-ललित गर्ग-
बिहार में एक बार फिर कानून-व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। बेखौफ अपराधियों का आतंक, दिन-दहाड़े हत्याएं, लूट, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध यह संकेत दे रहे हैं कि ‘सुशासन बाबू’ के नाम से मशहूर नीतीश कुमार का प्रशासन कहीं अपने वादों और आदर्शों से भटकता नजर आ रहा है। आगामी विधानसभा चुनाव की दस्तक के बीच आमजन में यह सवाल तेजी से उभर रहा है कि क्या बिहार में सुशासन अब फिर से जंगलराज में तब्दील हो रहा है? क्योंकि व्यापारियों, राजनेताओं, वकीलों, शिक्षकों और आम नागरिकों को निशाना बनाकर की गई लगातार हत्याओं ने बिहार की कानून-व्यवस्था को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा कर दी हैं। पुलिस इन घटना के लिए अवैध हथियारों और गोला-बारूद की व्यापक उपलब्धता को ज़िम्मेदार ठहरा रही है, पुलिस के उच्च अधिकारियों के कुछ बेतूके बयान हास्यास्पद एवं शर्मनाक होने के साथ चिन्ताजनक है। उनके हिसाब से जून में ज्यादा वारदात होती हैं, क्योंकि मॉनसून आने के पहले तक किसान खाली बैठे होते हैं। राज्य की राजधानी पटना के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दिनदहाड़े 5 शूटर्स ने जिस तरह एक गैंगस्टर की हत्या की, उससे यही लगता है कि कानून-व्यवस्था का डर खत्म हो चुका है। पिछले 10 दिनों में एक के बाद एक कई आपराधिक घटनाओं में व्यापारी गोपाल खेमका, भाजपा नेता सुरेंद्र कुमार, एक 60 वर्षीय महिला, एक दुकानदार, एक वकील और एक शिक्षक सहित कई हत्याओं ने चुनावी राज्य को हिलाकर रख दिया है।
बिहार में कानून और व्यवस्था की स्थिति को लेकर राजनीतिक घमासान चरम पर है। विपक्ष, खासकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस, जहां नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पर लगातार हमलावर है, वही एनडीए इन मुद्दों पर जबावी एवं रक्षात्मक हमला करते हुए चुनाव पर इनके असर को बेअसर करने में जुटी है। लालू यादव के शासनकाल के ‘जंगलराज’ की भी याद दिलाने की कोशिश एनडीए की पार्टियां कर रही है ताकि विपक्ष इन मामलों पर ज्यादा हावी ना हो। भाजपा के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन का कहना है कि बिहार की जनता लालू राज में जो जंगलराज था, उसे भूली नहीं हैं। विपक्ष चाहे जो भी आरोप लगाए बिहार में आज सुशासन का राज है और जो घटनाएं हुई हैं वह योजनागत अपराध के तहत है, जिस पर सरकार कड़ी करवाई कर रही है।’ हॉस्पिटल में जिसकी हत्या हुई, वह खुद हत्या के मामले में जेल में बंद था और फिलहाल पैरोल पर बाहर आया था। शुरुआती रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस वारदात में विरोधी गैंग शामिल हो सकता है। इसका मतलब कि राज्य में संगठित अपराध फिर सिर उठा रहा है। इसी महीने, 4 जुलाई को बिहार के बड़े व्यवसायी गोपाल खेमका की हत्या हुई थी और उसमें भी भाड़े के शूटर्स का इस्तेमाल किया गया था। ऐसी हत्याएं बार-बार हो रही हैं, यह सिलसिला कहीं रुकता नहीं दिख रहा।
पक्ष एवं विपक्ष के राजनीतिक दल एवं नेता चाहे जो बयान दें, लेकिन बिहार में अपराध तो बढ़ ही रहे हैं, आमजनता में भय एवं असुरक्षा व्याप्त है।। हाल ही में राजधानी पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, और गया जैसे प्रमुख शहरों में हुईं हत्या और डकैती की घटनाएं न केवल भयावह हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि अपराधी अब पुलिस और प्रशासन से नहीं डरते और पुलिस का अपराधियों पर नियंत्रण खत्म होता जा रहा है। सड़क पर चल रहे आम लोगों को दिनदहाड़े गोली मार दी जाती है, व्यापारियों से रंगदारी मांगी जाती है, महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि बिहार भले अपराध में कई दूसरे राज्यों से पीछे दिखता हो, लेकिन सच यही है कि आंकड़े पूरी कहानी नहीं बताते। राज्य में ये अपराध तब हो रहे हैं, जब पूरा फोकस क्राइम कंट्रोल पर है। बिहार में पिछले तीन वर्षों में अपराध दर में निरंतर वृद्धि हुई है। हत्या, बलात्कार, अपहरण, और लूट जैसे संगीन अपराधों में राज्य शीर्ष स्थानों में शामिल हो गया है। यह स्थिति न केवल चिंताजनक है, बल्कि चुनावी राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बनकर उभर रही है।
एक समय था जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर उल्लेखनीय सुधार किए थे। लालू-राबड़ी शासन के समय जिसे जंगलराज कहा जाता था, उसके मुकाबले एक उम्मीद जगी थी कि बिहार अब विकास, सुरक्षा और शांति की राह पर है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में जनता फिर से असुरक्षा, भय और अराजकता के वातावरण में जीने को मजबूर है। इन स्थितियों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब सरकार के पास प्रशासनिक अनुभव है, गठबंधन के रूप में राजनीतिक ताकत है, तो फिर अपराधियों पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है? बिहार में कानून एवं व्यवस्था के मुद्दे के साथ हमेशा राजनीति का पहलू जुड़ा रहा है। राज्य के लोगों के जहन में कई बुरी यादें हैं और राजनीतिक बाजीगरी में यह कोशिश होती है कि वे यादें कभी कमजोर न पड़ें। अभी तक इसका फायदा सीएम नीतीश कुमार को मिला है। नीतीश और भाजपा ने लालू-राबड़ी यादव के कार्यकाल को हमेशा ‘जंगलराज’ के तौर पर पेश किया। लेकिन, अब वही सवाल पलट कर उनकी ओर आ रहे हैं, जो आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर चिन्ता एवं चेतावनी का सबब बनना ही चाहिए।
बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण और गठबंधनों की जोड़तोड़ हमेशा से हावी रही है। लेकिन अब जो नया परिदृश्य बन रहा है, उसमें अपराध और अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलने के आरोप भी आम हो गए हैं। हाल ही में कई मामलों में नेताओं और जनप्रतिनिधियों के आपराधिक तत्वों से संबंध उजागर हुए हैं। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है, बल्कि जनविश्वास की भी अवहेलना है। यदि अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलेगा, तो फिर आम जनता के लिए न्याय और सुरक्षा केवल एक सपना बनकर रह जाएगा। हाल के अपराधों की घटनाओं ने विपक्ष को सरकार की नाकामी उजागर करने का मौका दिया है, जबकि भाजपा और जदयू रक्षात्मक रुख अपना रहे हैं और इन घटनाओं कोे योजनागत घटनाओं का नाम देकर राजद सरकार के समय की आपराधिक घटनाओं के साथ तुलना कर रहे हैं। मगर सूत्रों की माने तो पार्टी इस बात को लेकर तैयारी जरूर कर रही कि, यदि यह मुद्दा संसद के आगामी सत्र में विपक्ष उठाती है तो उस पर कैसे जवाब देना है? जिस बिहार के पूर्ववर्ती सरकारों के कानून एवं व्यवस्था की खराब स्थिति को मुख्य मुद्दा बनाकर एनडीए सरकार सत्ता में आई थी अब यही मुद्दा विपक्ष के हाथ लग गया है। बिहार की जनता बदलाव चाहती है। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुरक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों पर ठोस कदम चाहिए, न कि केवल वादों की झड़ी। विपक्ष इस समय सरकार को घेरने के लिए पूरी तैयारी में है और ‘बदहाल कानून-व्यवस्था’ को मुख्य चुनावी मुद्दा बना रहा है।
आरजेडी-कांग्रेस भाजपा और नीतीश सरकार पर हमला बोल रहे हैं कि जिनके शासन में कभी सुशासन की मिसाल दी जाती थी, अब वही शासन अपराधियों के आगे बेबस नजर आ रहा है। बिहार के लिए यह समय आत्मचिंतन का है। सरकार को चाहिए कि वह पुलिस-प्रशासन को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दे, अपराधियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करे और राजनीतिक हस्तक्षेप को समाप्त करे। साथ ही न्यायिक प्रक्रिया को तेज़ किया जाए ताकि अपराधियों को जल्द सजा मिले। बिहार इस समय एक निर्णायक मोड़ पर है। अन्यथा एक ओर पुराना भयावह जंगलराज लौटने की आशंका है, दूसरी ओर एक सक्षम, उत्तरदायी और पारदर्शी प्रशासन की आवश्यकता। यदि वर्तमान सरकार इस संदेश को नहीं समझती, तो आगामी विधानसभा चुनाव बिहार की राजनीति का नया अध्याय लिख सकते हैं, जिसमें सुशासन नहीं, जनाक्रोश निर्णायक भूमिका निभाएगा। जनता के लिए भी यह चुनाव एक अवसर है कि वे विकास, सुरक्षा और पारदर्शिता के आधार पर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करें, न कि जाति या चहेते दल के नाम पर।