असंयम से बदलाव नहीं, बवाल होगा

चैतन्य प्रकाश

पिछली पूरी सदी मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ की तरह बीती है। वस्त्रें से शरीर ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर बड़ा जोर रहा है। बट्रर्ड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ”विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, कोई बिजली नहीं दौड़ती।”

दिल्ली की मेट्रो रेल इन दिनों भारत के बदलते हुए सामाजिक चरित्र का आइना नजर आती है। भूखे मन और भरे पेट वाले जन समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली यह भागती हुई भीड़ आखिर कहां जाना चाहती है? यह सवाल ‘कब, कहां, किससे, कैसे और क्यों पूछा जाए’ की पंच-प्रश्नी कारा में कैद होकर छटपटाता रह जाता है। जो भी हो इस भीड़ की बेहोशी काबिलेगौर है। ऐसा लगता है, धन और पद की खुमारी में बहुत नीचे और पीछे रह गए ‘आत्म’ को खोजना और जानना शायद अब बहुत ‘कम’ लोगों की जिंदगी में अहम बात है।

कालेज की सहकर्मी युवा प्राध्यापिका ने मेट्रो रेल यात्र के अपने सफर के अनुभव बांटते हुए एक शाम नारी मुक्ति के मायने ढूंढने की आवश्यकता को शिद्दत से रेखांकित किया। उन्होंने बड़ी हैरानी और संकोच के साथ बताया कि ‘एक लड़की अपने माता-पिता के साथ मेट्रो में यात्र कर रही थी और उसकी टी शर्ट पर यह वाक्य लिखा था- Virginity is not a dignity. It is lack of opportunity. हिंदी रूपांतरण शायद इस तरह होगा- ‘कौमार्य या यौन शुचिता सम्मान की बात नहीं है, यह अवसर की कमी है।’ बात बढ़ी, कयास लगाया कि शायद माता-पिता को पता न हो, फिर पता हो तो भी… हो सकता है माता-पिता भी सहमत हों। यह एक अवधारणा, आंदोलन या क्रांतिकारिता भी हो सकती है। खैर… यह युवा प्राध्यापिका हैरान थी, अपने सामाजिक सरोकारों के कारण वह चिंतित भी थी।

सवाल उठता है कि क्या मेट्रो में सपरिवार सफर करती हुई यह लड़की नारी मुक्ति की सशक्त प्रतिनिधि है? और उसे हैरत से देखती हुई युवा प्राध्यापिका क्या परंपरागत, रूढ़िवादी सामाजिक नजरिए की शिकार है? दोनों सवालों का हां या ना में उत्तर खोजना शायद एकांगिता होगी। यद्यपि इन सवालों पर बहस छेड़ना कोई नई बात नहीं है, यह मुद्दा भी नया नहीं है। मगर इन प्रश्नों का सही और संतुलित उत्तर खोजना वक्त का तकाजा है।

पश्चिम की प्रख्यात नारीवादी विचारक एवं लेखिका सिमोन द बोवुआर का एक प्रसिध्द वाक्य है- ‘स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।’ मातृत्व की अवधारणा और अन्यायपूर्ण श्रम विभाजन पर सिमोन ने क्रांतिकारी नजरिया प्रस्तुत किया है। उनका मानना था कि स्त्रियोचित प्रकृति स्त्रियों का कोई आंतरिक गुण नहीं है। यह पितृसत्ता द्वारा उन पर विशेष प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, मानसिक अनुकूलन और सामाजीकरण के द्वारा आरोपित किया जाता है। सिमोन द बोवुआर कहती हैं, फ्स्त्रियों का उत्पीड़न हुआ है और स्त्रियां खुद प्रेम और भावना के नाम पर उत्पीड़न की इजाजत देती हैं।” सिमोन के इस नजरिए को क्रांतिकारी नारीवादी सोच (Radical Feminist approach) कहा गया। मगर अपनी प्रसिध्द पुस्तक- ‘द सेकेंड सेक्स’ की अंतिम पंक्ति में सिमोन द बोवुआर यह सदिच्छा व्यक्त करती हैं, ”नि:संदेह एक दिन स्त्री और पुरुष आपसी समता और सह-अस्तित्व की जरूरत को स्वीकार करेंगे।”

19 वीं सदी के विचारक जान स्टुअर्र्ट मिल ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘द सब्जेक्ट आफ वुमेन’ में लिखा है- ”विवाह-सूत्र में बंधने वाले दोनों साथी अगर एक समान सुसंस्कृत और शिक्षित हैं और विचारों तथा जीवन के उद्देश्यों में एक दूसरे से सहमति रखते हैं तो कहने की जरूरत नहीं कि उनके संबंधों में एक स्वस्थ समानता होगी और दोनों ही एक-दूसरे के व्यक्तित्व और मानसिक स्तर के विकास में भरपूर योगदान देंगे। जो इस स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, उन्हें और कहने की जरूरत नहीं और जो इसे दिवा स्वप्न समझते हैं, उनके सामने कोई तर्क रखना व्यर्थ होगा। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि सिर्पफ ऐसे ही विवाह को आदर्श विवाह कहा जा सकता है। आदर्श विवाह की अन्य सभी अवधारणाएं आदिम बर्बरता को नए चोलों में परोसने की कोशिशें भर हैं। मनुष्य का नैतिक पुनरूत्थान सही अर्थों में उसी दिन शुरू होगा जिस दिन सबसे ज्यादा आधारभूत सामाजिक संबंध बराबरी के सिध्दांत पर आधारित होगा और मनुष्य अपने बराबर वालों के साथ मैत्रीपूर्वक रहना और विकास करना सीख लेगा।”

एक संवेदनशील विचारक की भांति विचार करते हुए स्टुअर्ट मिल कहते हैं- ”जब हम पृथ्वी की आधी आबादी के ऊपर अनचाही विकलांगता मढ़ने के दोहरे दुष्प्रभावों को देखते हैं तो एक तरफ उनसे जीवन का सबसे सहज, स्वाभाविक और ऊंचे दर्जे का आनंद छिन जाता है और दूसरी तरफ जीवन उनके लिए उकताहट, निराशा और गहरी असंतुष्टि का पर्याय बन जाता है। फिर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि पृथ्वी पर एक बेहतर जिंदगी के मानवीय संघर्ष में स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक प्रमुख और महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए। इस संबंध में पुरुषों के खोखले भय सिर्पफ स्त्रियों को नहीं बल्कि पूरी मनुष्यता को बंधनग्रस्त किए हुए हैं। क्योंकि मानवीय प्रसन्नता के आधे झरनों के सूखने से पूरे वातावरण के स्वास्थ्य, सम्पन्नता और सौंदर्य पर प्रभाव पड़ता है।”

सिमोन द बोवुआर और जान स्टुअर्ट मिल के विचारों को जानते हुए हमें पश्चिम की औरतों की स्थिति का भी आभास मिलता है। कहा जाता है कि वहां स्त्रियों की स्थिति लगभग दोयम दर्जे की रही है। समूचे विश्व में स्त्रियों के प्रति किए गए दुर्व्यवहारों, अत्याचारों और अपराधों की अनगिनत दास्तानें हैं। एक लोक कहावत है- ‘औरत जात का झाड़-झाड़ बैरी होता है।’ यानी प्रत्येक स्थिति उसकी शत्रु है।

समूचे विश्व की सामाजिक संरचना में स्त्री जाति को समय-समय पर भीषण शारीरिक-मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा है। विचार सम्पन्न, हार्दिक और आत्मवान महापुरुषों के देश भारत में सैध्दांतिक रूप से स्त्रियों के संदर्भ में कुछ अपवादों को छोड़कर सकारात्मक आख्यान मौजूद हैं और कमोबेश यहां की स्त्रियों के स्वतंत्र, समर्थ, स्वस्थ और सम्पन्न होने के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। परंतु इस सदी के प्रारंभ में भारतीय सांस्कृतिक वैशिष्टय की धज्जियां भारत में ही लगातार उड़ रही हैं, ऐसे में तब यहां की स्त्रियां भी स्वयं को लगातार असुरक्षित और अपमानित महसूस कर रही हैं। इसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

मगर यह भी सच है कि स्त्री को सहज स्वाभाविक सामाजिक स्थिति मिलना और उसकी क्षमता और प्रतिभाओं का सही-सही उपयोग और मूल्यांकन होना पिछली सदी के उत्तरार्ध्द में ही लगभग सारे विश्व में शुरू हो गया है। अब स्त्रियां गांव, चौपाल, गलियों, सड़कों, बाजारों से लेकर स्कूल-कालेज, छोटे-बड़े दफ्तरों और प्रतिष्ठानों, सभी जगह पर निर्द्वन्द्व रूप से अपनी सार्थक एवं सशक्त उपस्थिति से सबको चमत्कृत कर रही हैं। ऐसे में स्त्री मुक्ति के प्रश्नों के भटक जाने का खतरा भी लगातार मौजूद है। वास्तव में ‘मुक्ति’ एक मोहक शब्द हैं। यह हमें लालायित करता है, मगर भ्रमित भी करता है। नारी मुक्ति के संदर्भ में भी शायद यह शब्द ‘भ्रम’ का पर्याय बनकर रह गया है। इस शब्द के साथ यह मान लिया जाता है कि स्त्री और पुरुष न केवल अलग-अलग हैं बल्कि एक-दूसरे के विरोधी एवं शत्रु भी हैं। और स्त्रियों को पुरुषों से मुक्त होने की जंग लड़नी है। निहितार्थ है कि वे अभी तक पुरुषों की गुलाम हैं। नारी मुक्ति के मानो ये प्रतीक बन गए हैं- पुरुषों की तरह रहना और जीना, तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर जीना, और जैसे पुरुष देह का वर्चस्व सामाजिक, प्राकृतिक रूप से स्थापित हुआ है, उसके जवाब में नारी देह का वर्चस्व स्थापित करना।

समस्या तब और जटिल हो जाती है जब नारी मुक्ति का मतलब ‘देह’ को केन्द्र में रखने, उसकी नुमाइश और लेन-देन से समृध्दि, सम्पन्नता, अधिकार एवं वर्चस्व प्राप्त करने तक पहुंच जाता है। ऐसे में एक नई प्रकार की गुलामी और शोषण की शुरूआत होती है जो पुराने शोषण और गुलामी से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है, सिवाय इसके कि इसमें स्त्री मुक्ति या स्वातंत्रय के नाम पर अहं पोषण भी होता रहता है। मगर इस स्त्री मुक्ति या स्वतंत्रता का परिणाम क्या है? अंततोगत्वा स्त्री चेतना की नैसर्गिक अभिव्यक्ति का तिरस्कार और आरोपित व्यवहार एवं अहंकार का मनमाना प्रदर्शन। क्या यही है स्त्री की और पुरुष की नैसर्गिकता कि वे एक दूसरे के शत्रु की तरह जीवन भर वर्चस्व की लड़ाई लड़ते रहें? देह के माध्यम से एक दूसरे को पछाड़ने और पराजित करने का चक्रव्यूह रचते रहें? यदि हां तो इसमें से सृष्टि का विनाश ही हो सकता है, विकास कदापि नहीं। इसके लक्षण भी वैश्विक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष नजर आ रहे हैं।

सच्चाई तो यह है कि शास्त्रीय एवं सामाजिक भ्रांतियों के कारण पूरब में स्त्री दासी हो गई और नारी मुक्ति की भ्रांति के कारण पश्चिम में वह पुरुष की कार्बन कापी बन गई है। पुरुष जैसी महिला बनकर वह खुश है। इसे ही वह उपलब्धि मान रही है। वह पुरुष जैसी क्लर्क, पुरुष जैसी पाइलट, पुरुष जैसी सैनिक बनकर अहंपोषण करती है। आश्चर्यजनक रूप से इन सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि पुरुष श्रेष्ठ है और स्त्री निकृष्ट, तभी तो वह पुरुष जैसा बनने के लिए आतुर है। और वैसा बनकर बहुत खुश है, गौरवान्वित है।

पश्चिम की नकल में पुरुषनुमा स्त्रियां अब पूरब में भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। विचारक ‘जोड’ ने एक पुस्तक में लिखा है- ”जब मैं जन्मा था तब पश्चिम में होम्स थे, अब हाउसेस रह गए हैं क्योंकि पश्चिमी घरों से स्त्री खो गई है।”

आज स्त्री अस्मिता के संघर्ष में ‘दैहिक स्वतंत्रता और पुरुष का विरोध’ ही दो प्रमुख पहलू नजर आते हैं। परिणाम यह हुआ है कि स्त्री देह अब केवल ‘कामोत्तेजना’ नहीं बल्कि ‘काम विकृति’ के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है। वह लगभग ‘वस्तु’ के रूप में क्रय-विक्रय के लिए बाजार में मौजूद हो गई है। यह समूची स्त्री जाति का न केवल अपमान है बल्कि निरा दुर्भाग्य भी है कि अब स्त्री की देह और उसका छायाचित्र (फोटो) ही सब कुछ है। उसकी आत्मा का कोई मूल्य नहीं है। आत्महीन स्त्री की मुक्ति और स्वतंत्रता के मायने क्या हो सकते हैं? कोई किसी तस्वीर या मूर्ति को बेड़ी में बांधकर रखे या हवा में खुला छोड़ दें तो क्या फर्क पड़ने वाला है?

उदाहरण दूसरे भी हैं। भारतीय इतिहास की एक सशक्त नारी मीरा एक आत्मवान स्त्री है। वह देह के पार आत्मा के जगत पर जीती है। उसकी देह को बांधकर रखने वाले, उसे गुलाम बनाने की इच्छा रखने वाले राजे-महाराजे उसके जीते-जी उसके सामने लगातार पराजित होते रहे। ऐसा ही उदाहरण कश्मीर में नग्न संन्यासी के रूप में पूजित रही लल्लेश्वरी का है। देह पर वस्त्र नहीं हैं, क्योंकि लल्ला (लल्लेश्वरी) देह नहीं है, चैतन्य आत्मा है। देह को क्यों ढंके, किससे छिपाए और उससे (परमात्मा) क्यों छिपाए जो सब जानता है, सब देखता है। इसलिए आज भी आम कश्मीरी के लिए दो शब्द परम आस्था के प्रतीक हैं एक अल्लाह और दूसरा लल्ला।

पिछली पूरी सदी मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ की तरह बीती है। वस्त्रें से शरीर ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर बड़ा जोर रहा है। बर्टंरेड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, तो भी कोई बिजली नहीं दौड़ती।”

वास्तव में वस्त्रें पर केन्द्रित मानसिक धारणाओं ने मस्तिष्कीय काम (cerebral sex) को बहुत जगह दे दी और मनुष्य को जटिल कामुक (Sexually Complicated) बना दिया है। इसी का परिणाम हैं स्त्रियों के प्रति हो रहे छेड़छाड़, अपराध और बलात्कारों की बढ़ती हुई संख्या। ऐसा लगता है कि जब तक देह के वस्त्रें को और देह के अंग, प्रत्यंगों को सौंदर्य मानने की भूल होती रहेगी तब तक दैहिक शोषण और बलात्कार भी होते रहेंगे।

जरूरत इस बात की है कि स्त्री और पुरुष दोनों के अलग-अलग होने की बात के मिथ्या तत्व को प्रमाणित एवं प्रचारित किया जाए। यह सत्य स्वीकार करने का साहस जुटाया जाए कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें से नैसर्गिक रूप से कोई विरोध और शत्रुता नहीं है बल्कि वे स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के सहयोगी हैं। स्टीफन. आर. कोवे ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘सेवन हैबिट्स आफ हाइली इफेक्टिव पीपल’ के प्रारंभ में लिखा है-”Interdependence is better than Independence.”

वास्तव अंतर्निर्भरता जीवन का सूत्र है। स्वतंत्रता की आत्यंतिक अवधारणाएं जीवन-विरोधी एवं अहं जन्य मालूम पड़ती हैं। स्त्री पुरुष के संदर्भ में अंतर्निर्भरता और सहजीवन एक संपूर्ण सत्य है। यह जीवन की स्वाभाविकता का मूल आधार है। उनकी एकात्मता नैसर्गिक है।

गांधी जी लिखते हैं- ”जिस प्रकार स्त्री और पुरुष बुनियादी तौर पर एक हैं, उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूल में एक होनी चाहिए। दोनों के भीतर वही आत्मा है। दोनों एक ही प्रकार का जीवन बिताते हैं। दोनो की भावनाएं एक सी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक-दूसरे की सक्रिय सहायता के बिना जी नहीं सकते। और इस स्त्री, पुरुष नाम के दोनों पहलुओं को एक इकाई की तरह जान लेना, समझ लेना और जीने की कोशिश करना ही विवाह नामक व्यवस्था का उद्देश्य हो सकता है।य्

लेख के प्रारंभ में दी गई स्टुअर्ट मिल की उक्ति और इस संबंध में गांधी जी की उक्ति से कहीं भी विरोध नहीं दिखता है, बल्कि गांधी जी कहीं अधिक गहरे से विचार करते हुए उदात्त तल पर पहुंचे हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं- ”विवाह जीवन की स्वाभाविक वस्तु है और उसे किसी भी अर्थ में पतनकारी और निंदनीय समझना बिल्कुल गलत है। आदर्श यह है कि विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाए और इसलिए विवाहित स्थिति में आत्म संयम का जीवन बिताया जाए।”

वास्तव में सहजीवन की स्वाभाविक शर्त है आत्मसंयम। संयमहीन व्यक्ति सहजीवन के लिए अयोग्य एवं अपात्र ही सिध्द होता है। केवल अपने लिए भोग करने वाला तो पशु के समान शीघ्रतिशीघ्र जीवन समाप्ति की ओर पहुंच जाता है। भोग और कामोपभोग से तृप्ति मिलती भी कहां है। अपनी ही इंद्रियों के बेजां इस्तेमाल से भला सुख कैसे मिल सकता है, दुनिया भर में धूम्रपान, मद्यपान और अनेक नशे के तरीकों से सुख पाने की कामना करने वाले लोगों को रोगी होते हम हर दिन देख रहे हैं। कामोपभोग में डूबे लोगों को भी असाध्य बीमारियों से मरते देखना कोई आश्चर्य नहीं है। तो फिर स्त्री पुरुष व्यक्तिगत कामोपभोग को जीवन का सुख या लक्ष्य समझने की नादानी करें तो इसे कालीदासीय मूर्खता कहना लाजिमी है। गांधीजी लिखते हैं- ”अगर हम स्त्री और पुरुष के संबंधों पर स्वस्थ और शुध्द दृष्टि से विचार करें और भावी पीढ़ियों के नैतिक कल्याण के लिए अपने को ट्रस्टी मानें तो आज की मुसीबतों के बड़े भाग से हम बच सकते हैं।” फिर यौनिक स्वतंत्रता का मूल्य क्या है, यह केवल स्वच्छंदता और नासमझी भरी छलांग हो सकती है, अस्तित्व का खतरे में पड़ना जिसका परिणाम होता है। इसी तरह यौन शुचिता या कौमार्य का प्रश्न भी है। यह केवल स्त्रियों के लिए नहीं होना चाहिए। यह जरूरी है कि पारस्पारिक समर्पण एवं निष्ठा से चलने वाले वैवाहिक या प्रतिबध्द जीवन के लिए दोनो ओर से संयम का पालन हो। और इसकी समझ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से अनिवार्य एवं आवश्यक हो। पुरुष को भी संयम एवं संतुलन के लिए प्रेरित करने में स्त्री की भूमिका सदा से रही है। इसलिए स्त्री संयम की अधिष्ठात्री है। उसे स्वाभाविक संयम एवं काम प्रतिरोध की क्षमता प्राकृतिक रूप से भी उपलब्ध है। सिमोन द बोवुआर ने भी स्त्री की संरचना में उसकी शिथिल उत्तेजकता को स्वीकार किया है। यह भी पारस्परिकता का एक महत्वपूर्ण बिंदु है।

अस्तु, यौन शुचिता जीवन के रक्षण का ही पर्याय है और यौन अशुचिता नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से भी हमें विनष्ट करती है। संयम सदैव ही सभी समाजों में शक्ति का पर्याय माना जाता रहा है। कहावत भी है- ‘सब्र का फल मीठा होता है।’

मेट्रो में दौड़ता जन समाज आत्म के अज्ञान में भ्रमित हो रहा है। उसकी दशा कस्तूरी मृग जैसी है। भागता है सुगंध के लिए और थकता है अतृप्त हो कर। सुगंध स्वयं उसके भीतर है। उसका आत्म उसके आनंद का केन्द्र है। देह तो एक चारदीवारी है, परकोटा है, एक भवन है, जिसमें अस्तित्व मौजूद है आत्मा के रूप में। परकोटे को अस्तित्व मान लेना भ्रांति है। और परकोटे पर रंग-रोगन कर उसे चमका लेना भी क्षणिक तुष्टि भर है। उससे दुनिया जहान को भरमा लेना भी कुछ देर का खेल तमाशा है। परकोटे को गिरना है। आज नहीं तो कल।

आत्म की तलाश में जीवन लगे तो कुछ सार्थक हो, वरना यों ही छलनी से पानी भरने का खेल चलता रहेगा। देह के क्षणिक सुख के लिए इश्तिहार लगाकर आंदोलन करने वाले भूखे मन और भरे पेट के लोगों पर युवा प्राध्यापिका का ऐतराज और हैरानी जायज लगती है। उनकी चिंता में और सरोकार में दृष्टि का उन्मेष प्रमाणित होता है। मेरी मां कभी-कभार कहती रही है- ”मांस खाने का मतलब यह नहीं है कि लोग गले में हड्डी लटका कर घूमने लगें।”

नैतिकता और शुचिता से जुड़े सवालों पर क्रांतिकारिता गलत नहीं है। न ही सामाजिक दोषों, बुराइयों, कमजोरियों और अपवादों के खिलाफ लड़ना कोई छोटी बात है। मगर स्त्री जब सर्वाधिक स्वतंत्र, सक्षम, सहज, और समर्थ हो रही हो और उसके लिए समाज में परिवेश भी निर्मित हो रहा हो तब वैयक्तिक शारीरिक असंयम को आंदोलनकारिता का दर्जा देना न केवल स्त्री जाति की स्वाभाविकता और नैसर्गिकता को गलत अर्थ एवं दिशा देने की कोशिश है बल्कि सामाजिक संतुलन, गरिमा और मर्यादा को विश्रृंखलित करने की एक उच्छृंखल शरारत भी लगती है। आजादी भी जरूरत से ज्यादा हो तो बर्बादी में बदल जाती है। जमाने को बदलने की पहल करने वालों को खुद पर संयम रखने का पाठ पहले पढ़ना होता है। चाहे वे उम्र में बड़े हों या छोटे। असंयम से बदलाव नहीं बवाल ही हो सकता है।

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