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भारत विभाजन और संघ

-अनिल गुप्ता-

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-संघ भारत विभाजन क्यों नहीं रोक पाया ?-

विभाजन से पूर्व कांग्रेस ही वह मंच था, जिससे मुस्लिम लीग तथा ब्रिटिश सरकार सत्ता हस्तांतरण अथवा विभाजन के सम्बन्ध में वार्ता करते थे.कांग्रेस के प्रमुख स्तम्भ महात्मा गांधी ने देश को आश्वस्त किया था:–
“भारत का विभाजन करने से पूर्व मेरे शरीर के टुकड़े कर दो. यदि सारे भारत में आग लग जाये तो भी पाकिस्तान का निर्माण न हो सकेगा.पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा.” कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेता भी इसी स्वर में बोल रहे थे.
तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन के नेहरूजी से घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध थे. संभवतः इसी कारण से भारत को सत्ता का हस्तांतरण अवश्यम्भावी समझ कर उन्हें भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था. उनके जीवनीकार फिलिप जिग्लर ने लिखा है कि १ जून १९४७ को इस बात पर विचार किया गया कि पाकिस्तान के मुद्दे पर कांग्रेस को कैसे राजी किया जाये. गांधी जी इस विषय में दृढ़ मत व्यक्त कर चुके थे. पटेल मानने वाले नहीं थे. अतः अंततोगत्वा जवाहरलाल नेहरू जी पर निश्चय किया गया और २ जून १९४७ की जेठ की दुपहर में ११ बजे एडविना माउंटबेटन को नेहरू के पास भेजा गया जो तीन घंटे तक नेहरू जी से अकेले में वार्ता करने पर उन्हें देश के विभाजन के लिए तैयार करने में कामयाब हो गयी.अगले दिन ३ जून १९४७ को लार्ड माउंटबेटन द्वारा देश के दो राष्ट्रों हिंदुस्तान और पाकिस्तान में विभाजित करके जून १९४८ तक सत्ता के हस्तांतरण की घोषणा कर दी गयी.

संघ सहित सम्पूर्ण देश विश्वास कर रहा था कि कांग्रेस भारत का विभाजन स्वीकार नहीं करेगी.लेकिन राजऋषि पुरुषोत्तमदास टंडन को छोड़कर किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया और १४-१५ जून १९४७ को कांग्रेस कार्यसमिति ने विभाजन की योजना को स्वीकार करके सारे देश को स्तब्ध कर दिया.नेहरूजी ने १९६० में स्वीकार किया था:- “सच्चाई ये है कि हम थक चुके थे. और आयु भी अधिक हो गयी थी… और यदि हम अखंड भारत पर डटे रहते …तो स्पष्ट है हमें जेल जाना पड़ता.”
( दी ब्रिटिश राज ले.लियोनार्ड मसले पृ.२८५)
श्री राम मनोहर लोहिया ने लिखा:-
“नेताओं की तो अधोगति हुई. वे लालच के फंदे में फंस गए.”
(दी गिल्टी मैन ऑफ़ इण्डिया’ज पार्टीशन”, पृ.३७)
भारत विभाजन की मांग करने वाली मुस्लिम लीग को कम्यूनिस्ट पार्टी और ब्रिटिश सरकार का समर्थन तो प्राप्त था ही, कांग्रेस के थके हुए, पदलोलुप नेतृत्व के द्वारा विभाजन स्वीकार कर लेने पर राष्ट्र की एकता के समर्थक संघ, हिन्दू महासभा आदि ने अपने प्रयास प्रारम्भ कर दिए. इसी बीच विभाजन विरोधी शक्तियां तेजी से उभरने लगीं, उन शक्तियों को संगठित होते देखकर ब्रिटिश सत्ताधीशों का माथा ठनका.उन्होंने सोचा की यदि इस विरोध को प्रभावशाली होने के लिए समय मिल गया तो भारत को तोड़कर छोड़ने का उनका मंसूबा पूरा नहीं हो सकेगा. इसलिए उस व्यापक विरोध से बचने के लिए ब्रिटिश शासन ने अपने भारत छोड़ने की पूर्व घोषित तिथि जून १९४८ के १० माह पहले भारत छोड़ दिया.( बालासाहेब देवरस, पहली अग्नि परीक्षा).
माउंटबेटन ने कहा:-
“इससे पूर्व कि देश के विभाजन के विरुद्ध कोई प्रभावी प्रतिरोध खड़ा होसके, समस्या का झटपट निपटारा कर डाला.” ( “दी ब्रिटिश राज” पृ.११८)
कांग्रेस द्वारा विभाजन की स्वीकृति के मात्र ६० दिनों में ही देश का विभाजन कर अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण कर दिया.यदि दस माह का समय मिल जाता तो संघ द्वारा समाज को देश के विभाजन के विरुद्ध तैयार कर लिया जाता.

विभाजन काल में हिन्दुओं की रक्षा भारत विभाजन केवल भूखंड का बटवारा नहीं था. यह था अनादिकाल से पूजित भारत माता का खंडन और असंख्य हुतात्माओं और स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों का ध्वंस.इस महाविध्वंस में हिन्दू समाज ने महाविनाश देखा उसमे तीस लाख लोग काल कवलित हुए और तीन करोड़ लोगों को अपने पुरखों की जमीन छोड़नी पड़ी.
न्यायमूर्ति खोसला ने अपनी पुस्तक Stern Reckoning में इस थोड़े काल में पंजाब और सिंध में मरे गए लोगों की संख्या दस से तीस लाख के बीच आंकी है. तत्कालीन अंतरिम सरकार के मंत्री एन. वी.गाडगीळ ने अपनी पुस्तक “गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड” में भी यही स्थिति बताई है.