
देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के कमजोर पड़ने और राजनीतिक पार्टियों के भीतर लोकतंत्र की समाप्ति होने के कारण देश में .राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक संकट गहराता जा रहा है।कोरोना, अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्रीय सुरक्षा आदि संकटो से हम घिरते चले जा रहे हैं निश्चय ही इस समय भारत गंभीर खतरों से घिरा हुआ है क्या कारण है कि जन्मभूमि को जननी समझने वाले भारतवासी आज अपनी समस्याओं का समाधान ढुंढने बजाय आपस की खींच-तान मे लगे हुए हैं क्या कारण है कि शस्य श्यामला भारत भूमि पर आज अशांति, आतंक, भूख,भष्टाचार, और कोरोना का ताण्डव हो रहा है?
कोरोना महामारी,राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था से उबरने के लिए राष्ट्रीय सहमति की तत्काल जरूरत है, इसके लिए समूचे विपक्ष व सत्तारूढ़ दल को एक मेज पर बैठ कर सर्वसम्मति से देश हित में हल ढूंढना चाहिए। कोरोना संकट की तरह ही राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर भी सत्तापक्ष-विपक्ष को एक होना चाहिए परन्तु चीन का विषय सबसे अधिक गंभीर है क्योंकि चीन खुल्लमखुल्ला भारत-चीन समझौते का उल्लंघन कर रहा है,तथा रह-रह कर अपना रंग दिखा रहा है। चीन को करारा जबाव सीमाओं पर ही नहीं देश के भीतर भी देना है, देश की रग-रग में समाये चीनी सामान का बहिष्कार करके हर व्यक्ति को चीन के मनसूंबों को नाकाम करना है। चीन आज सीमाओं पर तनाव बरकरार रखने के साथ-साथ पाकिस्तान एवं नेपाल आदि पडौसी देशों को हमारे खिलाफ खड़ा कर दिया है। जिनको हम सहयोग देते रहे वही आजकल हमें आंख दिखाने लगा है। चीन अपनी कुछ कम्पनियों को भारत में स्थापित करके पुनः एक उपनिवेश बनाए जाने की कोशिशों के रूप में तेजी के साथ सर उठाता रहा है, नेपाल से भारत के दोस्ताना सम्बन्ध रहे हैं चीन के साथ उसे जोड़ना अनावश्यक रूप से चीन का पलड़ा भारी करना होगा।
अतः इस मुद्दे पर भी राष्ट्रीय सहमति की आवश्यकता है कि नेपाल के साथ रिश्तों की गर्मजोशी कैसे बदस्तूर जारी रहे और उसे अपनी गलती सुधारने का मौका किस रूप में दिया जाये। मिल बैठ कर इसका निर्णय लेना होगा।
कोरोना महासंकट के कारण भारत की अर्थ-व्यवस्था रसातल में चली गयी है। कोरोना वायरस के भारत में पहुंचने से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था चिंताजनक थी। लेकिन कोरना संक्रमण ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी। कभी दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था की विकास दर अब छह सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है। साल 2019 में भारत में बेरोजगारी 45 सालों के सबसे नीचे स्तर पर थी और पिछले साल के अंत में देश के आठ प्रमुख क्षेत्रों से औद्योगिक उत्पादन लगभग ठप्प पड़ा है। यह बीते 14 वर्षों में उत्पाद एवं बेरोजगारी की सबसे खराब स्थिति है। है ।
यह स्वीकार करना ही होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था का पैमाना केवल शेयर बाजार का सूचकांक नहीं हो सकता बल्कि इसका अन्दाजा शहरों के बाजारों और फैक्ट्रीयो की हालत और आम जनता की आर्थिक गतिविधियों एवं तथ्यों को देख कर ही लगाया जा सकता है। उत्पादन से लेकर व्यापार-वाणिज्य और वित्त के मोर्चे तक हर तरफ गिरावट ही गिरावट है मध्यम व लघु उत्पादन इकाइयां माल की मांग न होने की वजह से बैंक ऋण लेने के स्थान पर अपनी फैक्ट्रीयां ही बन्द करने या कर्मचारियों की छंटनी करके खर्चे कम करने की राह पर चल रही हैं येसे मे भविष्य हमारे सामने भयानक चेहरा लेकर खड़ा हो रहा है। जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। जब बैंकों से कर्ज उठाने वाले ही गायब हो रहे हैं तो हम किस बूते पर औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की कल्पना कर सकते हैं। जब लाकडाऊन ने 12 करोड़ लोगों को बेरोजगार बना डाला है तो संगठित क्षेत्र से लेकर असंगठित क्षेत्र में कौन सी जादुई छड़ी निवेश को बढ़ावा दे सकती है। विघटन के कगार पर खड़े राष्ट्र को बचाने के लिए राजनीतिज्ञों को अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति को त्यागना होगा ,संकट की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर हल ढूंढना होगा।
आज से हर भारतवासी को न सिर्फ अपने देश मे निर्मित समानो को खरीदना होगा बल्कि गर्व से उसका प्रचार भी करना होगा। तभी चीन को माकूल जबाव दे पायेंगें, और तभी हम देश की अर्थव्यवस्था को भी गति दे पायेगें।
आज भारतीय लोकतंत्र के लिए घोर निराशाजनक एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। कि सभी दल एक जूट होकर समस्याओं के खिलाफ लड़ाई नहीं लड रहें जबकि समूचा देश एक साथ खडा है। जब महात्रासदी कोरोना संकट के दौर में एक खामोश किस्म का ”सत्ता युद्ध“ देश मे देखने को मिल रहा है,तो अन्य समस्याओं को लेकर विचारों मे कितनी भिन्नता होगी इसका अंदाजा लगाना कठिन है। येसी परिस्थितिया देश मे मूल्यहीनता,संकीर्ण और अपराधिक प्रवृत्तियो को भी जन्म दे सकती है।
इस लेख के लिए धन्यवाद !!