आंतरिक गुलामी से मुक्ति के प्रयासों के तौर पर तीन चीजें करने की जरूरत है, प्रथम, व्यवस्था से अन्तर्ग्रथित तानेबाने को प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन जगत से हटाया जाए, दूसरा, पहले से मौजूद संदर्भ को हटाया जाए, यह हमारे संप्रेषण के क्षेत्र में सक्रिय है। तीसरा, नए लोकतांत्रिक जगत का निर्माण किया जाए जो राज्य और आधिकारिक व्यवस्था के ऊपर मानवीय जीवन के नियंत्रण को स्थापित करे। साथ ही उन तमाम आन्दोलनों की भी पहचान करनी चाहिए जो मुक्तिकामी हैं।
आजादी के बाद जो समाज पैदा हुआ उसमें स्वतंत्र प्रेस था, लोकतांत्रिक सरकार थी, क्लब, सभा, सोसायटी, राजनीतिक तौर पर लोकतांत्रिक संरचनाएं थी, स्वतंत्र न्यायपालिका थी,मीडियाजनित मनोरंजन था। किंतु उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से खासकर 1980 के बाद से लोकतंत्र में गिरावट दर्ज की गई।
आपात्काल में 25 जून 1975 से 1977 फरवरी तक का दौर अधिनायकवाद के अनुभव को झेल चुका था। इसके कारण लोकतंत्र पर खतरा साफ नजर आ रहा था। आपात्काल का अनुभव बेहद खराब था, उसके बाद लोकतंत्र को सत्ता के तंत्र के जरिए नियंत्रित करने की बजाय आंतरिक तौर पर नियंत्रित करने का निर्णय लिया गया। लंबे समय तक पंचायतों के चुनाव स्थगित रहे। बाद में अदालत के हस्तक्षेप के बाद पंचायती व्यवस्था को सुचारू रूप से स्थापित किया जा सका।
आपात्काल के दौर में प्रत्यक्ष गुलामी थी जिसका बुद्धिजीवियों के एक तबके ने स्वागत किया। ये वे लोग थे जो कल्याणकारी पूंजीवाद राज्य के तहत मुक्ति के सपने देख रहे थे अथवा कल्याणकारी राज्य के संरक्षण में मलाई खा रहे थे। आपात्काल के बाद आम जिंदगी को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाने की प्रक्रिया तेज हो गयी। आंतरिक गुलामी से लड़ना बेहद जटिल हो गया। आंतरिक गुलामी प्रत्यक्ष गुलामी से भी बदतर होती है।
अब हमने इस चीज पर विचार करना बंद कर दिया है कि किसी विषय पर विचार विमर्श का सामाजिक और राजनीतिक संस्थानों के ऊपर क्या असर होता है? क्या संबंधित विमर्श का माहौल पहले से मौजूद था?
हिन्दी में आधुनिकता की जितनी भी बहस है वह आंतरिक गुलामी की प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करती है। मध्यकालीन मूल्यों और मान्यताओं का महिमामंडन करती है। यह काम परंपरा और इतिहास की खोज के नाम पर किया गया,इस तरह जाने-अनजाने कल्याणकारी राज्य की वैचारिक सेवा हुई। परंपरा और इतिहास सर्वस्व है की बजाय सामयिक साहित्य और आलोचना पद्धति का विकास किया गया होता तो ज्यादा सार्थक चीजें सामने आतीं। परंपरा और इतिहास पर चली बहसों ने हिन्दी विभागों में मध्यकालीन मान्यताओं और मूल्यों को और भी पुख्ता बनाया।
आधुनिककाल में धर्म को सार्वजनिक परिवेश का हिस्सा नहीं माना जाता था,यही वजह है कि सार्वजनिक स्थान के तौर पर मंदिरों में असवर्णों के प्रवेश को लेकर आन्दोलन हुए। सार्वजनिक पुनर्परिभाषित हुआ। धर्म भी पुनर्परिभाषित हुआ। धीरे-धीरे धर्म सामाजिक हैसियत का प्रतीक बन गया। नये सार्वजनिक वातावरण की विशेषता है स्वयं का प्रदर्शन। स्वयं को किसी बड़ी ताकत के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना।
प्रतिनिधित्व हमेशा सार्वजनिक होता है। निजी विषयों पर प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता। यह तत्व मूलत: सामंती है। सामंती दौर में प्रतिनिधित्व को सार्वजनिक माना गया। निजी विषय के प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं थी। प्रतिनिधित्व में प्रचार बुनियादी चीज है। प्रतिनिधित्व करने वाले लोग जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य का अंग बने उस समय प्रतिनिधित्व राजनीतिक संचार का हिस्सा नहीं था और न इसके लिए किसी स्थायी जगह की जरूरत थी। बल्कि यह सत्ता के प्रतिनिधियों के द्वारा नियोजित ऑडिएंस के सामने पेश की गई प्रस्तुति थी। जिसमें सामंती विषयों को समायोजित कर लिया गया था।
आजकल मध्यकाल नहीं है अत: सामंत लोग अपनी सत्ता,अधिकार और प्रभाव का वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाते जैसा वे मध्यकाल में करते थे। अत: उन्होने नए सिरे से अपनी शक्ति, सत्ता और अधिकार का प्रदर्शन के तरीके निकाल लिए हैं। वे अब मेले,सार्वजनिक आयोजनों, सार्वजनिक दावतों, शादी-ब्याह, टीवी टॉक शो आदि में शरीक होते हैं, वे लोग उन तमाम आयोजनों और कार्यक्रमों में शरीक होते हैं जिनका दृश्य मूल्य है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
aaj hum jis loktntra ki bat karte hai, vah jamin par dikhai nahi deta. shayad isi vajah se buddhijivi bi apne dayre se bahar nahi aana chahte.