र है। प्रजातंत्रा का वास्तविक अर्थ है प्रजा यानी आम जनता का राज्य किंतु आज यह निहायत ही विचारणीय प्रश्न है कि क्या वास्तव में देश में आम जनता का ही शासन है या प्रजातंत्रा के नाम पर प्रजा यानी आम जनता के साथ छल हो रहा है। यह बात आम जनता की भी समझ में नहीं आ रही है कि देश तो प्रजातांत्रिक है, किंतु प्रजा के हाथ कुछ लग नहीं रहा है। ‘आम जनता’ के नाम पर ‘खास’ लोगों का पोषण हो रहा है।

भारतीय शासन-प्रशासन प्रणाली या व्यवस्था इस प्रकार की बन चुकी है कि इस व्यवस्था में ‘कोई खा-खाकर परेशान है तो कोई खाने बिना मर रहा है।’ आखिर इस प्रकार की व्यवस्था को एक आदर्श व्यवस्व्था कैसे कहा जा सकता है? आखिर ऐसा हो भी क्यों न? क्योंकि व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए जो आवश्यक अंग हैं, उनमें आपसी समन्वय एवं एकता की कमी है। संविधान में हमारी व्यवस्था को संचालित करने के लिए कार्यपालिका, न्याय पालिका एवं विधायिका की विधिवत व्यवस्था की गई है और यह तय किया गया है कि किसके क्या काम, क्या कर्तव्य एवं क्या अधिकार हैं? कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका के अतिरिक्त एक मीडिया भी है, जिसे व्यवस्था के अंतर्गत चौथे स्तंभ के रूप में माना जाता है।

व्यवस्था के ये चारों स्तंभ एक दूसरे के पूरक एवं सहायक हैं। यदि इनमें से कोई एक भी स्तंभ अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो जाये तो पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी। वैसे तो सभी अंगों का अपना एक विशेष महत्व है, किंतु विधायिका एक ऐसा स्तंभ है जिसे देश में विधान यानी नियम-कानून बनाने का अधिकार है। इस सतंभ को सीधे-सीधे जन-प्रतिनिधियों का माना जा सकता है।

ये जनप्रतिनिधि प्रत्यक्ष रूप से सरकार चलाते हैं। इन्हीं के नेतृत्व में देश के लिए नीतियां एवं कार्यक्रम बनाये जाते हैं। जन प्रतिनिधियों की देख-रेख में इन्हीं नीतियों एवं कार्यक्रमों को सुचारु रूप से संचालित करने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है। कार्यपालिका का सीधा-सा अर्थ ब्यूरोक्रेसी या पूरी की पूरी नौकरशाही से है। इस व्यवस्था को सीधे-सीधे इस भाषा में भी समझा जा सकता है कि जिन लोगों को जनता की सेवा करने की जिम्मेदारी दी गई है, चाहे वह किसी भी रूप में हों, कार्यपालिका के अंतर्गत आते हैं।

शासन-प्रशासन में किसी भी किस्म का व्यवधान उत्पन्न न हो, कोई नियमों-कानूनों के खिलाफ कार्य करने एवं चलने का दुस्साहस न करे या अनैतिक कार्य न करे, ऐसे सभी लोगों को दंडित करने की जिसकी जिम्मेदारी है, वह न्यायपालिका है। न्यायपालिका के बारे में समझने एवं जानने के लिए अलग से लिखा जा सकता है, किंतु फिलहाल अभी यही कहा जा सकता है कि संविधान विरोधी, समाज विरोधी, देश विरोधी एवं अन्य अनैतिक कार्य न हों, इसे नियंत्रित करने में न्यायपालिका बहुत मददगार साबित 

हो रही है।

कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के अलावा एक स्तंभ मीडिया भी है, जिसे चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाता है। मीडिया की जिम्मेदारी यह है कि इन स्तंभों से कहीं कोई चूक हो जाये या अपने दायित्व का निर्वाह न करें तो उसके प्रति मीडिया जनता को जागरूक करे और इन स्तंभों को अपने कर्तव्यों से भटकने न दे। देश में जहां कहीं अज्ञानता, अशिक्षा, सामाजिक कुरीति, अंधविश्वास, भ्रष्टाचार, अपराध, बेरोजगारी या अन्य किसी तरह की बुराई या कमजोरी नजर आये तो मीडिया शासन-प्रशासन एवं देश की आम जनता को उसके प्रति जागरूक करे।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि समाज में मीडिया की भूमिका एक सजग प्रहरी की है। मीडिया यदि प्रहरी की भूमिका ठीक ढंग से निभाये तो बाकी तीनों स्तंभ सचेत रहेंगे। उन्हें ऐसा लगेगा कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, उन पर किसी की नजर है। वर्तमान समय में देखने में आ रहा है कि ये चारों स्तंभ एक दूसरे के पूरक न होकर प्रतिद्धंदी के रूप में नजर आते हैं। हालांकि, इस प्रकार की स्थिति सभी मामलों में देखने को मिलती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है, किंतु तमाम मौकों पर ऐसा देखने को मिल जाता है।

कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि एक स्तंभ दूसरे स्तंभ पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करता है। ऐसे में हर स्तंभ के अधिकारों का संतुलन बिगड़ जाता है। विशेषकर जन-प्रतिनिधियों की इच्छा तो यही होती है कि उनके ऊपर किसी तरह का कोई नियंत्राण स्थापित न हो। जन-प्रतिनिधि यही चाहते हैं कि उनका प्रभुत्व हर किसी पर बना रहे।

कई बार देखने में आया है कि न्याय पालिका की तरफ से कुछ सख्त निर्णय या टिप्पणी आ जाती है तो जन-प्रतिनिधियों को नागवार लगने लगती है और इसके विरोध में सभी दलों के नेता एकजुट होने लगते हैं। अभी हाल-फिलहाल कुछ ऐसा ही देखने को मिला है। कई बार न्यायपालिका की भूमिका को देखकर ऐसा लगता है कि यदि न्यायपालिका न होती तो देश में किसी भी घोटाले का पर्दाफाश ही नहीं हो पाता।

हाल के कुछ वर्षों में देखने में आया है कि न्यायपालिका की सक्रियता के कारण ही कुछ घोटालों को पर्दाफाश हो गया और कुछ माननीयों को जेल की हवा भी खानी पड़ी। आज न्यायपालिका कह रही है कि यदि किसी भी व्यक्ति को सजा हो जाये तो उसे चुनाव लड़ने से तुरंत रोक दिया जाये तो इसमें क्या हर्ज है? यह तो बहुत अच्छी बात है किंतु दुर्भाग्य इस बात का है कि इस निर्णय के विरुद्ध पूरी राजनैतिक बिरादरी एकजुट हो गई है। इसी प्रकार राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के पक्ष में राजनैतिक दल तैयार नहीं हैं। इसके विरोध में तमाम राजनैतिक दल लामबंद हो गये, किंतु संसद में जब सांसदों का वेतन-भत्ता बढ़ाने एवं अन्य किसी तरह की सुविधा देने की बात आती है तो सभी दल एकजुट हो जाते हैं। आखिर इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न ही क्यों हुई कि देश की राजनीति को सुधारने एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका को आगे आना पड़ रहा है। यह काम तो विधायिका एवं कार्यपालिका को करना चाहिए था।

तमाम लोग तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि अब न्यायपालिका ही उम्मीद की एक मात्रा किरण है। कभी-कभी ऐसा देखने को मिलता है कि यदि मीडिया न होता तो ऐसा नहीं होता, वैसा नहीं होता। यानी की कई मामलों में मीडिया की भूमिका की खूब तारीफ होने लगती है।

हालांकि, यह भी नहीं कहा जा सकता कि मीडिया की भूमिका सर्व दृष्टि से सही है, किंतु कभी-कभी ऐसा जरूर लगता है कि मीडिया ही सरकार चला रहा है और यदि मीडिया न हो तो राष्ट्र को काफी क्षति हो सकती है। अपनी लाख कमियों के बावजूद मीडिया की भूमिका तमाम मौकों पर सराहनीय देखने को मिल जाती है। कुल मिलाकर यदि निष्पक्ष विश्लेषण किया जाये तो अपनी तमाम कमियों के बावजूद न्यायपालिका एवं मीडिया की भूमिका कार्यपालिका एवं जन प्रतिनिधियों की भूमिका से काफी बेहतर नजर आती है।

हालांकि, न्यायपालिका एवं मीडिया पर भी आये दिन भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हें। कभी-कभी देखने में आता है कि ब्यूरोक्रेसी एवं सरकारी नौकरी करने वालों में तमाम लोगों को इस बात का बहुत गुमान होता है कि वे जब चाहें, जिस दल को हरवा दें और जिसको चाहें जितवा दें। इन लोगों की इस बात में काफी दम भी है। सरकारी अधिकारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिसको चाहते हैं, लाभ या हानि पहुंचा भी देते हैं इसलिए तमाम सरकारें कभी सरकारी कर्मचारियों से टकराने का साहस नहीं करती हैं। जो सरकारें ऐसा करने की कोशिश करती हैं, उन्हें इसका अंजाम भी भुगतना पड़ता है। ऐसा कई बार देखने को भी मिला है।

कभी-कभी ऐसा देखने को मिलता है कि ये चारों स्तंभ एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी न होकर प्रतिद्वंदी हैं। एक दूसरे के खिलाफ आग उगलते दिखते हैं। वर्तमान समय की यह मांग है कि यदि सरकार के सभी अंग आपस में मिलकर काम करना शुरू कर दें तो किसी को एक दूसरे के अधिकारों में हस्तक्षेप करने या दखल देने की नौबत ही नहीं आयेगी मगर ऐसा हो नहीं पा रहा है।

आज यदि सार्वजनिक रूप से चर्चा की जाये तो एक बात अवश्य उभर कर सामने आती है कि यदि जन-प्रतिनिधि अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से करने लगें तो बाकी सभी लोग अपने आप ठीक हो जायेंगे। माना जा रहा है कि जन-प्रतिनिधियों एवं राजनैतिक बिरादरी की कमजोरियों एवं कमियों का लाभ अन्य स्तंभों के लोग उठा रहे हैं किंतु इसका मतलब यह भी नहीं है कि एक स्तंभ की कमजोरी या कमी का लाभ कोई दूसरा स्तंभ उठाये। इससे तो कोई भी मामला सुलझने की बजाय उलझता है।

कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि सभी स्तंभ एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी बनकर काम करें न कि एक दूसरे का प्रतिद्वंदी नजर आयें। चूंकि, यह परिवर्तन का दौर है, मंथन का दौर है। एक लंबे मंथन के बाद निश्चित रूप से कुछ सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे और स्वस्थ एवं खुशहाल भारत का निर्माण संभव हो सकेगा।

अरूण कुमार जैन

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