भारत : नामकरण एवं परंपरा

भारत की पुण्य भूमि में जन्म लेना मनुष्य का परम सौभाग्य माना जाता है I देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने भी इस पावन भूमि की प्रशंसा की है I भारत भूमि का एक टुकड़ा मात्र नहीं है, बल्कि यह हजारों वर्षों की ज्ञान परंपरा है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का उद्घोष है, ऋग्वेद की ऋचाएं हैं, गौतम बुद्ध का शांति संदेश है, भगवान श्रीकृष्ण की गीता का निष्काम कर्मयोग है, गुरु नानक की वाणी है, सरस्वती की वीणा है और भगवान शंकर का डमरू है I यहाँ डेढ़ हजार से अधिक भाषाएँ हैं, अनेक जातियाँ–उपजातियाँ हैं, अनेक धर्म हैं, असंख्य लोक परम्पराएं हैं, लेकिन विविधताओं के बावजूद अन्तःसलिला की भांति देश में एकता की भावना प्रवाहित होती है I विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की ऋचाएं भी इस पावन भूमि की प्रशंसा करती हैं I भौगोलिक दृष्टि से भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है जबकि जनसंख्या की दृष्टि से यह चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है I इसके दो आधिकारिक नाम हिंदी में ‘भारत’ और अंग्रेजी में ‘INDIA’ हैं I इंडिया की व्युत्पत्ति सिंधु नदी के अंग्रेजी नाम ‘इंडस’ से हुई है I ‘भारत’ का शाब्दिक अर्थ प्रकाश की खोज में लीन रहनेवाला होता है I ‘भा’ के अनेक अर्थ हैं, जैसे- प्रकाश, चमक, दीप्ति, शोभा आदि I ‘रत” का अर्थ मनोयोग से लगा हुआ, आसक्त है I जो देश निरंतर ज्ञान, प्रकाश, ईश्वर अथवा सत्य की खोज में लगा रहता है वह देश भारत है I दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जो पुण्य भूमि आंतरिक प्रकाश से युक्त है वह भारत है I (भा+रत) यहाँ प्रकाश सत्य, ईमान और शुचिता का प्रतीक है I ज्ञान की समृद्ध परंपरा का नाम भारत है I ज्ञान के कारण ही इसे विश्वगुरु की संज्ञा दी गई है I ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ भी अंधकार से प्रकाश, अज्ञान से ज्ञान और असत्य से सत्य की ओर बढ़ने का अमर संदेश देता है I वेद में कहा गया है कि ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है I ज्ञान तत्वज्ञानी गुरु की निःस्वार्थ सेवा तथा उनके प्रति एकनिष्ठ समर्पण से प्राप्त होता है I ज्ञान से माया रूपी अन्धकार का शमन होता है और मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है I भारत का एक नाम हिन्दुस्तान भी है जिसका अर्थ हिन्द की भूमि है I भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ की अनुकृति है जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। भारत सरकार ने यह चिह्न 26 जनवरी 1950 को अपनाया । उसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा सिंह दृष्टिगोचर नहीं होता है। राष्ट्रीय चिह्न के नीचे देवनागरी लिपि में ‘सत्यमेव जयते’ अंकित है। भारत के राष्ट्रीय झंडे में तीन समानांतर आयताकार पट्टियाँ हैं। ऊपर की पट्टी केसरिया रंग की, मध्य की पट्टी सफेद रंग की तथा नीचे की पट्टी गहरे हरे रंग की है। इस देश का प्राचीन नाम भारत है I ‘भारत’ नाम की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने अलग–अलग मत व्यक्त किए हैं, लेकिन सर्वमान्य विचार यही है कि प्राचीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट राजा मनु के वंशज भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारत का नामकरण किया गया है I श्रीमद्भागवत और जैन पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है I बाद में भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे अपने पुत्र को राज सिंहासन सौंपकर जंगल में चले गए I स्कन्दपुराण के अनुसार ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे और इनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा: “ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत् भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत I” (विष्णुपुराण) दूसरा मत है कि प्राचीन भारत के एक दूसरे चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत थे जो पुरुवंश के राजा दुष्यंत तथा रानी शकुंतला के पुत्र थे I महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में भरत की गणना की गई है I कालिदास कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के एक वृतांत के अनुसार राजा दुष्यंत तथा रानी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष का नामकरण किया गया है I भारत को आर्यावर्त भी कहते हैं I जहाँ आर्य लोग निवास करते हैं उस पुण्यभूमि को आर्यावर्त कहते हैं I ‘मनुस्मृति’ में आर्यावर्त की परिभाषा इस प्रकार दी गई है:
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात I
तयोरेवांतरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बुधाः II
अर्थात पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक दोनों पर्वतों (हिमालय और विंध्याचल) के बीच के भूभाग को विद्वान आर्यावर्त कहते हैं I आर्यावर्त के निवासी को आर्य कहा जाता है I महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है “आर्यावर्त ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है I इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है I इसीलिए सृष्टि के आदि में आर्य लोग इसी देश में आकर बसे I इसलिए हम सृष्टिविषय में कह आए हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है I जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं I पारसमणि पत्थर सुना जाता है वह बात झूठी है, परंतु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही ‘सुवर्ण’ अर्थात धनाढ्य हो जाते हैं I” ऋग्वेद में भरत जन का उल्लेख मिलता है I विद्वानों के एक वर्ग की मान्यता है कि भरत जन (कबीला) के नाम पर इस देश का नामकरण किया गया है I डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार “ऋग्वेद में बहुत से गनों और जनों के नाम हैं I इसमें सबसे महत्वपूर्ण भरत जन थे I जहां आज कुरुक्षेत्र है, वहीँ ये रहते थे I पुसालकर कहते हैं कि भरतों से पूरे देश को भारत नाम मिला I ऋग्वेद के गणों में वे सबसे महत्वपूर्ण थे I भरतजन अग्नि के उपासक थे, अग्नि प्रज्वलित करके यज्ञ करते थे I भरतों के अग्नि और यज्ञ से सम्बद्ध होने के कारण भारती शब्द अग्निसूचक बना I यज्ञ–कर्म के लिए वे सूक्त रचते थे I यज्ञ करते हए सूक्त पढ़ते या गाते थे I भरतों से संबद्ध होने के कारण काव्य रचना अथवा वाणी के लिए भी भारती शब्द का प्रयोग हुआ I” डॉ रामविलास शर्मा ने आगे लिखा है “भारत देश का उल्लेख सबसे पहले संभवतः महाभारत में है I धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय भारत का वर्णन करते हैं I पहले अनेक राजाओं के नाम गिनाते हैं, फिर पर्वतों का उल्लेख करते हैं I नदियों में गोदावरी, नर्मदा, कावेरी के नाम भी लेते हैं I जनपदों में पांडु, उत्कल, आंध्र, पुंड्र, किरात, निषाद, काश्मीर, गांधार और विशेष रूप से दक्षिण में द्रविड़, केरल, कर्णाटक, चोल, कोंकण का नाम लेते हैं I केरलाः, कर्णाटकाः ये जनपदों के नाम हैं और जनों के नाम भी हैं I इनके साथ द्रविड़ों का अलग से उल्लेख संभवतः तमिलों के लिए है I संजय कहते हैं कि इस भारतवर्ष में आर्य, म्लेच्छ तथा संकर जाति के मनुष्य निवास करते हैं I (भीष्म पर्व, 9/13) (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश)
विष्णुपुराण में भारत की सीमा को इस प्रकार रेखांकित किया गया है:
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं I
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः II
अर्थात हिमालय से समुद्र तक विस्तृत उत्तर–दक्षिण भूभाग का नाम भारत है जिसमें भारती प्रजा निवास करती है I इस श्लोक में भारत की सांस्कृतिक एकता पर बल दिया गया है I सांस्कृतिक दृष्टि से भारत सदियों से एक राष्ट्र रहा है I राजनैतिक एकता तो इस देश की नई परिघटना है, लेकिन युगों–युगों से यह सांस्कृतिक रूप से एक इकाई रहा है I सदियों से भारत की संस्कृति कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कामरूप से कच्छ तक एक रही है I शंकराचार्य द्वारा चार दिशाओं में स्थापित चार पीठ वस्तुतः भारत की सीमा रेखा है I प्रातःकाल में जब हम नदियों का स्मरण करते हैं तो हमारे सम्मुख देश का सांस्कृतिक मानचित्र होता है:
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति I
नर्मदे सिंधु कावेरि जले$स्मिन सन्निधिं कुरु II
आजकल अनेक लोग आर्य–अनार्य के प्रश्न पर कुतर्क करते रहते हैं तथा आधारहीन तथ्य परोसते रहते हैं I वे कहते हैं कि आर्य इस देश के मूल निवासी नहीं हैं, वे बाहर से आए हैं, लेकिन प्राचीन भारतीय मनीषा चीख–चीखकर संदेश देती है कि आर्य इस देश के मूल निवासी हैं I भरतीय हिंदू परंपरा अपना आरम्भ सृष्टिकाल से ही मानती है I भारतीय वांग्मय के किसी भी आख्यान से यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य जाति कहीं बाहर से आयी I जो लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर काले–गोरे की दलील देते हैं और निराधार तर्क प्रस्तुत कर कहते हैं कि आर्य बाहरी हैं वे देश की एकता के शत्रु हैं I अनेक लोग यह भी कहते हैं कि अंग्रेजों के आगमन से ही हमारे राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हुआ, अंग्रेजों ने हमें राष्ट्रीयता का बोध कराया लेकिन भारत में ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की भावना पहले से विद्यमान थी I “भारतीय राष्ट्र की एकता की भावना अंग्रेजों की देन नहीं है; वह अंग्रेजों के आने से बहुत पहले की है I यह धार्मिक भावना मात्र नहीं है क्योंकि इसका संबंध एक ही धर्म से नहीं रहा I धार्मिक सहनशीलता और उदारता के कारण यहाँ प्राचीन काल से अनेक धर्म–अनीश्वरवादी धर्म तक–पल्लवित होते रहे किंतु यह बौद्धों, जैनों या हिन्दुओं का राष्ट्र नहीं माना गया I यह एकता केवल भौगोलिक नहीं है I यहाँ के राज्यों की, विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों की सीमाएं देश से बाहर उत्तर–पश्चिम में दूर तक फैली रही हैं I यदि भौगोलिक एकता नियामक कारण होती तो भारत विभाजन की नौबत न आती I भौगोलिक और धार्मिक कारण भी रहे हैं किंतु मुख्य कारण है यहाँ की जातियों का सामान्य इतिहास, उनकी सांस्कृतिक समानताएं, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उनका परस्पर संबद्ध और मिला–जुला विकास I इस ऐतिहासिक आधार पर ही यहाँ की राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ है I” (डॉ रामविलास शर्मा : भारत की भाषा समस्या) अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने देश संबंधी अपनी अवधारणा व्यक्त करते हुए लिखा है “देश कहते हैं पृथ्वी को I हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यंत पूर्व–पश्चिम दिशाओं में एक हजार योजन तक फैला हुआ और पूर्व–पश्चिम की सीमाओं के बीच का भूभाग चक्रवर्ती क्षेत्र कहलाता है अर्थात इतनी पृथ्वी पर राज्य करनेवाला राजा चक्रवर्ती होता है I” भारत की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है I महाभारत के युद्ध में चीन, तुर्किस्तान आदि पड़ोसी देशों की सेना शामिल थी I पांडव–कौरव युद्ध में दूसरे देशों की सेना भी लड़ रही थी, लेकिन युद्ध की भूमि भारत में थी I भारतीय संस्कृति में पृथ्वी को माता की संज्ञा दी गई है I पृथ्वी अर्थात पर्यावरण जिसके प्रति पूजा भाव अन्य किसी भी संस्कृति में दुर्लभ है I यहाँ की संस्कृति वसुंधरा, जलस्रोत, वृक्ष, पशु–पक्षी आदि के संरक्षण–संवर्धन का अमर संदेश देती है I यह संदेश सभी युगों और सभी देशों के लिए उपादेय है I समयानुसार इस संस्कृति में लोक परम्परा और लोक चेतना का समावेश होता रहता है जिसके कारण यह संस्कृति कालातीत नहीं होती, सदा प्रासंगिक बनी रहती है I इतिहास साक्षी है कि विश्व की अन्य संस्कृतियों ने यहाँ की लोक परम्परा व संस्कृति को आत्मसात कर स्वयं को गौरवान्वित किया है I

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वीरेन्द्र परमार
एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन I प्रकाशित पुस्तकें :- 1. अरुणाचल का लोकजीवन(2003) 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य(2009) 3.हिंदी सेवी संस्था कोश(2009) 4.राजभाषा विमर्श(2009) 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय (2010) 6.डॉ मुचकुंद शर्मा:शेषकथा (संपादन-2010) 7.हिंदी:राजभाषा,जनभाषा, विश्वभाषा (संपादन- 2013) प्रकाशनाधीन पुस्तकें • पूर्वोत्तर के आदिवासी, लोकसाहित्य और संस्कृति • मैं जब भ्रष्ट हुआ (व्यंग्य संग्रह) • हिंदी कार्यशाला: स्वरूप और मानक पाठ • अरुणाचल प्रदेश : अतीत से वर्तमान तक (संपादन ) सम्प्रति:- उपनिदेशक(राजभाषा),केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड, जल संसाधन,नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय(भारत सरकार),भूजल भवन, फरीदाबाद- 121001, संपर्क न.: 9868200085

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