भारत विश्व का एक बड़ा कृषि प्रधान देश है और यहां की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक कृषि पर निर्भर है। हाल ही में भारत ने अपनी पहली जीनोम-संपादित चावल की किस्में ‘डीआरआर धान 100 (कमला)’ और ‘पूसा डीएसटी राइस 1’ जारी की हैं। यहां पाठकों को बताता चलूं कि हमारे देश के कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 4 मई 2025 के दिन आईसीएआर द्वारा विकसित देश की पहली जीनोम-संपादित धान की ये दोनों किस्में जारी की गईं हैं। वास्तव में ये वैज्ञानिक शोध की दिशा में नवाचार है। इन किस्मों की खास बात यह है कि इनमें विदेशी चावलों की किस्मों या विदेशी डीएनए को शामिल नहीं किया गया है। दरअसल विदेशी डीएनए शामिल नहीं होने के कारण भारतीय कृषि में इनकी पैदावार ठीक उसी प्रकार से की जा सकती है, जिस प्रकार से हमारे यहां पारंपरिक रूप से फसलें उगाई जाती रहीं हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन नयी किस्मों का विकास क्रिस्पर-कैस आधारित जीनोम-संपादित तकनीक का उपयोग करके किया गया, जो बिना विदेशी डीएनए को शामिल किए हुए जीव के आनुवंशिक सामग्री में सटीक परिवर्तन लाती है। धान की ये किस्में जहां एक ओर उपज में बढ़ोत्तरी करेंगी, वहीं दूसरी ओर संसाधनों की दक्षता को भी ये बढ़ाएंगी। इतना ही नहीं ये जलवायु की दृष्टि से भी लचीली बताईं जा रहीं हैं। और तो और ये किस्में जल-संरक्षण की दृष्टि से भी बहुत ही उपयोगी और लाभकारी सिद्ध होंगी।वैसे तो भारत विश्व का अनाज उत्पादन में एक आत्मनिर्भर देश बन चुका है लेकिन आज की वैश्विक परिस्थितियों में हमारे देश में भी अनेक प्रकार की खाद्य सुरक्षा चुनौतियां मौजूद हैं। मसलन आज भारत में विश्व की सर्वाधिक आबादी है। जलवायु परिवर्तन भी लगातार हो रहा है, ग्रीन हाउस गैसों में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसी परिस्थितियों के बीच आईसीएआर द्वारा विश्व की पहली जीनोम संपादित धान की दो किस्मों का विकास भारतीय कृषि के लिए जहां एक ओर एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं, वहीं दूसरी ओर यह खाद्य सुरक्षा की दिशा में भी उठाया गया एक बड़ा और महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कदम है। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में उपलब्ध जानकारी कै अनुसार डीआरआर धान 100 (कमला) लोकप्रिय साँबा महसूरी किस्म पर आधारित है। साइट डायरेक्टेड न्यूक्लिऐस 1 (एसडीएन1) तकनीक का उपयोग करके साइटोकाइनिन ऑक्सीडेज 2 (सीकेएक्स2) जीन (जीएन1ए) को लक्षित करके दानों की संख्या में सुधार किया गया। इसके परिणामस्वरूप शीघ्र परिपक्वता (15-20 दिन पहले कटाई), सूखा-सहिष्णुता, उच्च नाइट्रोजन-उपयोग दक्षता प्राप्त होती है। उल्लेखनीय है कि इस किस्म को आईसीएआर-भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद द्वारा विकसित किया गया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार अखिल भारतीय परीक्षण में डीआरआर धान 100 (कमला) की औसत उपज 5.3 टन प्रति हेक्टेयर पाई गयी जो साम्बा महसूरी (4.5 टन) से 19% अधिक है। वहीं दूसरी ओर पूसा डीएसटी चावल 1, मारुतेरु(एमटीयू) 1010 किस्म पर आधारित है और सूखे और लवण सहनशीलता को बढ़ाता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि एमटीयू 1010 किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय है, क्योंकि इसका दाना लम्बा-बारीक होता है, और दक्षिण भारत में रबी सीजन के चावल की खेती के लिए अत्यधिक उपयुक्त है। यह सूखे और लवणता सहित कई अजैविक तनावों के प्रति संवेदनशील है। पूसा डीएसटी चावल 1 लवणता और क्षारीयता युक्त मृदा में एमटीयू 1010 की तुलना में 20% अधिक उपज देती है। एसडीएन1 जीनोम-एडिटिंग के माध्यम से विकसित, यह शुष्क और लवणीय सहनशीलता (डीएसटी) जीन को लक्षित करता है । इसके परिणामस्वरूप तटीय लवणता वाले क्षेत्रों में 30.4% अधिक उपज, क्षारीय मृदाओं में 14.66% अधिक तथा अंतर्देशीय लवणता वाले क्षेत्रों में 9.67% अधिक उपज प्राप्त होती है।इसे आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि एसडीएन-1 विदेशी डीएनए का उपयोग किये बिना छोटे सम्मिलन/विलोपन प्रस्तुत करता है, जबकि एसडीएन-2 विशिष्ट वांछित परिवर्तन प्रस्तुत करने के लिये टेम्पलेट डीएनए (मेज़बान के समान) का उपयोग करता है। पाठकों को बताता चलूं कि धान की नई उन्नत विकसित किस्में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त हैं। इन क्षेत्रों में करीब 5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में इन क़िस्मों की खेती की जा सकेगी, जिससे धान के उत्पादन में 4.5 मिलियन टन की वृद्धि होगी। साथ ही ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 20 प्रतिशत यानि 3200 टन की कमी आएगी। बहरहाल, यहां यह गौरतलब है कि हमारे देश में खाद्य सुरक्षा के लिए धान का पहले से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है और अब इन किस्मों की खेती से धान के उत्पादन में करीब 45 लाख टन का इजाफा होगा, तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी करीब 20 फीसदी की कमी आएगी। आज ग्लोबल वार्मिंग के चलते जहां संपूर्ण विश्व में जल संकट गहराता चला जा रहा है, ऐसे में इन धान की किस्मों की खेती में कम पानी की खपत होगी और फसल पककर तैयार होने में भी कम समय लगेगा, जिसने किसानों को अगली फसल की बुआई के लिए भी पर्याप्त समय मिल सकेगा। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि भारत में हरित क्रांति की शुरुआत 1965-1968 के बीच मानी जाती है और डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रांति का जनक माना जाता है।हरित क्रांति के परिणामस्वरूप भारत में खाद्यान्न उत्पादन( गेहूं और चावल के उत्पादन में) अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी।गौरतलब है कि हरित क्रांति के दौरान उच्च उपज वाली किस्मों के बीज, आधुनिक सिंचाई तकनीक, उर्वरक और कीटनाशकों का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था। वास्तव में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना था, जिससे भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। हरित क्रांति का प्रभाव यह हुआ कि इसने भारतीय कृषि को पूरी तरह से बदल दिया और भारत को आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान में यह उम्मीद जताई जा रही है कि धान की ये नई किस्में दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत में अग्रणी भूमिका निभाएंगी। धान की इन दोनों किस्मों की विशेषताओं की यदि हम यहां पर बात करें, तो इन दोनों किस्मों की खेती से उपज में 19 प्रतिशत की वृद्धि होगी तथा ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 20 प्रतिशत की कमी आएगी। इतना ही नहीं, सिंचाई जल में 7,500 मिलियन घन मीटर की बचत होगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सूखा, लवणता एवं जलवायु तनावों के प्रति यह दोनों ही किस्में उच्च सहिष्णु हैं। ग्रीन हाउस गैसों में कमी से पर्यावरण संरक्षण को भी बल मिल सकेगा। अंत में यही कहूंगा कि चावल भारत की प्रमुख फसलों में से एक है और भारत में चावल का उत्पादन कृषि के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। चीन के बाद भारत विश्व में चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है, और चावल का सबसे बड़ा निर्यातक भी।इन दोनों किस्मों के आने से निश्चित ही भारत में चावल उत्पादन में कहीं और अधिक बढ़ोत्तरी सुनिश्चित होगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि आईसीएआर की यह उपलब्धि(चावल की किस्मों का विकास) नई उम्मीदों को जगाती है। इससे भारतीय कृषि और अधिक सुदृढ़ और मजबूत होगी।
सुनील कुमार महला