इंटरनेट का लक्ष्य है ग्लोबल कम्युनिकेशन

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मेरे प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रकाशित धारावाहिक लेखों से अनेक लोग परेशान हैं कि मैं इतना क्यों लिखता हूँ? प्रवक्ता डॉट कॉम के संजीव जी मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं? मेरे कॉमरेड दोस्त नाखुश हैं मैं संघ के व्यक्ति के द्वारा संचालित वेबसाइट पर क्यों लिखता हूँ? प्रवक्ता के पन्नों पर संघ के पक्ष में सुंदर लेख रहते हैं और जिस तरह हिन्दुत्ववादी मेरे लेखों को प्रवक्ता पर देखकर नाराज हैं और संजीवजी को सवालों के घेरे में ले आए हैं, वैसे ही मेरे कुछ कम्युनिस्ट दोस्त भी भ्रमित हैं। कुछ लोगों को आपत्ति है कि मैं उनके द्वारा उठाए गए सवालों के जबाब क्यों नहीं देता। उनके सब सवालों को मिलाकर तीन सवाल बनते है इंटरनेट पर कैसे लिखें? किस नजरिए से लिखें?किसके लिए लिखते हैं?

प्रवक्ता डॉट कॉम की विचारधारा क्या है? यह वेब के परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक प्रश्न है। प्रेस या अखबार या पत्रिका आदि के संदर्भ में माध्यम की विचारधारा, संचालक की विचारधारा, संपादक की विचारधारा आदि के सवाल प्रासंगिक हुआ करते थे। कम्प्यूटर और उपग्रह क्रांति ने माध्यम से ही नहीं जीवन से लेकर राजनीति तक विचारधारा के तमाम सवालों को हाशिए पर ड़ाल दिया है।

सभी क्षेत्रों में फिसलन ही फिसलन है। आप कहीं पर भी पैर जमाकर खड़े नहीं हो सकते। आप किसी एक सवाल पर किसी एक राय पर कायम होकर खड़े नहीं रह सकते। खास किस्म का व्यवहारवाद हम सबके जीवन में आ गया है और जो व्यवहारवादी होने के लिए तैयार नहीं थे, जैसे मार्क्सवादी, हिन्दुत्ववादी, माओवादी, स्वयंसेवी अरूंधती राय, सोशलिस्ट, भाजपाई, कांग्रेसी, सभी रंगत के कम्युनिस्ट सभी को अपने विचारधारात्मक टैंट से बाहर आकर इस नई वास्तविकता का सामना करना पड़ रहा है कि वे जिन विचारों को प्राण से भी ज्यादा प्यार करते थे, उन्हीं विचारों को तिलांजलि देकर जनता के बीच में काम करने को मजबूर हैं।

हम सोच नहीं सकते थे कि भाजपा और संघ परिवार जिन मांगों को सबसे ज्यादा प्यार करते थे, उन्हीं मांगों को सत्ता और राजनीति में मोर्चा बनाने के लिए हमेशा के लिए छोड़ देंगे। हम सोच नहीं सकते हैं कि एक जमाने में दोहरी सदस्यता के सवाल पर सोशलिस्टों ने जनता पार्टी की सरकार गिरा दी, बाद में वे ही लोग भाजपा और संघ के दोस्त बन गए । कल तक माकपा का केरल में जिस मुस्लिम कट्टरपंथी दल से नापाक गठबंधन था उसे लोकसभा चुनाव के बाद उसने त्याग दिया और कांग्रेस ने हाल ही में सम्पन्न पंचायत और नगरपालिका चुनाव में उस दल को अपना लिया। यह नमूनाभर है विचारधारा की विदाई का।

इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां पर विचारधारा की भूमिका सिर्फ शब्दों तक सीमित है। इससे न तो पाठक प्रभावित होता है और न समाज प्रभावित होता है। यदि ऐसा ही होता तो अफगानिस्तान और इराक के संदर्भ में लाखों दस्तावेज जारी करने के बावजूद अमेरिका में युद्धापराधों के लिए जिम्मेदार राजनेताओं को कठघरे में खड़ा करने की मांग के लिए अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों में अभी तक एक भी प्रदर्शन क्यों नहीं हुआ?

प्रेस के जमाने में इसी अमेरिका में वाटरगेट कांड ने राष्ट्रपति सिंहासन की चूलें हिला दी थीं। भारत में मात्र 62 करोड़ रूपये की बोफोर्स दलाली के सवाल पर केन्द्र सरकार गिर गयी थी और आज अरबों करोड़ रूपये के कॉमनवेल्थगेम भ्रष्टाचार के असंख्य प्रमाण आने के बाबजूद कहीं पर कोई चिन्ता की रेखा नजर नहीं आ रही है। कोई प्रतिवाद नहीं है, प्रधानमंत्री का इस्तीफा तक किसी ने नहीं मांगा है।

प्रतिदिन बड़े-बड़े घोटाले आ रहे हैं और ठंड़े बस्ते में जा रहे हैं, कहीं पर भी उनसे किसी की सत्ता को कोई खतरा नहीं हो रहा है। इस सबका प्रधान कारण है भारत में बदला हुआ मीडिया पैराडाइम। यह असाधारण परिवर्तन है। इंटरनेट और कम्प्यूटर ने हमारी समूची जीवनप्रणाली, विचारधारा, सामाजिक संरचनाओं आदि को पूरी तरह प्रभावित किया है। हम सबको सूचना मात्र में रूपान्तरित कर दिया है।

इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है। यह विचारधारा के प्रचार का माध्यम नहीं है, यह छोटे-बड़े के भेद का माध्यम नहीं है। यह संपादक की तानाशाही की समाप्ति करने वाला माध्यम है। यह धर्म का माध्यम नहीं है। यह हिन्दुत्व, मार्क्सवाद, साम्यवाद, फासीवाद आदि के प्रचार का माध्यम नहीं है। यह सिर्फ संचार, संपर्क और संवाद का माध्यम है। आप अपनी विचारधारा के खूब जोर से नगाड़े बजाएं कोई असर नहीं होगा। आप किसी को नंगा कर दें, कोई असर नहीं होगा। क्लिंटन-लॉबिंस्की सेक्सकांड का उद्धाटन वेब ने ही किया था लेकिन परिणाम क्या निकला? क्लिंटन की कुर्सी बची रही।

नेट पर गाली दें, निंदा करें, गंभीर लिखें, फालतू लिखें, सब कुछ संचार में रूपान्तरित हो जाता है। नेट की समस्त सामग्री का संचार में समाहार वैसे ही हो रहा है जैसे कम्प्यूटर में इसके पहले के सभी माध्यमों का कनवर्जन हो गया है। अब हिन्दी में इसे लेखन कहते हैं। बहुत पहले फ्रांसीसी दार्शनिक ज्यॉक देरिदा ने इस पहलू की ओर ध्यान दिलाया था। अब न विधाएं हैं। न मीडिया है। न विचारधारा है। अब तो सिर्फ लेखन है और संचार है। अनेक लोगों को अभी यह बात समझ में नहीं आएगी क्योंकि हमारी सोचने की अनेक आदतें और समझ प्रेसक्रांति से निर्मित विचारों से बंधी हैं।

प्रवक्ता डॉट कॉम ने जब लोकतांत्रिक मंच बनाया तो उन्होंने इंटरनेट को माध्यम के रूप में सही पकड़ा। हमारे वामपंथी दलों के लोग इंटरनेट के लोकतांत्रिक और जनशिरकत वाले रूप को अभी तक समझ नहीं पाए हैं। वे अपनी वेबसाइट पर सिर्फ अपनी बातें लिखते हैं, वहां विचारों का संचार नहीं होता बल्कि सिर्फ प्रचार होता है।

इंटरनेट प्रचार का नहीं संचार का माध्यम है। इसमें बहुस्तरीय संचार होता है, दुतरफा होता है। संचार के माध्यम के रूप में हम इंटरनेट के साथ कैसे रिश्ता बनाएं इसे सीख ही नहीं पाए हैं। हमारे बहुत सारे दोस्त इस भ्रम में हैं कि मैं वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए लिखता हूँ। जी नहीं , मैं विचारधारा के प्रचार के लिए नहीं लिखता। मैं तो सिर्फ लिखता हूँ। यह मात्र संचार है, कम्युनिकेशन है। संवाद है। अनौपचारिक वर्चुअल बातचीत है। यहां गाली, निंदा, घृणा, विचारधारा, दलीय राजनीति, गली मुहल्ले की तू-तू मैं मैं आदि के लिए कोई जगह नहीं है। यह शुद्ध संचार है और संचार के अलावा कुछ भी नहीं।

यहां सामने सिर्फ वर्चुअल शब्द होते हैं। कोई व्यक्ति नहीं होता । विचारधारा नहीं होती। अब हम तय करें कि शब्दों और संचार के साथ किस तरह का संबंध बनाना चाहते हैं। वर्चुअल पन्ने का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक वह आपके सामने खुला है। पन्ना बंद तो प्रभाव भी खत्म । यही वजह है कि इंटरनेट पर आप कुछ भी लिखिए सब कुछ वर्चुअल में विलीन हो जाएगा। यानी शब्द नश्वर है। यह मंत्र याद कर लेना होगा।

अगर मैं भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीय’ ग्रंथ के हवाले से कहूँ तो अनुमान और तर्क की सहायता से ही हम शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझते हैं। पाणिनी ने भी लिखा था शब्दों का भी सम्यक ज्ञान तर्क की सहायता से ही हो सकता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए भर्तृहरि ने लिखा सभी शब्दों के अर्थ का ज्ञान तर्क पर निर्भर है। तर्क की कभी सार्थकता होती है और कभी नहीं। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी, प्रत्यक्षज्ञान और शब्दज्ञान दोनों ही अस्थिर और अविश्वसनीय हैं। लंबे अनुभव के बाद इंटरनेटयुग आने के बाद, वर्चुअल संस्कृति आने बाद सारी दुनिया को यह बोध हुआ कि प्रत्यक्षज्ञान और शब्दज्ञान दोनों ही अस्थिर और अविश्वसनीय हैं। अब मैं मधुसूदन जी के कुछ सवालों के बारे में कहना चाहता हूँ।

मधुसूदन जी ने सवाल उठाया है , ‘‘चतुर्वेदी जी पाठकों के, प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं देते? कोई उत्तर है? कि अपने लेखों का नंबर बढाने में लगे होते हैं? या पाठक को नगण्य मानते हैं? क्या, यह पाठकों का अपमान करना चाहते हैं? कुछ कठोर सोद्देश्य कहा है।’’ बंधुवर, सवाल सही हों तो जबाब देना भी अच्छा लगता है। सवाल किया है-

‘‘आपने कभी कोई इस्लामी प्रथाकी आलोचना की है? क्यों नहीं?’’ मधुसूदनजी आपकी मुश्किल यह है कि आप चाहते हैं कि मैं उन विषयों पर लिखूँ जो आप बताएं। यह कैसे हो सकता है। विषय का चयन लेखक करता है पाठक नहीं। आपको मेरे लेख पर लिखना चाहिए, उसमें व्यक्त विचारों पर राय देनी चाहिए। आपमें साहस है तो कहो कि आप मुसलमानों से घृणा करते हो। आपको स्वयं मुसलमानों की या इस्लामी प्रथा की आलोचना लिखने से किसने रोका है। आप समझदार आदमी हैं, मेहनत करके इस्लामिक प्रथाओं पर लिखें , हम भी पढ़ेंगे। आप इंतजार करें और देखें कि मुसलमानों के यहां सच क्या है?

मधुसूदन जी का सवाल है- ‘‘दो अलग अलग लेखकों के “हृदय के आदेश” अगर मत भिन्नता के कारण एक दूसरे से विपरित होकर Conflict करें, टकरा जाए, तो महान लेखक शोलोखोव उसे कैसे सुलझाते हैं?’’ शोलोखोव यही चाहेंगे कि दोनों के ही विचार समाज में रहें। अन्तर्विरोधी विचार, अन्तर्विरोधीवर्ग आदि में न्यूनतम सामाजिक मान्यताओं के आधार पर सामंजस्य बना रहे। जैसे आप और हम में लोकतंत्र के न्यूनतम कार्यक्रम, नियम, कायदे कानून आदि के आधार पर सामंजस्य है।

मधुसूदन जी ने फिर सवाल किया है ‘‘लेखक का कोई राष्ट्र नहीं होता, राष्ट्रवाद नहीं होता। धर्म नहीं होता। वह समूची मानवता का होता है और सत्य का पुजारी होता है। सत्य के अलावा वह कोई चीज स्वीकार नहीं करता। उसके अंदर राष्ट्रप्रेम नहीं, सत्यप्रेम होता है। वह किसी का भोंपू नहीं होता वह महान रूसी लेखक शोलोखोव के शब्दों में हृदय के आदेश पर बोलता, सोचता और लिखता है।” मैं आप दोनो से पूछता हूं।

प्रश्न [क] क्या इस उद्धरण का उपयोग करके, सारे लेखकों को राष्ट्रद्रोह के लिए आप लायसेन्स देकर उकसा तो नहीं रहे हैं?’’ जी नहीं। लेखन राष्ट्रद्रोह नहीं होता है। वह क्या है , इसके बारे में आपको कोई वकील अच्छी तरह समझा देगा, वैसे अरूंधती प्रकरण पर हाल में हल्ला मचाने वालों को केन्द्र सरकार ने समझा दिया है कि अरूंधती राय का बयान राष्ट्रद्रोह की केटेगरी में नहीं आता, अरे भाई यह कैसा पाठ पढ़ा है कि कानून की किताब में लिखी बात को भी समझने में दिक्कत हो रही है !

सवाल किया है -‘‘[ग] मान लीजिए, कि, चतुर्वेदी जी भारत विरोधी और चीन के पक्षमें, लेख लिखकर भारत में क्रांति करवाएंगे, तो उन्हे एक लेखक होने के नाते { उन्हे ऐसा सत्य प्रतीत हो, तो, } ऐसा करने का पूरा अधिकार है? क्यों कि लेखक का कोई राष्ट्र नहीं होता, राष्ट्रवाद नहीं होता, ……. इत्यादि इत्यादि।’’ अरे भाई सोल्झेनित्सिन को भूल गए? वह कहां पर रहकर सोवियत संघ के समाजवाद का विरोध कर रहा था? वह जनतांत्रिक था । इसी तरह जर्मनी के अनेकों लेखकों ने हिटलर के फासीवाद का विदेश में रहकर जमकर विरोध किया था। उनका ऐसा करना मानवता की महान सेवा में गिना जाता है। भारत के राजा महेन्द्रप्रताप ने विदेश में रहकर भारत की सरकार बनायी थी, सैंकड़ों बुद्धिजीवियों ने विदेशों में रहकर, खासकर ब्रिटेन में रहकर ब्रिटिश शासकों की औपनिवेशिक शासन प्रणाली का विरोध किया था। फ्रांस की राज्य क्रांति से सारी दुनिया प्रभावित हुई है। उससे प्रेरणा लेने वालों में भारत भी है। ध्यान रहे फ्रांस की राज्य क्रांति हुई थी फ्रांस में , लेकिन उसने सारी दुनिया के लेखकों और राजनेताओं को प्रभावित किया। लेखक कैसे प्रभावित थे, उसका एक ही उदाहरण दूँगा।

बायरन अंग्रेजी साहित्य के बड़े कवि हैं। जिस समय फ्रांस की राज्य क्रांति हुई थी उस समय इंग्लैंड में बादशाही चल रही थी। बायरन ने लिखा ‘‘ बादशाह नहीं , मुझे प्रजातंत्र चाहिए। बादशाहों के दिन लद गए। खून पानी की तरह बहेगा और आंसू कुहासे की तरह झरेंगे। लेकिन जनता अंत में विजयी होगी। मैं यह सब देखने के लिए नहीं रहूँगा किन्तु भविष्य के गर्भ में मैं उसे देख रहा हूँ।’’ बायरन ने ही 1811 में ‘ द कर्स ऑफ मिनरवा’ नामक महान कविता लिखी थी। इस कविता से हमारे लेखक बहुत कुछ सीख सकते हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है मिनरवा नाम की देवी इंगलैंड के निवासियों को शाप देती है। अंग्रेजों को स्वाधीनता प्राप्त हुई है लेकिन वे अपनी स्वाधीनता का दुरूपयोग कर रहे हैं, वे दूसरों को गुलाम बना रहे हैं ।जिन्हें वे गुलाम बना रहे हैं, वे एक दिन अवश्य विद्रोह करेंगे। और इन्हें अपने देश से निकाल बाहर करेंगे। मिनरवा अंग्रेजों से कहती हैः‘ पूरब की तरफ देखो।गंगा के किनारे ये जो काले आदमी हैं, वे तुम्हारे अत्याचारी साम्राज्य को उसकी जड़ सहित हिला देंगे। देखो, वह विद्रोह अपना भयावना सिर उठा रहा है । और देशीजनों की मृत्यु का प्रतिशोध दहक रहा है। सिंधु नदी लाल रक्त की धारा जैसी बह रही है। उत्तर के निवासियों का रक्त वह माँगती रही है, वह बहुत पुरानी माँग अब पूरी हो रही है। इसी तरह तुम्हारा नाश हो। पैलास देवी ने जब तुम्हें स्वाधीन नागरिकों के अधिकार दिए थे, तब उसने निषेध किया था कि दूसरों को दास मत बनाना।’ इन पंक्तियों में बायरन ने अपने देश के शासकों का जमकर विरोध किया है और उनके विनाश की कामना की है। उनकी धारणा थी कि भारतवासी हमेशा गुलाम नहीं रहेंगे। वरन एक दिन प्रतिशोध लेंगे और अंग्रेजों की दासता से अपने को मुक्त करेंगे।

भारत में जो लोग क्रांति करना चाहते हैं वे बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के प्रति वचनवद्ध हैं। जनता के प्रति वचनवद्ध हैं। वे किसी देश, सरकार, राष्ट्रवाद आदि के प्रति वचनवद्ध नहीं हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मधुसूदन जी थोड़ा स्वाध्याय करें और जो सवाल उन्हें सता रहे हैं उनके उत्तर जानने और लिखने की कोशिश करें। सवाल के नाम पर सवाल उठाना, ऐसे सवाल उठाना जो बुनियादी रूप से गलत हैं, बहस को सही दिशा देना नहीं है। यही वजह है कि मैं आपके और आपके जैसे बहुत सारे दोस्तों के सवालों के जबाब नहीं दे पाता। वे पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने के लंबे काम को अपनी ईमेल मार्का टिप्पणियों से पूरा करना चाहते हैं। यदि सवाल उठते हैं तो थोड़ा विश्व साहित्य पढ़ें जबाब मिल जाएंगे।

3 COMMENTS

  1. “वे किसी देश, सरकार, राष्ट्रवाद आदि के प्रति वचनवद्ध नहीं हैं। ”
    क्या इससे ज्यादा कोयी खुबसुरिति से “गद्दारी” को बडावा दे सकता है??्कुछ लोग “मजहब” के आगे राष्ट्र को नही मानते कुछ “विचार” के आगे.कुछ वैश्विक आतंगवाद फ़ैलाते है कुछ नक्स्ल्वाद,क्या दोनो मेकोयी मुल्भुत अन्तर है???एक किताब एक खुदा एक स्वर्ग एक पैगम्बर को मानने वाले ये दोनो मजहब इस्लाम और मार्क्स्वाद के कारण ये दुनिया खुन से रंगी पडी है,गद्द्दारो की बहुत लम्बी श्रंखला है,बेशर्मी से इस गद्दारी को बता भी रहे है,क्या इनके “विध्यार्थियो” को पता है इनके ये नेक विचार????
    प्रव्क्ता को क्या कोयी ओर सबुत चाहिये???या प्रव्क्ता के सम्पादक महोदय ने तय कर रखा है कि हम घोशित रुप से खुद को गद्दादर कहने वालो का लेख छापेगें????
    हो सकता है मेरी मोटि बुध्दि को ही इसमे गद्दारी दिखती हो,लेकिन जो मुझे लगता है वो मेने लिखा पाठक गण क्या सोचते है इस विषय पर?????

  2. अनिल सहगल जी यदि आप गंभीरता से हिन्दी के प्रेमचंद,रामविलास शर्मा और बांग्ला के रवीन्द्र नाथ टैगोर को पढ़ लें तो काफी समस्याएं कम हो सकती हैं। ये तीनों लेखक विश्व साहित्य की निधि हैं।

  3. इंटरनेट का लक्ष्य है ग्लोबल कम्युनिकेशन – by – जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

    आप की राए अनुसार, आपका यह लेख पढ़, एक प्रारंभिक सवाल उठ रहा है :

    कि कौन सा विनिर्दिशट विश्व साहित्य पढ़ें

    कि आपके अभी लिखे अनेक विषय पर जबाब मिल जाएंगे.

    एक प्रोफेसर होते, मुझे छात्र मान, मार्ग दर्शन करें. यह विनती है.

    आप से सीखने की बहुत तमन्ना है.

    – अनिल सहगल –

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