भारतीय लोकतंत्र का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था है. वेदों की ही भांति वर्णाश्रम व्यवस्था का ज्ञान ईश्वरीय अथवा आकाशीय है, और भारत की प्राचीनतम विद्या ज्योतिष में निहित है. किसी भी जन्मकुंडली में चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में से प्रत्येक के तीन घर निश्चित हैं.
लग्न से जीवन का आरम्भ होता है. मनुष्य के जीवन को सौ वर्ष का मानकर प्रत्येक पुरुषार्थ के लिए 25 वर्ष नियत किये गए हैं. जन्म के समय ज्ञानशून्य होने से हर मनुष्य शूद्र है.
आश्रम वर्ण पुरुषार्थ
ब्रहमचर्य शूद्र धर्म
गृहस्थ वैश्य अर्थ
वानप्रस्थ क्षत्रिय काम
संन्यास ब्राह्मण मोक्ष
‘यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे’ के महत्वपूर्ण सिद्धांत के अनुसार जो पुरुषार्थ पिंड अथवा व्यक्ति के लिए हैं वही देश तथा विश्व के लिए भी हैं. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन काल में उचित आयु पर देश तथा विश्व के पुरुषार्थों में योग करे यही वर्णाश्रम व्यवस्था का उद्देश्य है.
जैसा की पूर्व लेखों में लिखा गया कि शासक प्रजा के लिए अर्थोपार्जन सुलभ कराये. उस धन के अंश से शिक्षा एवं शिक्षकों द्वारा छात्रों में धर्म स्थापित किया जाए, जो वास्तव में राज्य का एक संचित धन बने. परिवार की जिम्मेवारियों से मुक्त जब प्रत्येक वानप्रस्थी अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने में सक्षम होगा तो राष्ट्र भ्रष्टाचार से मुक्त रहेगा.
वर्णाश्रम आदि समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं पर शासन की भी नज़र रहेगी. यदि शासन अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था में कहीं कोई गंभीर संकट आयेगा तो सन्यासी शिक्षकों के दिशा निर्देश में धर्म-प्राणित छात्र पूरी व्यवस्था को पुनर्स्थापित कर सकने में सक्षम होंगे.