राजनीति

चीन के खिलाफ स्वतंत्र रणनीति बनाए भारत – गौतम चाधरी

दुनिया में भले पाकिस्तान की स्थिति कूटनीतिक मामलों में कमजोर दिख रही हो लेकिन दक्षिण एशिया में पाकिस्तान की स्थिति कमजोर नहीं हुई है, बल्की मजबूत हुई है। पाकिसतान के कूटनीतिज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते है कि संयुक्त राज्य अमेरिका को अगर एशिया में सामरिक आधार बनए रखना है तो उसे पाकिस्तान को अपने साथ रखना ही होगा। चीनी की गतिविधियों से साफ जाहिर होता है कि वह भारत को आज भी अपना दुश्मन मानता है। चीन इस बात से बेखबर नहीं है कि भारत आजकल संयुक्त राज्य की गोद में बैठकर राजनीति कर रहा है। इस मामले को भांफ चीन, पाकिस्तान को ज्यादा महत्व देने लगा है और उसके साथ लगातार सामरिक समझौते किये जा रहा है। अब पाकिस्तान को दुनिया के दो ताकतवर देशों का समर्थन प्राप्त हो रहा है। यह भारत के लिए कितना अहितकर होगा, अंदाज लगाना कठिन नहीं है। आने वाले समय में चीन, पाकिस्तान की युगलबंदी भारत के खिलाफ एक बडी चुनौती खडा करने वाला है। पाकिस्तान और चीन के कूटनीनिक और सामरिक संबंध को तेजहीन बनाने के लिए भारतीय कूटनीति किसी प्रयास के बजाय अमेरिका के भरोसे हाथ पर हाथ रखे बैठा है। भारत के राजनेता यह मान कर चल रहे हैं कि यह काम भी अमेरिका ही कर देगा। भारत लगातार अमेरिकी सामरिक रणनीति का पिछलगुआ बनता जा रहा है। भारत के इस रणनीति से विश्व मंच पर न केवल भारत की साख कमजोर हो रही है अपितु आने वाले समय में भारत को भयानक परेशानी झेलनी होगी। विश्व परिस्थिति, उसमें पाकिस्तान का महत्व और फिर उन तमाम के बीच भारत की छिछली कूटनीति का परिणाम अब भारत के आंतरिक मामलों में भी दिखने लगा है। वाजपेयी सरकार के समय क्षणिक समाधान वाले कश्मीर में परिस्थिति बदलने लगी है। कश्मीर देश का सबसे खतरनाक मसला बन गया है। देश के विभिन्न भागों में सकि्रय साम्यवादी चरमपंथियों को मजबूत किया जा रहा है। भारत सरकार को माओवादियों के बारे में जानकारी शायद नहीं हो लेकिन वह इतना मजबूत हो चुके हैं कि अगर आज चाहें तो भारतीय गणतंत्र को तोड एक नये राष्ट्र की घोषणा कर सकता हैं। चीन और पाकिस्तान उन साम्यचरमपंथी को भी सहयोग कर रहा है।
भारत की छिछली कूटनीति के कारण आंतरिक स्थिति ही नहीं बाहरी स्थिति भी खतरनाक हो गयी है। भारत के पडोसी देश घीरे घीरे भारत के खिलाफ चीन को सहयोग करने लगे हैं। हालांकि चीन श्रीलंका में पहले से ही सकि्रय था लेकिन लिट्टे की समाप्ति के बाद चीन श्रीलंका में ज्यादा सकि्रय हो गया है। श्रीलंका में चीन ने न केवल सरकार के साथ मिलकर काम करने की योजना बनायी है अपितु तमिल विद्रोहियों में भी चीन की अच्छी पैठ है। इसका खमियाजा आने वाले समय में भारत को भुगतना पडेगा। इधर भारत का दूसरा बडा पडोसी बांग्लादेश की वर्तमान सरकार तो भारत के साथ है लेकिन यह संबंध ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। क्योंकि बांग्लादेश की आंतरिक कूटनीति पर चीन का दबदबा दिन व दिन बता जा रहा है। चीन बांग्लादेश में पैसा लगा रहा है। वहां के बंदरगाहों को सामरिक उपयोग का बनाया जा रहा है जिसमें चीन का अपना सामरिक हित छुपा हुआ है। म्यामार आदि पूर्वी एशिया के देशों में पहले से ही चीन की पकड मजबूत है। यही नहीं जिस नेपाल को भारत का सबसे निकट मित्र कहा जाता रहा है वह नेपाल भी भारत के खिलाफ विष बमन करने लगा है। अफगानिस्तान में तो अब अमेरिका भी नहीं चाहता है कि भारत वहां सकि्रय रहे। अफगानिस्तान के लिए अमेरिका की एक मात्र योजना अफगानिस्तान को फिर से पाकिस्तान के हवाले करना है। अफगानिस्तान में अमेरिकी कूटनीति से पाकिस्तान किस प्रकार भारत को हानि पहुंचाएगा और चीन वहां क्या करेगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।
चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यामार आदि देशों के सामरिक समूह के अंदर भारत की क्या स्थिति होगी इसपर भारतीय कूटनीति को प्रभावी रणनीति बनानी चाहिए लेकिन क्या भारत के पास इन चुनौतियों से निवटने के लिए कोई योजना है? फिलहाल तो दूर दूर तक ऐसा कुछ भी नहीं दिखता है। हां भारत धीरे धीरे अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी जरूर बनता जा रहा है। यह सत्य है कि जब भारत भयानक संकट में फसेगा तो भारत को बचाने के लिए कोई नहीं आएगा। क्योंकि जब भारत संकट में फसेगा तो जिस अमेरिका पर भारतीय कूटनीति को जबरदस्त भरोसा है वह कन्नी काट लेगा। यह अमेरिका की पुरानी राजनीति रही है। यही नहीं अमेरिका की आंतरिक राजनीति भी अल्पसंख्यबाद पर केन्द्रित होता जा रहा है। चाहे कारण जो भी हो लकिन वर्तमान अमेरिकी राजनीति को देखकर ऐसा लगता है कि अमेरिका के प्रभावशाली लोग मुस्लमानों को अमेरिका के हितचिंतक समझने लगे हैं। अमेरिका ने कोसोबो मुद्दे पर मेलेदान मिलोसेबिच को पछाड कर यह साबित कर दिया कि अमेरिका केवल कहने के लिए ईसाई देशा है। वहां की सत्ता में ऐसे लोग भरे पडे हैं जो धर्म से ज्यादा अपने व्यवसाय को महत्व देते हैं। फिर अमेरिका उन राष्ट्रों को परेशान करता रहा है जो कभी या तो रूसी खेमें में रहा है या फिर गुटनिर्पेक्ष आन्दोलन में सकि्रया भूमिका निभाया है। निर्गुट आन्दोलन में इंडोनेशिया के नासिर, युगोस्लबिया के मार्सल टीटो और भारत के जवाहरलाल नेहरू ने प्रभावशाली भूमिका निभाई थी। अमेरिका युगोस्लाबिया को समाप्त कर दिया। इंडोनेशिया में भयानक अराजकता अमेरिकी देन है। लेकिन अमेरिका, भारत का अभी तक कुछ भी बिगार नहीं पाया है। यह अमेरिकी कूटनीति को तो खटकता जरूर होगा। अमेरिका भारत को कमजोर देखना चाहता है सो उसने भारत के खिलाफ मीठे जहर का उपयोग किया है। देर सबेर भारत उस जहर से मरेगा, अमेरिकी कूटनीति को इसका पक्का भरोसा है।
अगर अमेरिका को भारत की इतनी ही चिंता होती तो वह पाकिस्तान को दिलखोल कर सामरिक सहयोग क्यों करता। कुछ लोग पाकिस्तान का सहयोग अमेरिकी मजबूरी मानकर चल रहे हैं, लेकिन यह अमेरिका की मजबूरी नहीं है। इसे अमेरिकी चाल समझा जाना चाहिए। अमेरिका अच्छी तरह से जानता है कि जिस इस्लामी आतंकवाद के कारण दुनिया अशांत है उस आतंकवाद की प्रयोगशाल पाकिस्तान में है। बावजूद इसके अमेरिका पाकिस्तान को सहयोग पर सहयोग किये जा रहा है। अमेरिका यह भी जानता है कि उसके द्वारा दिये गये धन और हथियारों का उपयोग पाकिस्तान और कही नहीं केवल भारत के खिलाफ ही करेगा तो फिर अमेरिका उसका सहयोग क्यों कर रहा है? संकेत स्पष्ट है, अमेरिका आज भी भारत की तुलना में पाकिस्तान को ज्यादा महत्व दे रहा है। अमेरिका न केवल भारत को कमजोर देखना चाहता है अपितु वह भारत को विभाजित भी करना चाहता है। अमेरिका कश्मीर में अपना सामरिक ठिकाना बनाना चाहता है। जहां से वह वृहतर ऐिशया पर नियंत्रण रख सके। यही कारण है कि अमेरिका कश्मीर में भारत का सीमित हस्तक्षेप चाहता है। कश्मीर में अमेरिका सकि्रय है इसलिए वहां दुनिया की अन्य शक्तियां भी सकि्रय हो गयी है। याद रहे भारत के खिलाफ गोलबंदी का केन्द्र बिजिग है। जबतक बिजिक के खिलाफ भारत स्वतंत्र रणनीति नहीं बनाएगा तबतक भारत में शांति की कल्पना संभव नहीं है। माना की चीन पुरानी सभ्यता वाला देश है। यह भी मान लिया कि वहां के लोग भारत को गुरूओं का देश मानते हैं लेकिन आज का चीन चीन नहीं पिपुल रिपब्लिक ऑफ चाइना है। जहां ईसाइयत के चौथे स्तंभ चरम साम्यपंथियों का कब्जा है। आज का चीन किसी कीमत पर भारत के सहअस्तित्ववाद को नहीं मानने वाला है। इसलिए भारत को चीन के खिलाफ तो मोर्चा खोलना ही होगा। इस मोर्चेबंदी में पिश्चम या अमेरिका साथ दे तो अच्छा न दे तो भी कोई बुरा नहीं है। याद रहे अपनी लडाई खुद लडनी होती है। बाबा के भरोसे फौजदारी संभव नहीं है। इसलिए भारत को अगर जिन्दा रहना है तो पाकिस्तान को निवटने से पहले चीन के खिलाफ प्रभावी सामरिक कूटनीति बनानी होगी।