भारत की व्यथा

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indiaप्रवीण  कुमार

       मै थी एक सोने की चिड़िया , मेरी थी हर बात निराली .

सदाबहार  नदी-तालों  से ,खेतों में उगती हरियाली.

   घोर-परिश्रम और ज्ञान  से , हर घर में  थी खुसिहाली.

  तप-त्याग और सदाचार से , मेरे चेहरे पर  थी लाली.

      सोने-चान्दी,हीरे-पन्नों से , घर- आँगन  थे भरे-भरे .

देश-भ्रमण करने वाले  , चकित देखते खड़े-खड़े.

   ईश्वर ने  इज्जत बख्शी , मानव रूप में कदम धरे.

    वेद-पुराण आदि ग्रंथों का , लोग हमेशा श्रवण करे.

        हमने ही तो अखिल विश्व को  ,धर्म-ज्ञान की शिक्षा दी.

            ऋषि-मुनियों की गहन खोज ने ,नव-सृजन की दीक्षा दी .

   वीर-तपस्वी पुत्रों ने  ना, भोग-विलास की इक्षा की .

        वेदों  और जीवन-मूल्यों का,विश्व- समाज को भिक्षा दी.

                  बदला समय व्यवस्था बदली ,जन-जन में फैली कुटलाई.

                    सज्जन मन भी भ्रमित हुआ ,घटने लगी में मेरी अरुणाई.

                 मेरे पुण्य -तपोभूमि पर सहसा पाप की बदली छाई .

                हुआ कलंकित दामन मेरा , दूर हुई रब की परछाईं .

     दूर हुआ सत्कर्म समाज से , स्वार्थ का पलड़ा झुकता पाया.

        ऋषि सुतों  का मन भरमाया , फ़ैल गई फिर पाप  की छाया .

भ्रष्टाचार का कहर जो टुटा , मेरा कोमल मन मुरझाया .

    सत्य से  आगे निकली  माया , हुई कलंकित मेरी काया. 

        फिर अचानक क्रूर काल ने , मुझको कीचड़  में लिटा दिया.

           जिस पर था विश्वास  देश का  , उसी ने चिर का हरण किया.

        भोग-स्वार्थ  की प्रबल कामना , राष्ट्र-प्रेम का हरण किया . 

 कुछ पुत्रों ने लोभ में आकर , अरि के हाथों सौंप  दिया.

 अरि ने  मुझको जी भर  लुटा , मेरे तेज का हरण किया.

      जाती-धर्म और लोभ में सुत  ने , मौन हार का वरण किया .

      आज़ाद-भगत जैसे वीरों  ने , अरि का खूब प्रतिकार किया.

     पर गद्दारों की टोली ने , उनके बलिदानों को विफल किया.

      अर्धनग्न सी विवश खड़ी  मै सब कुकर्मो को देख रही.

         अपने लोगों से लूट-लूट कर , हर-दिन,हर-पल सिसक रही.

  बेबस होकर राम-कृष्ण  को , आज निमंत्रण भेज रही,

पुत्रों से  मोह  टूट चुका अब , रब  की राहें  देख रही.

        क्या  कलुषित-भ्रष्ट समाज में , राम-कृष्ण फिर आयेंगे .

            क्या अपने अद्भुत चमत्कार से  , फिर मेरी लाज बचायेंगे .

             या यूँ ही प्रलय – काल तक  ,मैं तिल-तिल मरती जाऊंगी  .

              या  अपने पुत्रों के राष्ट्र-प्रेम को , फिर जिन्दा कर पाऊँगी .

            आज भेडियों  की टोली में , नजर नहीं कोई आता राम.

               शुभ –दिन शायद गुजर गए हैं , आने लगी है धुंधली शाम.

        फिर भी आशा  लगी हुई है , कोई लाल तो  आएगा .

           दबी-सताई  पुण्य-भूमि को , फिर से स्वर्ग बनाएगा. 

    सफल हुई  अगर  कामना , फिर से नया-सृजन  होगा.

       भोग की इक्षा भागेगी तब दिव्य अलौकिक मन होगा.

सदाचार के पुण्य के बल से  , अंधकार तब  भागेगा.

दिव्य स्वप्न सब  पुरे होंगे , राष्ट्र- प्रेम  जब जागेगा. 

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