नीतिश की चालों से इंडिया गठबंधन को झटका

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-ः ललित गर्ग:-

अब लगभग यह तय हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विपक्षी दलों एवं उनके नेताओं के द्वारा हल्के में लेने की स्थितियां उनके लिये कितनी भारी हो सकती है। दूसरा भारत की राजनीति में भाजपा अगर कुछ करने की ठान लेती है तो वह उसे पूरा करती ही है। बिहार में सत्ता का समीकरण बदलना इसी बात का द्योतक है। बिहार में जारी सियासी उथलपुलथ के बीच आरजेडी के राज्यसभा सांसद अहमद अशफाक ने बड़ा ऐलान करते हुए आखिर कह ही दिया है कि अब जेडीयू और आरजेडी का रिश्ता टूट गया है। इस बात के प्रबल संकेत मिल रहे हैं कि मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने आरजेडी से अलग होने का फैसला कर लिया है। अगर ऐसा हुआ तो बिहार में न केवल महागठबंधन की सरकार गिर जाएगी बल्कि इंडिया महागठबंधन में भी दरारे पड़ जायेगी। यह भी संभावनाएं व्यक्त की जा रही है कि इसके बाद नीतीश एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना सकते हैं। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा की रणनीति का यह एक बड़ा दांव सफल होता हुआ दिख रहा है। वैसे भाजपा एवं जेडीयू नेता नीतीश कुमार के बीच भीतर-ही-भीतर यह कीचड़ी विगत कुछ समय से पक रही थी। इसका पहला ठोस संकेत जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिये जाने की घोषणा पर उनके द्वारा पहले भाजपा सरकार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिये धन्यवाद से सामने आया। दूसरा बड़ा संकेत कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती के मौके पर आय़ोजित समारोह में नीतीश कुमार ने तंज कस कर कि आजकल बहुत से लोग अपने परिवार के सदस्यों को ही आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं, इस रूप में सामने आया। इसे सीधे तौर पर लालू प्रसाद यादव पर हमला माना गया, जिनकी पार्टी के साथ वह बिहार में सरकार चला रहे हैं।
इस पूरे घटनाक्रम के बाद से राजद और जदयू के बीच गहरी खाई बन गई है। लालू-तेजस्वी से नीतीश की बातचीत बंद चल रही है। वहीं महगठबंधन के सहयोगी दल भी सकते में आ गये हैं। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट करने की कवायद करने वाले नीतीश कुमार ही रहे हैं। नीतीश कुमार ने ही पिछले साल जून में पटना में विपक्षी दलों की महाजुटान की थी। उनकी पहल पर ही विपक्ष के तमाम दल मतभेदों के बावजूद एक प्लेटफॉर्म पर आने को तैयार हुए ताकि लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा सीटों पर विपक्ष की तरफ से साझा उम्मीदवार उतारा जा सके। लेकिन जब चुनाव एकदम सिर पर आ गया तो नीतीश कुमार ही पाला बदलने जा रहे। तिनका-तिनका जोड़कर विपक्षी एकजुटता का ताना-बाना तैयार करने वाले जेडीयू चीफ ऐन वक्त पर खुद ही गठबंधन से दूर होने जा रहे हैं। ये विपक्षी इंडिया गठबंधन के लिए बहुत बड़ा आघात है।
लोकसभा चुनाव में अब दो-ढाई महीने का समय ही शेष हैं। भाजपा हर हालात में नरेंद्र मोदी को ही तीसरी बार सत्ता के सिंहासन पर बैठाना चाहती है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर से पैदा हुई हिंदुत्व लहर पर सवार भाजपा जाति को साधने में भी पीछे नहीं है। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान हो चुका है। दलितों को लुभाने के लिए बड़ा अभियान शुरू करने का प्लान भी तैयार हो चुका है। दूसरी तरफ विपक्ष खासकर उसके सबसे बड़ा गठबंधन इंडिया की नजर हर हाल में मोदी के विजय रथ को रोकने पर है। लेकिन लगभग टूट एवं बिखर चुके इंडिया किस तरह मोदी रथ को रोक पायेंगी? क्योंकि लोकसभा चुनाव से पहले ही इंडिया गठबंधन हांफने लगा है। नीतीश कुमार का पाला पाला बदलना वैसे ही है जैसे युद्ध शुरू होने से ऐन पहले सारथी ही पाला बदल ले। गठबंधन के नीतीश ही नहीं, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल भी कांग्रेस को आंख दिखा रहे हैं, जिससे गठबंधन की गाड़ी आगे सरकती नजर नहीं आ रही है। गठबंधन के भविष्य पर सवालिया निशान ही नहीं, ग्रहण लग गया है। बिहार की उठापटक एवं बदलते राजनीतिक समीकरणों का सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। अगर नीतीश कुमार भाजपा से मिलकर एनडीए गठबंधन का हिस्सा बनते हैं तो इनमें से अधिकाधिक लोकसभा सीटों पर एनडीए प्रत्याशियों की जीत की संभावना अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाएगी। बिहार में नीतिश की इसी भूमिका के कारण ही इंडिया गठबंधन में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा रही थी। विपक्षी दलों के बीच गठबंधन करके ज्यादा से ज्यादा सीटों पर एनडीए के खिलाफ साझा प्रत्याशी खड़ा करने का यह पूरा प्रयास नीतीश कुमार की ही पहल पर शुरू हुआ था। ऐसे में उनके जाने के बाद यह प्रक्रिया किस तरह से और कितनी आगे बढ़ेगी, इस पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं।
राजनीति में जब नीति गायब होने लगती है तो बेमेल गठबंधनों के बनते एवं बिखरते के दृश्य देखने को मिलते हैं और, इस बुराई के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दल समान रूप से जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो सबकी नजर में 2024 का लोकसभा चुनाव है जहां 40 सीटों वाले बिहार की भूमिका को अहम मानते हुए अभी सारे दांव-पेंच वहीं चल रहे हैं। बिहार में नया सियासी समीकरण कितना बदलाव लाएगा, यह भविष्य ही बताएगा। ऐसे में लंबे समय से कयास लगाए जा रहे थे कि नीतीश कुमार कभी भी भाजपा का हाथ थाम सकते हैं। वैसे भी अब नीतिश की छवि अवसरवादी नेता की हो गयी है। दरअसल यह अवसरवादिता और मौकापरस्ती की हद है जिसका राजनीति में प्रतिकार होना चाहिए। वास्तव में बिहार का ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि इस राज्य में जातिवादी और परिवारवादी राजनीति ने इस प्रदेश की जनता के मौलिक अधिकारों से उनको वंचित किये हुए हैं और इस प्रांत के लोगों को भारत का सबसे गरीब आदमी बनाया हुआ है। जबकि बिहारियों का भारत के सर्वांगीण विकास में योगदान कम नहीं हैं, सबसे अधिक मेहनती एवं बुद्धिजीवी लोग यही से आते हैं। लेकिन दूषित राजनीति की कालिमाएं यहां के धवलित इतिहास को धुंधलाती रही है। यहां की राजनीति की सत्तालोलुपता एवं भ्रष्टता लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करती रही है। जबकि प्रामाणिकता एवं सिद्धान्तवादिता राजनीतिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और अप्रामाणिकता एवं अवसरवादिता मृत्यु का पर्याय होती है। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। नीतीश बाबू ने जिस महागठबन्धन को बनाया, बनने के साथ ही उसकी उल्टी गिनती शुरु हो गयी थी। अब तो खुद सारथि ही अपना पाला बदल रहा है।
आजादी के अमृतकाल के पहले लोकसभा चुनाव की आहट अब साफ-साफ सुनाई देे रही है। भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आ गये हैं और प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियां सजाने में लगे हैं। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल फेवीकॉल लगाकर इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे आये जरूर, लेकिन सीटों के बंटवारे एवं अन्य मुद्दों पर अब बिखर चुके हैं। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षक व आवश्यकता बता रहे थे, तो कुछ प्रमुख दलों के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देख रहे थे, लेकिन सबके सपनों पर ग्रहण लग गया। विपक्षी दल येन-केन-प्रकारेण भाजपा को सत्ता से बाहर करने में जुटे भले ही हो, लेकिन भाजपा ने चुनाव से पहले ही उनको उनकी जमीन दिखा दी है। भाजपा पूर्ण आत्मविश्वास एवं प्रखरता के साथ आगे बढ़ रही है, जिन राज्यों में उसके लिये चुनौतियां अधिक प्रखर है, उन्हीं राज्यों में वह समग्रता एवं एकाग्रता से अपनी रणनीतियों को अंजाम दे रही है, बिहार भी उन्हीं में एक था। भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी हर चुनौती के कारणों को बड़ी गहराई से लेते हुए उन कारणों को समझने एवं चुनौतियों को संभावनाओं में बदलने के गणित को बिठाने में माहिर है। 

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