ईमानदारी और पारदर्शिता की कसौटी पर भाजपा

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pm-modiसंदर्भ- भाजपा के सांसद और विधायकों के बैंक लेन देन का ब्यौरा

प्रमोद भार्गव
नोटबंदी के औजार से कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई के दौरान प्रधानमंत्री ने भाजपा की व्यक्तिगत स्तर पर स्वच्छ छवि उभारने का काम कर दिया है। नरेंद्र मोदी ने अपनी ही भारतीय जनता पार्टी के सांसद और विधायकों को बैंक खातों से लेन-देन का ब्यौरा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। प्रधानमंत्री के नजरिए से देखें तो यह उपाय भाजपा में नैतिकता, शुचिता और पारदर्शिता के वातावरण निर्माण की उचित पहल है। संसदीय दल की बैठक में मोदी ने पार्टी के सभी सांसद व विधायकों को 8 नवंबर को नोटबंदी लागू होने के बाद से 31 दिसंबर तक किए जाने वाले सभी बैंकिंग लेन-देन की जानकारी साल 2017 के पहले दिन 1 जनवरी को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को सौंपने का आदेश दिया है। इस पर आम आदमी पार्टी ने मांग की है कि नोटबंदी की घोषणा से 6 माह पहले से ही भाजपा के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों समेत अन्य नेताओं के लेन-देन की भी जांच होनी चाहिए। हालांकि यह आशंका आप की ही नहीं, अन्य विपक्षी दलों की भी बनी हुई है कि भाजपा नेताओं और समर्थकों को सरकार के नोटबंदी से जुड़े फैसले की पहले से ही जानकारी थी। इसलिए उन्होंने समय रहते अपना कालाधन ठिकाने लगा दिया।
तमाम किंतु-परंतुओं के बावजूद प्रधानमंत्री द्वारा अपने सांसद व विधायकों को एक समय सीमा का ही सही, हिसाब-किताब मांगना साहसिक पहल है। फिलहाल यह मुमकिन भी नहीं लग रहा कि पार्टी के सभी सांसद और विधायक अपने बैंक-खाते का लेखा-जोखा 1 जनवरी को अमित शाह को दे ही देंगे। दे भी देते हैं तो यह भी जरूरी नहीं कि पार्टी सभी के बही-खाते सार्वजनिक कर देगी ? इतना जरूर हो सकता है कि जिस प्रतिनिधि के खाते में 8 नवंबर से 31 दिसंबर की कालाविधि में नोट बदलने की प्रक्रिया से अथवा एकमुश्त धन जमा होने के ऐसे प्रमाण मिलें, जो संदेह पैदा करने वाले हों तो पार्टी अपने स्तर पर ऐसे प्रतिनिधि के कान तो उमेठेगी ही, आगामी चुनावों में शायद टिकट भी काट दे ? गोया, इसमें कोई दो राय नहीं कि पार्टी के स्तर पर पारदर्शिटा कायम होगी और काछंन में आए प्रतिनिधि को मुश्किल का सामना करना होगा ? नतीजतन भविष्य में भाजपा के निर्वाचित प्रतिनिधि छाछ भी फूंक-फूंक कर पियेंगे।
प्रधानमंत्री को इस लेखे-जोखे का दायरा थोड़ा बड़ा रखना चाहिए था। घर में जमा जो कालाधन होेता है, उसे नेता हो या अधिकारी अपने बीबी-बच्चों के खातों में भी जमा रखते हैं। इस नजरिए से नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे सांसद और विधायकों के साथ-साथ, उन पर आश्रित पत्नी और बच्चों के खातों की जानकारी का खुलासा करने का भी आदेश देते ? अच्छा यह भी होता है कि प्रधानमंत्री यह आग्रह देश के सभी दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से करते ? क्योंकि अवसर और परिस्थितियां व्यक्ति को साधु से शैतान बनाने में देर नहीं करतीं ? संसद में सांसदों से सवाल पूछने के बदले में नोट लेते एक स्टिंग आॅपरेशन में जो सांसद दिखाए गए थे, वे सभी दलों के थे। संसद में ही वोट के बदले नोट लेते सांसद कैमरे की आंख में कैद हुए हैं। इसलिए यह कतई उम्मीद नहीं की जा सकती कि अन्य विपक्षी दलों के सांसद-विधायक दूध के धुले हैं ? कायदे से जानकारी पार्टी अध्यक्ष को नहीं लोकसभा के अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति और विधानसभा के अध्यक्षों को देनी चाहिए। इन लोकतांत्रिक सांस्थाओं में जानकारी आती तो सरकारी रिकार्ड पर आती और पारदर्शिता की दरकार पुख्ता होती। क्योंकि इन जानकारियों को सूचना के अधिकार के तहत लोकतंत्र के प्रहरी मांग भी सकते थे ? ऐसी स्थिति में जिस प्रतिनिधि के खाते में आय से ज्यादा धन जमा करने के सबूत मिलते, वे मीडिया की सुर्खियों में तो होते ही, उन पर आयकर विभाग के जरिए कानूनी शिकंजा भी कसा जा सकता था ?
चुने जाने के बाद संविधान की शपथ लेने के बावजूद कई प्रतिनिधि ऐसे भी होते हैं, जो सांसद निधि का न केवल दुरुपयोग करते हैं, बल्कि विकासकार्यों के लिए आवंटित राशि पर एक रिश्वत के रूप में कमीशन भी लेते हैं। यह कमीशन न्यूनतम 20 प्रतिशत से लेकर अधिकतम 40 प्रतिशत तक लिया जाता है। देश में जो उद्योगपति और सामंतों के वंशज प्रतिनिधि हैं, वे भी इस निधि में से एक निश्चित राशि अपने लिए आयोजित सभाओं व रैलियों में होने वाले खर्च के लिए लेते हैं। उद्योगपति और सामंती प्रतिनिधियों के कथित लोक कल्याण व धर्मार्थ न्यास भी हैं, ये इन न्यासों के मार्फत भी कालेधन को सफेद करने का धंधा होता है । इस लिहाज से जरूरी है कि संसद और विधानसभाओं के जो प्रतिनिधि हैं, उनकी अध्यक्षता वाले घरेलू ट्रस्टों, सहकारी संस्थाओं व गैर-सरकारी संगठनों के खातों में भी नोटबंदी के दौरान हुए लेन-देन की जांच हो ? शिक्षण और चिकित्सा संस्थानों में यह धन खपाने की आशंकाएं हैं। आर्थिक उदारवाद लागू होने के बाद इस प्रकृति की ज्यादातर संस्थाओं में नेताओं और नौकरशाहों का धन खपा हुआ है। नतीजतन इनकी भी असरकारी जांच-पड़ताल होती है, तो राजनीति की कार्य-संस्कृति का आचरण बदलेगा और कालेधन को सफेद करने के रास्ते बंद होंगे ?
इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार और कालाधन को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने के लिए निरंतर कृत-संकलिप्त हैं। सांसद व विधायकों से लेन-देन का ब्यौरा मांग कर मोदी ने जता दिया है कि इन मुद्दों पर वे किसी के प्रति भी दया बरतने वाले नहीं हैं। यह ब्यौरा मांग कर तत्काल तो मोदी ने विपक्ष के इस आरोप को खारिज कर दिया है कि उनकी पार्टी और शुभचिंतकों को नोटबंदी का संकेत पहले ही दे दिया था। हकीकत तो यह है कि बैंक के विवरण में जिस प्रतिनिधि के खाते में यदि कुछ काला-पीला दिखा तो, उनकी खैर नहीं ? मोदी के इस निर्णय से वास्तव में अब संसद से सड़क तक हल्ला मचाने की बजाय, सबक लेने की जरूरत है। मोदी ने जिस तरह से अपनी पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधियों से बैंक-ब्यौरा मांगा है, यही पहल अन्य दल भी करें। अब अन्य दलों के प्रतिनिधियों को नैतिकता के तकाजे पर कसने की यही कसौटी है। कालांतर में जो पार्टी ऐसा करते नहीं दिखेगी, भाजपा को उनके प्रतिनिधियों पर अंगुली उठाने का अवसर मिल जाएगा। दरअसल राजनीति से गंदगी की सफाई का यह भी एक तरीका है। किसी भी गलत काम करने वाले व्यक्ति की बेईमानी सार्वजनिक होती है तो वह अपनों की निगाहों में तो शर्मसार होता ही है, खुद की निगाहों में भी गिरा हुआ महसूस करता है। इस दृष्टि से इस अच्छे काम में यदि विपक्षी दल भागीदार बनते हैं तो मोदी और भाजपा को विपक्षी दलों पर हमला बोलने का मौका नहीं मिलेगा। वैसे भी यदि इस लड़ाई में सभी राजनीतिक दल एक साथ खड़े होते दिखाई देंगे तो भ्रष्टाचार व कालाधन के खिलाफ यह लड़ाई आम सहमति में बदलती दिखेगी। इससे दल विशेष को भले ही लाभ न हो, लेकिन देश और देश के आमजन को जरूर लाभ होगा। वैसे भी प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि नोटबंदी से जमा कालाधन को गरीब कल्याण योजनाओं में खर्च किया जाएगा।
इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री की यह पहल विपक्षी दलों के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती साबित हो रही है। नोटबंदी के बाद गुजरात और महाराष्ट्र के नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा के पक्ष में जो परिणाम आए हैं, वह इस बात की पुष्टि करते है कि जन समर्थन नोटबंदी से आ रही परेशानियों को झेलने के बावजूद मोदी के साथ है। नोटबंदी के बाद बीते तीन सप्ताह में अब तक विपक्ष की जो भी राजनीतिक गतिविधियां सामने आई हैं, वे परिणाममूलक नहीं रही हैं। यही वजह है कि विरोधी दलों ने अखिल भारतीय स्तर पर जिस आक्रोश रैली का आयोजन किया था, उसे भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली। जिन राज्यों में विपक्षी दल सत्तारुढ़ हैं, वहां आक्रोश रैलियां बेअसर रही हैं। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि कालाधन व भ्रष्टाचार के संदर्भ में विपक्षी दलों की साख उज्जवल नहीं है। नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष प्रधानमंत्री से सदन में जवाब तलब करने की मांग संसद-सत्र शु रू होने के दिन से ही कर रहे हैं, लेकिन मोदी भारत में रहते हुए भी जान-बूझकर संसद में उपस्थित नहीं हो रहे। इसके उलट मोदी कूटनीतिक चाल चलते हुए रोजाना किसी न किसी सार्वजनिक मंच पर अपनी बात मजबूती से रख रहे हैं। साथ ही यह वातावरण निर्माण करने में सफल होते दिख रहे हैं कि विपक्ष कालाधन और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के सरकार के उपायों में रोड़ा बन रहा है। यह बात जनमानस में पैठ कर जाती है तो कल भाजपा ईमानदारी व पारदर्शिता की कसौटी पर खरी उतरती नजर आएगी।

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  1. आपने इस आलेख में दो ख़ास मुद्दों पर अपनी राय जाहिर की है. मेरे विचार से वे ही दो मुद्दे महत्त्व पूर्ण हैं. ऐसे तो अकाउंट का लेखा जोखा अमित शाह को सौपना भी एक मजाक हीं है,पर वह बाद में. आपने लिखा है कि सांसदों और विधायकों के अकाउंट के साथ उनके नजदीकी सम्बन्धियों के खातों का भी ब्यौरा शामिल करना चाहिए था. उसमे आपने लिखा है कि घर में जो काला या अतिरिक्त धन होता है,उसे सांसद या विधायक अपने बीबी बच्चों के नाम में भी जमा करते हैं. यहाँ नाम में भी के बदले नाम में हीं होना चाहिए था. ऐसे एक आध हीं बेवकूफ विधायक या सांसद होंगे ,जो ऐसे धन को अपने खातें जमा करेंगे.क्या यह अच्छा नहीं होता कि न केवल विरोधियों की जबान बंद करने ,बल्कि इसको अधिक पारदर्शी बनाने के लिए यह विवरण सांसदों और विधायकों के साथ उनके नजदिकी सम्बन्धियों का भी छह महीने पहले से माँगा जाता?

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