अनिल धर्मदेश
2024 के आम चुनाव से पहले खुद इंडिया ब्लॉक ने राहुल गांधी को गठबंधन का नेता मानने से इनकार कर दिया था। ममता और केजरीवाल का विरोध देख कांग्रेस बैकफुट पर थी। ऐन चुनाव के वक्त किसी फजीहत से बचने के लिए पार्टी ने किसी प्रकार मल्लिकार्जुन खड़गे को गठबंधन का अध्यक्ष बनवा लिया था। राहुल चाहे विपक्ष से पीएम कैंडिडेट नहीं बन सके पर खड़गे के अध्यक्ष चुने जाने से कांग्रेस की बड़े भाई वाली भूमिका किसी प्रकार सुनिश्चित हो सकी और यहीं से शुरू हुई राहुल को देश का नेता नंबर दो यानी विपक्ष का नेता नंबर एक बनाने की कवायद।
आज कांग्रेस के थिंकटैंक की दृष्टि स्पष्ट है कि केंद्र से लेकर राज्यों तक मोदी का अगर कोई प्रतिद्वंद्वी हो तो वह सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी हों। 2024 के आम चुनाव और उसके बाद पांच राज्यों के चुनावों के नतीजों पर कांग्रेस के आंतरिक मंथन से यही निकलकर आया कि राज्यों में पार्टी की पकड़ बहुत कमजोर हो चुकी है, विशेषकर उन राज्यों में, जहाँ कोई तीसरा दल मजबूत है। यूपी, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली, पंजाब और बंगाल तक कांग्रेस पार्टी को भाजपा से अधिक नुकसान स्थानीय दल पहुंचा रहे हैं। कमजोर संगठन और बड़े चेहरे के अभाव के कारण चुनावों में क्षेत्रीय दलों के साथ आपसी खींचतान के बावजूद कांग्रेस को बहुत कम सीटें दी जाती हैं। इतनी कम कि वह राज्य में उसके गठबंधन की सरकार बन जाने पर भी पार्टी किसी परजीवी से अधिक नहीं दिखाई पड़ती। खस्ताहाल संगठन के भरोसे अकेले चुनाव लड़ना फिलवक्त कांग्रेस के बस का काम नहीं है। कांग्रेस के लिए गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य ज्यादा अच्छे हैं, जहाँ बुरी तरह चुनाव हार जाने पर भी वह भाजपा का अकेला विकल्प बनी रहती है।
तीसरी शक्ति की उपस्थिति वाले राज्यों में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने के लिए ही पिछले दो-तीन वर्षों से लगातार राहुल गांधी कोई न कोई नया मुद्दा उठाकर राष्ट्रीय चर्चाओं के केंद्र में हैं फिर चाहे वह चीन द्वारा भारत की जमीन हड़पने का आरोप हो या अमेरिका में ही प्रतिबंधित कर दी गयी वित्तीय सलाहकार कंपनी हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान और बाद में सरकार और सेना पर उंगली उठाना हो या अब वोट चोरी का मुद्दा। राहुल के ये हमले प्रथम दृष्टया तो केंद्र सरकार पर हैं मगर इनके गर्भ में भाजपा विरोधी विचारधारा के मध्य उनकी राष्ट्रीय लोकप्रियता को शीर्ष तक पहुंचाना ही असल मकसद है। संक्षेप में कहें तो निशाने पर कोई और दिख रहा है जबकि निशाना है कहीं और ही।
राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी से मोर्चा लेने में सक्षम दिखाने के प्रयास 2018 से ही प्रारंभ हो चुके थे। संसद में कठोर बयानबाजी के शुरुआती प्रयास को सरकार ने अपनी साख-रक्षा में चौतरफा हमले से कमजोर कर दिया। उल्टा सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगकर पार्टी की किरकिरी ही हो गयी। इसके बाद पैदल यात्राओं का प्रयोग हुआ पर इसमें अत्यधिक समय और श्रम खर्चने के बाद भी अल्पसंख्यक समाज के बीच राहुल की वह छाप स्थापित नहीं हो सकी जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। ऐसे में आगामी बिहार चुनावों से पहले कांग्रेस मीडिया की सुर्खियों के माध्यम से विपक्षी वोटों के खेमे में राहुल की लोकप्रियता को इस हद तक गहरा करना चाह रही है कि कांग्रेस अपने दम पर 30-35% तक वोट प्राप्त कर सके। कम से कम 25 फीसद तो हो ही। प्रयास यह है कि कांग्रेस का पुराना वोटर यानी मुस्लिम समुदाय राज्यों के चुनाव में भी पार्टी के साथ आए। कुछ दशकों से विधानसभा चुनावों में यह वोटर क्षेत्रीय दलों के साथ चला जाता है। यही कारण है कि क्षेत्रीय दल राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा तरजीह नहीं देते।
यह विपक्षी वोटबैंक में सेंध लगाने की कांग्रेस पार्टी की महत्वाकांक्षा ही है जिसके कारण सभी गैर एनडीए दल मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए लगातार गैर लोकतांत्रिक प्रयोग कर रहे हैं। जानकारों का मानना है कि 2024 चुनावों के बाद इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन भी पसोपेश में है। केंद्र में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन के बाद राज्यों के चुनाव में किसे समर्थन दिया जाए, इसे लेकर निश्चत रूप से असमंजस है जबकि दिल्ली चुनावों में कांग्रेस ने आआपा की हार सुनिश्चित कराकर विपक्षी वोटबैंक लॉबी को अपनी ताकत का अहसास भी करा ही दिया है। यही कारण है कि बिहार में आरजेडी हो या यूपी में सपा, दोनों ही पार्टियाँ कांग्रेस के निर्णय को लेकर सतर्क भी हैं और राहुल गांधी के साथ सहयोगी भी। लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के कार्यक्रम निरस्त करने वाले विपक्षी दल आज कांग्रेस पार्टी के कैम्पेन में खुद सहयोगी बनकर खड़े हैं। मतलब कांग्रेस की रणनीति के पासे इस वक्त बिल्कुल सही पड़ रहे हैं।
राहुल गांधी की सरकार विरोधी छवि आखिरी आदमी तक स्थापित हो जाने के बाद राज्यों में सीट बंटवारे के वक्त पार्टी को बैकफुट पर नहीं रहेना पड़ेगा। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में मोदी के समक्ष विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा होने के नाते राहुल गांधी को चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार प्रोजेक्ट कराने का रास्ता भी खुल जाएगा। कांग्रेस की आक्रामकता बता रही है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में समूचा विपक्ष साथ दे या न दे, पार्टी राहुल गांधी को निश्चित रूप से चुनाव पूर्व ही बतौर पीएम कैंडिडेट प्रस्तुत करेगी।
भाजपा के रणनीतिकार कांग्रेस की समूची मुहिम पर करीब से नजर बनाए हुए हैं हालांकि उन्हें विपक्षी वोटबैंक में राहुल की प्रसिद्धि बढ़ने से अधिक परेशानी नहीं है क्योंकि सीधे चुनाव में भाजपा अधिकतर कांग्रेस पर भारी पड़ती आयी है। यही कारण है कि राहुल गांधी के सनसनीखेज आरोपों के बावजूद पार्टी और सरकार का रुख अपेक्षाकृत लचीला है। भाजपा भी कई मौकों पर दो दलीय या राष्ट्रीय दलों वाले लोकतंत्र की पक्षधर रही है।
अनिल धर्मदेश