अज्ञेय जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष- बलाओं की मां है साम्प्रदायिकता

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

स.ही.वा.अज्ञेय हिन्दी के बड़े साहित्यकार हैं। उनकी प्रतिष्ठा उनमें भी है जो उनके विचारों से सहमत नहीं हैं। अज्ञेय के बारे में प्रमुख समस्या है कि उन्हें किस रूप में याद करें ? क्या उन्हें धिक्कार और अस्वीकार के साथ देखें ? क्या वे सचमुच में ऐसा कुछ लिख गए हैं जिसके कारण उन्हें याद किया जाए ?

मेरे मन में अज्ञेय को लेकर लंबे समय से कई सवाल उठते रहे हैं मसलन् क्या एक व्यक्ति मार्क्सवाद में दीक्षित होने के बाद उसके प्रभाव से मुक्त हो जाता है ? क्रांतिकारी अज्ञेय और आधुनिकतावादी अज्ञेय में ऐसे कौन से तत्व हैं जिनसे हम सीख सकते हैं ? हिन्दी के समीक्षकों ने अज्ञेय के साथ क्या न्याय किया है ? क्या क्रांतिकारी अज्ञेय का लेखन आज के दौर में हमारी कोई मदद कर सकता है ?

मुझे अज्ञेय इसलिए पसंद हैं कि वे साहित्य को अभिव्यक्ति नहीं संप्रेषण मानते हैं। हिन्दी के अधिकांश आलोचकों ने साहित्य को अभिव्यक्ति माना है। अज्ञेय ने संप्रेषण माना है। अज्ञेय ने लिखा है-‘‘ मैंने हमेशा माना है कि रचना का पहला धर्म अभिव्यक्ति नहीं है,संप्रेषण है।’’ साहित्य को संप्रेषण मानने का अर्थ है उसे कम्युनिकेशन के रूप में देखना। यह साहित्य का विकसित नजरिया है।

एक और महत्वपूर्ण बात है जो अपील करती है वह है लेखक के नाते उनका यह कहना कि कहानी लेखन मुझे इसलिए बंद करना पड़ा ,क्योंकि कहानी लिखने से अर्थवत्ता का एहसास नहीं हो रहा था।

संप्रेषण के लिए उन्हें जब कहानी नाकाफी लगने लगी तो उन्होंने कहानी लिखना बंद कर दिया। उन्हें जो नजरिया नाकाफी लगा उसे छोड़ दिया। वे आज के तमाम हिन्दी लेखकों की तरह नहीं हैं जो किसी नजरिए से इसलिए चिपके हैं क्योंकि उन्हें उससे प्यार है,पुराना संबंध है,विचारधारात्मक लगाव है,लेकिन व्यवहार में उसे नहीं लागू करते।

ऐसे ढ़ेर सारे लेखक हैं जिनके नजरिए ,साहित्य और जीवन में महा-अंतराल है। अज्ञेय इस अर्थ में बड़े लेखक हैं कि वे जिस विचार को मानते थे उसे व्यवहार में, साहित्य में ,पत्रकारिता में उतारने की क्षमता भी रखते थे।

अज्ञेय के नजरिए के दो छोर हैं ,पहला है अर्थवत्ता, और दूसरा है संप्रेषण। अर्थवत्ता की तलाश में उनको विचारधारात्मक रूपान्तरण करना पड़ा और संप्रेषण के लिए विधा रूपों में नए प्रयोगों की ओर जाना पड़ा।

अज्ञेय लिखने के लिए लिखने में विश्वास नहीं करते थे। विचारधारात्मक आग्रहों के आधार पर नहीं लिखते थे बल्कि संप्रेषण के लिए लिखते थे। लेखन को संप्रेषण मानना बड़ी उपलब्धि है और यह हिन्दी की पहली और दूसरी परंपरा से भिन्न परंपरा है। संप्रेषण पर जोर देने का अर्थ है समाज और पाठक को केन्द्र में रखकर लिखना। उसे साथ लेकर चलना।

अज्ञेय उन चंद लेखकों में हैं जो मौजूदा दौर की बेहतर समझ रखते थे। सामयिक यथार्थ को ज्यादा गहराई से पहचानते थे। उन्होंने लिखा है- ‘‘ जानकारी हासिल करने के (या जानकारी को विकृत करके जबरन वह विकृति स्वीकार कराने के ) साधन लगातार ऐसे लोगों के दृढ़तर नियंत्रण में चले जा रहे हैं जिन पर हमारा नियंत्रण लगातार कमजोरतर होता जा रहा है। यहां तक कि स्वयं हम कहां खड़े,और जिस युग अथवा काल-खंड में जी रहे हैं वह वास्तव में क्या है ,उससे हमारा रिश्ता क्या अथवा कैसा है ,यही पहचानना हमारे लिए दिन-प्रतिदिन कठिनतर होता जा रहा है। ’’

अज्ञेय का मुझे अच्छा लगने का एक और कारण है उनका साम्प्रदायिकता और अधिनायकवाद विरोधी नजरिया। इस प्रसंग में मुझे उनकी एक कहानी ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई -भाई’ याद आ रही है। यह छोटी बड़ी शानदार कहानी है। इस कहानी में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बेपर्दा किया गया है। पूरी कहानी का ढ़ांचा एकदम धर्मनिरपेक्ष है। इस कहानी के आरंभ में अज्ञेय ने साम्प्रदायिकता को ‘डर’ और ‘छूत’ की बीमारी कहा है। लिखा है डर ‘‘बला नहीं बलाओं की माँ है।’’ ..‘‘ जहां डर आता है,वहां तुरंत घृणा और द्वेष और कमीनापन आ घुसते हैं, और पीछे-पीछे न जाने मानवात्मा की कौन कौन-सी दबी हुई व्याधियां !’’

अज्ञेय ने जिस तरह मुस्लिम साम्प्रदायिकता को नंगा करते हुए ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ कहानी लिखी थी। उसी तरह हिन्दू साम्प्रदायिकता को निशाना बनाते हुए ‘रमंते तत्र देवता’ कहानी लिखी थी। इन दोनों कहानियों में रेखांकित किया गया है कि किस तरह दोनों ही रंगत की साम्प्रदायिकता ने औरतों को निशाना बनाया है। यह कहानी 1946 के कलकत्ता में हुए दंगों पर लिखी गयी है। उस समय कोलकाता कैसा था इस पर अज्ञेय ने लिखा ‘‘शहर बहुत से छोटे-छोटे हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में बंट गया था। जिनकी सीमाओं की रक्षा पहरेदार नहीं करते थे, लेकिन जो फिर भी परस्पर अनुल्लंघ्य हो गए थे। लोग इसी बंटी हुई जीवन-प्रणाली को लेकर भी अपने दिन काट रहे थे।’’

इसी कहानी में एक अन्य जगह लिखा है ‘‘ नफ़रत के एक-एक बीज से हमेशा सौ-सौ जहरीले पौधे उगे हैं। नहीं तो यह जंगल यहां उगा कैसे ,जिसमें आज हम-आप खो गए हैं और क्या जानें निकलेंगे कि नहीं ? हम रोज़ दिन में नफ़रत का बीज बोते हैं और पौधा फलता है तो चीखते हैं कि धरती ने हमारे साथ धोखा किया !’’

1 COMMENT

  1. जगदीश्‍वर जी सप्रेम अभिवादन
    आपका आलोचना लेख पढ़ा बहुत अच्छा लगा आपको हार्दिक बधाई ……………
    लक्ष्मी नारायण लहरे कोसीर

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