सत्य को देखा कारागार में, न्याय विवश हो विलख पड़ा।
भड़ी सभा में नग्न पुण्य भी, पाप के आगे विवश खड़ा।
चना अकेला भाड़ क्या फोड़े, निर्बल दुःख को मौन सहा।
क्रूर छली का पाकर सम्बल, ढोंग यथार्थ को दबा गया ।
प्रश्न नहीं तिल -तिल मरने का, चाह नहीं इस जीवन का।
राह देखता व्यथित बिबस मन, महाप्रलय के आने का।
पापी -जन का ह्रदय हिला दे, हो महाकाल का गर्जन घोर।
कब सुनु मैं क्रूर का क्रंदन ,जिससे नाचे मन का मोर?
अनिवार्य धरती का शोधन, कोई नहीं अब अन्य सहारा।
मक्कारो की मक्कारी से ,विवश है शायद प्रभु हमारा।
मोह नहीं अब जीवन -सुख का, चाह नहीं कुछ पाने का।
राह देखता व्यथित बिबस मन ,महाप्रलय के आने का।
मायापति भी देख चकित है, कलुषित बल की काली सत्ता।
गम पीकर भी बेजुबान जन, भय से बल की गाए महत्ता।
जब देवतत्व उपकार के बदले, क्रूर प्रपंच का प्रतिफल पाया।
कैसे किस पर दया दिखाएं, दयानिधि को समझ न आया।
जब छल -प्रपंच से दुखी प्रभु का, हुआ राह बंद फिर आने का।
राह देखता व्यथित बिबस मन, महाप्रलय के आने का।
आदर्श भरी बातों के भ्रम से, है भ्रम फैला उजियाले का।
भयभीत मन में झांख के देखो, है व्यकुलता अंधियारे का।
जीवन जीने के खातिर बेबस, हो बेजुबान गम छिपा लिया।
नकली जीवन जी-जीकर, नकलीपन में जीवन बिता दिया।
मोह नहीं बेबस जीवन का, मुझे चाह नहीं नकलीपन का।
राह देखता व्यथित बिबस मन, महाप्रलय के आने का।
न्याय,दया के माया जाल से ,पूरे जग को भ्रमित किया ।
अत्याचार के तांडव पर भी , गूंगा रहने पर विवश किया।
मौन दर्द पी सकता निर्बल, पर दर्द समझता खेवनहार ।
जीवन मोह से बिबस है जन पर, बिबस नहीं है तारणहार।
चाह नहीं गूंगे जीवन का, बन मूक शौक गम पीने का।
राह देखता व्यथित बिबस मन, महाप्रलय के आने का।
है आह्वान दयानिधि को, चिरनिंद्रा से जगाने का।
अंतर्मन के करुण पुकार से, ज्वार सृष्टि में लाने का।
अश्रु के अविरल धारा से ,क्षीर -सागर दहलाने का।
महाकाल की करके साधना ,ताण्डव नृत्य करवाने का।
प्रश्न नहीं अब जीवन -क्षय का, शोक नहीं कुछ खोने का।
राह देखता व्यथित बिबस मन ,महाप्रलय के आने का।