राजनीति के लिए घातक है व्यवहारिकता का बढ़ता अभाव

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राजनीति हालांकि आज के दौर में सबसे निकृष्ट,घटिया तथा परले दर्जे की विषयवस्तु के रूप में चिन्हित की जा रही है। इसका कारण राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों व असामाजिक तत्वों का राजनीति में दख़ल, राजनीति में बढ़ता परिवारवाद तथा राजनीति को व्यवसाय बनाने जैसी विसंगतियां आदि हैं। परंतु इन सबके बावजूद विशेषकर हमारे देश में इसी राजनीति में कांफी हद तक व्यवहारिकता अब भी कायम है। परंतु निश्चित रूप से इसी राजनीति में कुछ घटनाएं ऐसी भी देखने को मिलती हैं जिन्हें देखकर यह एहसास होने लगता है कि ले-देकर राजनीति में बची एकमात्र व्यवहारिकता भी कहीं दम न तोड़ बैठे। इस बात का एहसास पूरे देश को उस समय शिद्दत से हुआ जबकि देश ने देखा कि महान मार्क्सवादी नेता ज्योति बसु की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने तथा उनकी अंतिम शव यात्रा में शामिल होने जहां बंगला देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद मात्र एक सप्ताह के भीतर दूसरी बार ढाका से भारत आईं, भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी आदि देश के सभी दिग्गज नेता बसु की शव यात्रा में शरीक होने कोलकाता पहुंचे, वहीं कोलकाता की ही नेता रेलमंत्री ममता बैनर्जी ने बसु की अंतिम यात्रा में शिरकत न कर देशवासियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। यहीं से यह सवाल उठने लगा है कि भारतीय राजनीति में ममता बैनर्जी निश्चित रूप से अत्यंत तेंजतर्रार, ईमानदार तथा आम लोगों से जमीनी स्तर पर जुड़ी रहने वाली एक नेता हैं। उन्हें बंगाल की शेरनी के नाम से भी जाना जाता है। अनेक महत्वपूर्ण राजनैतिक पदों पर शोभायमान हो चुकने के बावजूद वे कोलकाता में आज भी मात्र दो कमरे के साधारण एवं छोटे से मकान में निवास करती हैं। मामूली सूती साड़ी तथा पैरों में रबड़ की साधारण चप्पल पहनना उन्हें बहुत भाता है। उनका यही सादगीपूर्ण रहन-सहन उन्हें बंगालवासियों के दिलों पर राज करने में सहायक सिद्ध होता है। परंतु इन सब के बावजूद वे अपनी तृणमूल कांग्रेस में अपना एकछत्र नियंत्रण रखती हैं। कहा जा सकता है कि एक तानाशाह जैसा। यही कारण है कि ममता बैनर्जी के ज्योति बसु की अंतिम यात्रा में शामिल न होने का तृणमूल कांग्रेस के तमाम नेता व कार्यकर्ता विरोध व आलोचना तो कर रहे हैं परंतु मुखरित होकर नहीं बल्कि दबी जुबान से। ममता बैनर्जी का यह फैसला ममता विरोधियों को ख़ैर क्या रास आना था उनके समर्थक व प्रशंसक भी ममता के इस फैसले को लेकर हतप्रभ रह गए।

वैसे तो पूरे विश्व में यह मान्यता है कि किसी की मृत्यु उपरांत उसे माफ कर दिया जाता है तथा मृतक के प्रति क्षमा किए जाने की प्रवृति अपनाई जाती है। विशेषकर भारतीय संस्कृति तो हमें यही सिखाती है। यदि हम अपने शास्त्रों का अध्ययन करें तो भी हम यह पाएंगे कि महाभारत काल में भी कौरवों व पांडवों के मध्य होने वाले युद्ध में भी घायलों व मृतकों के प्रति एक दूसरे की ओर से सांत्वना व हमदर्दी का इंजहार किया जाता था। राजनीति के इस दौर की ही बात ले लीजिए तो हमें यह दिखाई देगा कि 1980 में संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु की ख़बर पाकर सर्वप्रथम संसद में तत्कालीन नेता विपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी इंदिरा गांधी के पास जा पहुंचे थे तथा उन्होंने लाखों राजनैतिक मतभेदों के बावजूद रोती हुई इंदिरा जी को चुप कराने तथा उन्हें ढाढ़स बंधाने का प्रयास किया था। संसद पर आतंकवादियों द्वारा 2001 में किए गए हमले के बाद भी देश ने यह देखा था कि सर्वप्रथम कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन कर उनके स्वास्थय तथा उनकी सुरक्षा के विषय में जानकारी प्राप्त की थी। राजनीति में व्यवहारिकता के प्रदर्शन के ऐसे और भी सैकड़ों उदाहरण देखने को मिल सकते हैं।

शायद यही वजह है कि भारतीय राजनीति में चुनावों के दौरान हिंसा के तमाम समाचार मिलने तथा तनावपूर्ण वातावरण में चुनाव संपन्न होने के बावजूद हमेशा ही यही देखा गया है कि पराजित पक्ष द्वारा विजयी राजनैतिक पक्ष के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण बिना किसी जोर जबरदस्ती व खून खराबे आदि के किया जाता रहा है। निश्चित रूप से इसके लिए किसी भी व्यक्ति या नेता का उदार व विशाल हृदय का स्वामी होना जरूरी है। स्वयं ज्योति बसु का यह कथन था कि जब तक आप का दिल बड़ा नहीं है तब तक आप महान नहीं बन सकते। परंतु ममता बैनर्जी ने एक महान, स्वीकार्य तथा हरदिल अजीज नेता होने के बावजूद ज्योति बसु की शव यात्रा में शामिल न होकर जिस तंगदिली व तंगनजरी का सुबूत दिया है उससे न केवल उनका राजनैतिक क़द छोटा हुआ है बल्कि उनके आलोचकों की संख्या में भी इजांफा होता देखा जा रहा है। इस बात की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ममता बैनर्जी का तंगनंजरी भरा यह कठोर कदम उन्हें नुंकसान भी पहुंचा सकता है।

ममता बैनर्जी ने बेशक स्वयं को अपने ही बलबूते पर पश्चिमी बंगाल में इस प्रकार स्थापित किया है कि वे राज्य में इस समय सत्तारुढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के विकल्प के रूप में देखी जा रही हैं। स्वयं कांग्रेस पार्टी जिस वामपंथी दल का गत तीन दशकों से विकल्प नहीं बन पा रही थी उसी वामपंथी दल को ममता बैनर्जी ने राज्य में एक सशक्त चुनौती दी है। यहां तक कि प्रणव मुखर्जी ने यह घोषणा भी कर रखी है कि यदि 2011 के राज्य के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस गठबंधन सत्ता में आता है तो गठबंधन की मुख्यमंत्री के रूप में ममता बैनर्जी के नाम पर भी विचार हो सकता है। ऐसी स्थिति में तथा उस रुतबे तक पहुंचने से पहले ममता को और अधिक उदार एवं विशाल हृदय का स्वामी बनने का प्रयास करना था न कि एक कठोर,निर्दयी एवं राजनीति को व्यक्तिगत् स्तर की सोच तक ले जाने वाली कोई तीसरे दर्जे की नेता बनने की कोशिश।

पिछले कुछ समय से पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का राजनैतिक ग्रांफ जहां कुछ नीचे की ओर जा रहा था वहीं ममता व उनकी तृणमूल कांग्रेस का ग्रांफ ऊपर की ओर बढ़ रहा था। परंतु ज्योति बसु की मृत्यु के पश्चात अब पश्चिम बंगाल उनके 23 वर्ष मुख्यमंत्री रहने की उनकी कारगुजारियों को भी याद करेगा तथा संभव है कि 2011 के विधानसभा के मतदान के माध्यम से राज्य की जनता उन्हें एक और श्रद्धांजलि देने का प्रयास भी करे। दूसरी ओर बंगाल में वामपंथियों ने ममता बैनर्जी द्वारा बसु की शव यात्रा में शिरकत न करने के उनके फैसले को भी न केवल ज्योति बसु बल्कि पूरे पश्चिम बंगाल के लोगों के अपमान के रूप में भी प्रचारित करना शुरु कर दिया है। वामपंथी 23 वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के उस मैराथनी राजनैतिक प्रयासों को शायद कभी नहीं भुला सकेंगे जिसके द्वारा बसु ने विधानसभा के लगातार 5 चुनावों में पार्टी को जीत की सौंगात से रूबरू कराया।

2011 में पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव के बारे में राजनैतिक विश्‍लेषकों द्वारा ज्योति बसु की मृत्यु पूर्व जो अनुमान लगाया जा रहा था,बसु की मृत्यु के पश्चात अब वह अनुमान कांफी हद तक बदल चुके हैं। और राजनैतिक अनुमानों के इस बदलाव को जहां बसु की मृत्यु ने नई दिशा दी है वहीं ममता बैनर्जी द्वारा बसु की शव यात्रा में शिरकत न करने के फैसले ने भी इस नए बदलाव की दिशा को गति प्रदान कर दी है। उधर ज्योति बसु द्वारा अंतिम संस्कार के रूप में अपने शरीर को मरणोपरांत मेडिकल सिसर्च हेतु दान किए जाने के ंफैसले ने भी बसु को मरणोपरांत भी महान से महानतम बना दिया है। ऐसे में यह देखने योग्य होगा कि राजनीति में अव्यवहारिकता के दु:खद प्रवेश का प्रभाव 2011 में पश्चिम बंगाल में होने वाले प्रस्तावित विधानसभा चुनावों पर आख़िर कुछ पड़ता भी है या नहीं। और यदि पड़ता है तो किस हद तक।

ममता बैनर्जी के आक्रामक व्यवहार व तेवरों को देखकर तो यह नहीं लगता कि वे अपने इस फैसले पर अफसोस जाहिर करने वाली या माफी मांगने वाली हैं। ज्योति बसु की शव यात्रा में शामिल न होने के फैसले को वह केवल इसी प्रकार न्यायसंगत ठहरा सकती हैं कि उनके अनुसार पश्चिम बंगाल की दुर्दशा के लिए ज्योति बसु ही जिम्मेदार थे। ऐसा समझा जा रहा है कि संभवत: यही उनके प्रति ममता की कटुता का कारण था। अब देखना यह होगा कि बंगाल की जनता ममता बैनर्जी के तर्कों को महत्व देती है या महान मार्क्सवादी नेता ज्योति बसु द्वारा की गई राज्य की सेवाओं तथा उनके जीवन यहां तक कि मृत शरीर को भी जनता की सेवा में समर्पित करने को तरजीह देती है। जाहिर है हमें इसके लिए 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की प्रतीक्षा करनी होगी।

-निर्मल रानी

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  1. आपके विचारों से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। आज व्‍यवहार कुशलता राजनीति में ही दिखायी देती है और यदि वहाँ से भी गायब हो जाएगी तब देश का बड़ा नुक्‍सान होगा। बढिया आलेख, बधाई।

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